[ सी उदयभास्कर ]: सुप्रीम कोर्ट के पूर्व मुख्य न्यायाधीश टीएस ठाकुर ने यह सही सवाल किया है कि जब हिंसक भीड़ कानून अपने हाथ में लेकर इंसाफ कर रही है तो फिर कैसे कहा जा सकता है कि देश में कानून का राज है? भीड़ की हिंसा के मामलों का उल्लेख करते हुए जस्टिस ठाकुर ने कहा कि ऐसे मामले कानून व्यवस्था के पतन को स्पष्ट करते हैैं। इस पर हैरानी नहीं कि वर्ल्ड जस्टिस प्रोजेक्ट रिपोर्ट 2017 में 113 देशों की सूची में भारत 62वें स्थान पर रहा। यह सूची कानून एवं व्यवस्था के 44 संकेतकों के आधार पर तैयार की गई थी।

देश में हिंसक भीड़ के बढ़ते मामलों से कुपित सुप्रीम कोर्ट ने 17 जुलाई को सख्त टिप्पणी करते हुए सरकार को इससे निपटने के लिए कानून बनाने का निर्देश दिया था। अदालत ने इसे ‘भीड़तंत्र की भयावहता’ बताया। इसके तीन दिन बाद राजस्थान के अलवर जिले में एक और नागरिक की जिंदगी हिंसक भीड़ की भेंट चढ़ गई। जान गंवाने वाले का अपराध सिर्फ यह था कि उस पर और उसके साथी पर गो-तस्करी का संदेह था।

अकबर खान नाम का 28 साल का यह शख्स पड़ोसी राज्य हरियाणा का था। हालांकि हिंसक भीड़ द्वारा कानून हाथ में लेने का यह पहला ऐसा मामला नहीं था। पिछले चार वर्षों के दौरान मवेशियों और खास तौर से गाय की खरीद-फरोख्त करने वालों पर हमले बढ़े हैं। दुर्योग से इसका सिलसिला भाजपा सरकार के सत्तारूढ़ होने के वक्त से ही शुरू हो गया था।

राजस्थान सरकार ने अकबर के मामले में सख्त कदम उठाने का वादा किया है, लेकिन इस वादे के बहुत ज्यादा मायने नहीं हैैं। ध्यान रहे कि अप्रैल 2017 में भी अलवर में ऐसा ही वाकया देखने को मिला था। तब भी ऐसे ही आरोपों के चलते हिंसक भीड़ द्वारा पहलू खान नाम के व्यक्ति की हत्या कर दी गई थी। इस मामले में अभी इंसाफ होना शेष है। इन दोनों ही मामलों में यह बात समान है कि हिंसा का शिकार बने शख्स अपने परिवार की आजीविका चलाते थे।

सुप्रीम कोर्ट ने जिस मोबोक्रेसी या भीड़तंत्र की ओर इशारा किया वह बच्चा चुराने से जुड़ी अफवाहों पर भी लागू होता है। ये अफवाहें अमूमन सोशल मीडिया द्वारा फैलाई जाती हैं। ऐसी झूठी सूचनाओं से प्रभावित होकर गुस्साई भीड़ ने तमाम निर्दोष लोगों की जान ले ली है। हिंसक भीड़ लोगों को निशाना बनाने में न कोई लिहाज करती है और न ही कोई भेदभाव। दो हालिया मामलों से इसे समझा जा सकता है। इसमें एक मामला तिरुवनंतपुरम का है जहां भीड़ ने कांग्रेस नेता शशि थरूर के कार्यालय में उत्पात मचाया।

दूसरा मामला झारखंड से जुड़ा है जहां हिंसक भीड़ ने वयोवृद्ध सामाजिक कार्यकर्ता स्वामी अग्निवेश की बुरी तरह पिटाई कर दी। दोनों ही मामलों में चिंगारी भड़कने की एक ही वजह यह थी कि कथित तौर पर हिंदू धर्म का अपमान किया गया। हिंदुत्ववादी संगठनों और भाजपा से जुड़े स्थानीय कार्यकर्ताओं ने इन हमलों की जिम्मेदारी भी ली। वे यहीं नहीं रुके, बल्कि उन्होंने धमकाया कि अगर आगे भी ऐसा हुआ तो वे ‘दंडित’ करने में पीछे नहीं रहेंगे।

हिंसक भीड़ द्वारा निशाना बनाकर की जाने वाली हत्याएं भारत के लिए नई नहीं हैं। इनसे जुड़ी सांप्रदायिक या वर्गीय कड़ी को अकादमिक जगत और सामाजिक कार्यकर्ताओं द्वारा उजागर भी किया गया है। राजनीतिक सरपरस्ती में बड़े पैमाने पर की गर्ई हिंसा के दो बड़े मामले जेहन में आते हैं। इनमें एक तो 1984 में हुए सिख विरोधी दंगे थे तो दूसरा 2002 में गोधरा कांड के बाद स्थानीय मुस्लिम आबादी को निशाना बनाने वाली घटना। दोनों ही मामलों में राज्य नागरिकों को सुरक्षा उपलब्ध कराने के अपने मूलभूत दायित्व की पूर्ति नहीं कर पाया। पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने इस पर कहा था कि राजधर्म का पालन नहीं हुआ।

दोनों ही मामलों में स्थानीय पुलिस या तो कानून व्यवस्था बनाए रखने में अक्षम रही या कानून व्यवस्था बनाए रखने की उसकी कोई मंशा ही नहीं थी। यह बहुत ही निंदनीय है, लेकिन अक्सर इस पहलू की अनदेखी हो जाती है कि शासन-प्रशासन के कुछ तत्वों की हिंसा पर उतारू लोगों से साठगांठ होती है और वे उन्हें रोकने के बजाय उनको प्रोत्साहन देते हैैं।

बहरहाल मौजूदा दौर का एक रुझान बहुत विचलित करने वाला है और वह यह कि हम ऐसे उन्मादी सामाजिक-राजनीतिक आर्थिक तंत्र के दौर से गुजर रहे हैं जिसमें असहिष्णुता और धार्मिक भावनाएं भड़काकर नफरत फैलाई जा रही है। यकायक, लेकिन संगठित रूप से जुटी हिंसक भीड़ ने अपने मंसूबे पूरे किए और कानून व्यवस्था का जिम्मा संभालने वाले आंखें मूंदे रहे। पुलिस के मोर्चे पर यह लापरवाही उस अघोषित राजनीतिक रुझान की वजह से होती है जो बहुसंख्यक भावनाओं को चालाकी से भुनाती है। भीड़ को डराने और उसे जुटाने वालों के मन में खौफ पैदा करने को लेकर सुप्रीम कोर्ट द्वारा नए कानून के निर्देश की मंशा तो भली है, लेकिन इसके प्रभावी होने की उम्मीद कम ही है। जहरीले भाषण या हिंसक घटनाओं से निपटने के लिए मौजूदा कानून पर्याप्त सक्षम हैं, लेकिन तभी जब स्थानीय पुलिस संजीदगी से काम करे और सभी नागरिकों को एक नजर से देखे।

अपराधियों के बच निकलने का सिलसिला खतरे की घंटी बजा रहा है। किसी भी लोकतंत्र में आंतरिक सुरक्षा की स्थिति कानून लागू करने वाली एजेंसियों की साख, नागरिकों द्वारा उनका पालन और संस्थागत ईमानदारी से तय होती है। इसी से पीड़ित को जल्द न्याय मिलना सुनिश्चित होता है। भारत में ये तत्व आज नदारद नजर आ रहे हैं जबकि अपराधियों के बेलगाम होकर आजाद घूमने का सिलसिला तेजी से बढ़ा है।

अपराधों का दायरा बढ़ रहा है और यह केवल भीड़ तंत्र तक ही सीमित नहीं है। बच्चों और महिलाओं के खिलाफ यौन अपराध बेहद आम हो गए हैं। मीडिया में रोजाना आने वाली यौन अपराध की जघन्य घटनाएं बताती हैं कि मानवता और नैतिक मूल्यों का किस हद तक पतन हुआ है। ऐसी स्थिति भी मौजूदा कानूनों में कमी के कारण पैदा नहीं हुई है।

सुप्रीम कोर्ट ने जिस दिन कार्यपालिका को हिंसक भीड़ को लेकर चेताया उसी दिन अकबर खान की हत्या हुई, लेकिन संसद में हिंसक भीड़ और आंतरिक सुरक्षा को लेकर भाजपा और कांग्रेस के बीच जुबानी जंग में इस मुद्दे को ‘राज्यों’ का विषय बताकर किनारे कर दिया गया। देश के आंतरिक सुरक्षा ढांचे में लापरवाही और जानबूझकर असहिष्णु समाज का निर्माण विध्वंस को आमंत्रण देता है। राजनीतिक इच्छाशक्ति के बिना कोई भी नया कानून हिंसक भीड़ पर लगाम नहीं लगा सकता। इस मामले में देश के पूर्व कैबिनेट सचिव निर्मल मुखर्जी की आंतरिक सुरक्षा पर बैठक का एक वाकया याद आता है।

उन्होंने कहा था कि जिला प्रशासन के पास कानून व्यवस्था बनाए रखने के लिए आइपीसी के तहत तमाम प्रावधान मौजूद होते हैं। उनका कहना था कि जहां संवैधानिक दायित्व शून्य हो जाता है वहां कोई भी कानून मददगार नहीं हो सकता। भारत की आंतरिक सुरक्षा को प्रभावी रूप से बहाल करने की जिम्मेदारी अब संसद के कंधों पर है। सुप्रीम कोर्ट ने अपना काम पूरा कर दिया है।

[ लेखक सामरिक मामलों के विशेषज्ञ एवं सोसायटी फॉर पॉलिसी स्टडीज के निदेशक हैं ]