[ हृदयनारायण दीक्षित ]: हम भारत के लोग’ भारतीय राष्ट्र राज्य की मूल इकाई हैं। संविधान की उद्देशिका ‘हम भारत के लोग’ से ही प्रारंभ होती है। इसके अनुसार भारत के लोगों ने ही अपना संविधान गढ़ा है। संविधान निर्माताओं ने प्रत्येक नागरिक को समान मौलिक अधिकार दिए हैं। मूल अधिकार न्यायालय द्वारा प्रवर्तनीय हैं। राष्ट्र राज्य को भी अनेक कर्तव्य सौंपे गए हैं। वे संविधान के भाग-चार में राज्य के नीति निदेशक तत्वों में वर्णित हैं। ये न्यायालय द्वारा प्रवर्तनीय नहीं हैं। इनमें व्यापक राष्ट्रीय आकांक्षा को ही सूचीबद्ध किया गया है।

समान नागरिक संहिता’ लागू करने के लिए प्रयास नहीं हुए

ग्रेनविल ऑस्टिन ने ठीक लिखा है कि ‘राज्य की सकारात्मक बाध्यताओं की रचना करके संविधान सभा ने भारत की भावी सरकारों को उत्तरदायित्व सौंपे हैं।’ कुछ निदेशक तत्वों पर सकारात्मक काम हुआ है, लेकिन राष्ट्रीय एकता के लिए अपरिहार्य ‘एक समान नागरिक संहिता’ (अनुच्छेद 44) के प्रवर्तन में कोई प्रगति नहीं हुई है। सर्वोच्च न्यायपीठ ने तीखी टिप्पणी की है कि ‘समान नागरिक संहिता लागू करने के लिए अब तक कोई प्रयास नहीं हुआ है।’ न्यायालय ने इसके पहले 2003, 1995 और 1985 में भी संहिता पर जोर दिया था।

संविधान और विधि के प्रति निष्ठा

संविधान और विधि के प्रति निष्ठा प्रत्येक नागरिक का कर्तव्य है। समान नागरिक संहिता संविधान का भाग है। संविधान का आदर्श भी है। बावजूद इसके सांप्रदायिक कारण से इसका प्रवर्तन राष्ट्र की मुख्य चुनौती है। सर्वोच्च न्यायालय ने चौथी बार ध्यानाकर्षण किया है। उसने गोवा की प्रशंसा की है। गोवा में पंथिक विश्वास के परे समान नागरिक संहिता है। बेशक निदेशक तत्वों के प्रवर्तन में न्यायालय की अधिकारिता नहीं है, लेकिन जीवन स्तर उन्नत करने संबंधी निदेशक तत्व (अनुच्छेद 47) पर अच्छा काम हुआ है।

एक राष्ट्र, एक विधि और एक समान नागरिक संहिता

मोदी सरकार ने इस मोर्चे पर आशातीत प्रगति की है। कुटीर उद्योगों के निदेशक तत्व (अनुच्छेद 43) पर बड़ा काम हुआ है। ग्राम पंचायतें भी इसी सूची (अनुच्छेद 40) में हैं। इसे लेकर तमाम अधिनियम बने हैं। संविधान में संशोधन भी हुआ है। गरीबों में भूमि वितरण (अनुच्छेद 39ख) पर भी बात आगे बढ़ी है। अन्य निदेशक तत्वों पर भी प्रगति हुई है, लेकिन ‘समान नागरिक संहिता’ दूर की कौड़ी है। मूलभूत प्रश्न है कि आखिरकार एक राष्ट्र, एक विधि और एक समान नागरिक संहिता का स्वाभाविक सिद्धांत लागू क्यों नहीं हो सकता?

समान नागरिक संहिता राष्ट्रीय एकता का मूलाधार

समान नागरिक संहिता राष्ट्रीय एकता का मूलाधार है। संविधान निर्माता इस तथ्य से परिचित थे। संविधान सभा में इस पर जोरदार बहस हुई थी। संप्रदाय विशेष के सदस्य संहिता को अपने निजी मजहबी कानूनों में हस्तक्षेप मानते थे। वैसे संहिता का प्रवर्तन कोई हस्तक्षेप नहीं था। कानून निजी नहीं होते। दुनिया के सारे कानून राज और समाज की संवैधानिक संस्थाओं से जन्म लेते हैं और उन्हीं पर लागू होते हैं, लेकिन सभा के कुछ सदस्य राष्ट्रीय विधि के निर्माण में निजी कानूनों को ऊपर बता रहे थे।

अंग्रेजों ने पूरे देश में एक ही आपराधिक कानून लागू किया

एक सदस्य मोहम्मद इस्माइल ने कहा, ‘यह उचित नहीं कि लोगों को उनके निजी कानून छोड़ने के लिए मजबूर किया जाए।’ महबूब अली ने कहा कि ‘साढ़े तेरह सौ साल से मुसलमान इसी कानून पर चलते रहे हैं। हम अन्य प्रणाली मानने से इन्कार कर देंगे।’ बी पोकर ने कहा कि ‘अंग्रेजों ने निजी कानूनों को मानने की अनुमति दी थी।’ इस बात को काटते हुए अल्लादि स्वामी अय्यर ने कहा ‘अंग्रेजों ने पूरे देश में एक ही आपराधिक कानून लागू किया। क्या उसे लेकर मुसलमानों ने अंग्रेजों के खिलाफ विद्रोह किया?’

हम वास्तव में एक राष्ट्र हैं

पंथिक विश्वास नितांत निजी आस्था है, लेकिन संविधान सभा में पंथिक विश्वास को निजी कानून की शक्ल में पेश किया गया। कहा गया कि ‘समान नागरिक संहिता अल्पसंख्यकों के विरुद्ध अन्याय है। केएम मुंशी ने कहा कि किसी भी उन्नत देश में अल्पसंख्यक समुदाय के निजी कानून को अटल नहीं माना गया कि व्यवहार संहिता बनाने का निषेध हो।’ उन्होंने तुर्की और मिस्न के उदाहरण दिए कि ‘इन देशों में अल्पसंख्यकों को ऐसे अधिकार नहीं मिले। हमारी महत्वपूर्ण समस्या राष्ट्रीय एकता है। हम वास्तव में एक राष्ट्र हैं। मुस्लिम मित्र समझ लें कि जितना जल्दी हम अलगाववादी भावना को भूलते हैं, उतना ही देश के लिए अच्छा होगा।’

मुसलमानों का निजी कानून सारे भारत में अटल था

डॉ. आंबेडकर ने कहा, ‘मैं इस कथन को चुनौती देता हूं कि मुसलमानों का निजी कानून, सारे भारत में अटल तथा एकविधि था। 1935 तक पश्चिमोत्तर सीमा प्रांत में शरीयत कानून लागू नहीं था। उत्तराधिकार तथा अन्य विषयों में वर्हां ंहदू कानून मान्य थे। उसके अलावा 1937 तक संयुक्त प्रांत, मध्य प्रांत और बंबई जैसे अन्य प्रांतों में उत्तराधिकार के विषय में काफी हद तक मुसलमानों पर हिंदू कानून लागू था। मैं असंख्य उदाहरण दे सकता हूं। इस देश में लगभग एक ही व्यवहार संहिता है, एकविधि है। इस अनुच्छेद को विधान का भाग बनाने की इच्छा सुधार की है। यह पूछने का समय बीत चुका है कि क्या हम ऐसा कर सकते है?’ इसके बाद मतदान हुआ। संहिता का प्रस्ताव जीत गया। संहिता संविधान का हिस्सा बनी।

समूचा भारत समान नागरिक संहिता के पक्ष में है

समूचा भारत समान नागरिक संहिता के पक्ष में है। आंबेडकर के अलावा डॉ. राममनोहर लोहिया भी इसके समर्थक थे। पर्सनल लॉ की बातें कालवाह्य हो रही हैं। समान नागरिक संहिता का विरोध करने के लिए ही 1972 में मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड बनाया गया था। बोर्ड राष्ट्र सर्वोपरिता में विश्वास नहीं करता। वह विधि सर्वोच्चता का सिद्धांत भी नहीं मानता। इसका विश्वास ‘पर्सनल लॉ’ में है, लेकिन बढ़ते राष्ट्रवाद के कारण इसका प्रभाव नगण्य हो चुका है। कुछेक दल वोट लोभ में संहिता के विरोधी हैं। वे चर्चित शाहबानो मामले में अदालती फैसले के खिलाफ थे। तब उस फैसले को निष्प्रभावी बनाने वाला कानून बना। ऐसे दल राष्ट्रीय महत्वाकांक्षा की तुलना में थोक वोट बैंक को ज्यादा तरजीह देते हैं। वे एक देश में दो तरह के कानूनों के पक्षधर हैं।

भारत बदल रहा है। तीन तलाक पर कानून बन गया

भारत बदल रहा है। तीन तलाक पर कानून बन गया है। अनुच्छेद 370 का अलगाववादी प्रेत अब अतीत बन चुका है। राष्ट्र सर्वोपरि अस्मिता है। संविधान भारत का राजधर्म है और भारतीय संस्कृति भारत का राष्ट्रधर्म। प्रत्येक भारतवासी संविधान और विधि के प्रति निष्ठावान हैं। अपने विश्वास और उपासना में रमते हुए संविधान का पालन साझा जिम्मेदारी है। एक देश में एक ही विषय पर दो कानूनी विकल्पों का कोई औचित्य नहीं। आखिरकार एकताबद्ध राष्ट्र में ‘निजी कानून’ का मतलब क्या है। संप्रति नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में देश में आशा और उमंग का माहौल है। राष्ट्रवादी संगठन पहले से ही भारत में ऐसी संहिता के पक्षधर हैं। सर्वोच्च न्यायालय के ध्यानाकर्षण से संहिता पर फिर से विमर्श का अवसर आया है। दलतंत्र राष्ट्रीय अभिलाषा पर ध्यान दें। निजी कानून के आग्रही मित्र देश और काल का आह्वान सुनें। संविधान निर्माताओं की इच्छा का सम्मान करें।

( लेखक उत्तर प्रदेश विधानसभा के अध्यक्ष हैं )