[ हृदयनारायण दीक्षित ]: नाम ज्ञान का आधार है। ऋग्वेद के ज्ञान सूक्त में कहा गया है, ‘पदार्थ का नाम रखकर पहचानना ज्ञान का प्रारंभ है। इनका वास्तविक ज्ञान अंदर गुहा में छिपा रहता है।’ सारे नाम शब्द हैं। शब्द के गर्भ में अर्थ होता है। शब्द और अर्थ दीर्घकाल में बोध की संपदा बनते हैं। शेक्सपियर की इस बात में कोई दम नहीं कि नाम में क्या धरा है? रूप, नाम, शब्द, अर्थ और अभिप्राय के अलावा ज्ञान हस्तांतरण का अन्य उपकरण नहीं है। उत्तर प्रदेश का प्रयाग अंतरराष्ट्रीय नाम है। यहां का कुंभ दुनिया का सबसे बड़ा समागम है। लगभग 60 देशों के जिज्ञासु यहां आते रहे हैं।

प्रयाग का नामकरण सहस्त्रों वर्ष प्राचीन है। यह नाम हड़बड़ी में नहीं रखा गया था। दुनिया की श्रेष्ठ और प्राचीनतम भाषा संस्कृत में ‘प्र’ उपसर्ग श्रेष्ठता बोधक है। ‘याग’ शब्द की निष्पत्ति ‘यज्’ धातु से हुई है। याग का सामान्य अर्थ यज्ञ तप है। प्रयाग तप ज्ञान और साधना की प्राचीन भूमि है। ब्रह्म पुराण के अनुसार इस भूक्षेत्र में सतत यज्ञ होते रहे इसलिए इसे प्रयाग कहते हैं। प्रयाग का अर्थ, भाव सुस्पष्ट है। यह भारतीय संस्कृति, आस्था, आस्तिकता और याग-योग की आग्नेय भूमि है। उत्तर प्रदेश की योगी सरकार ने इलाहाबाद सहित पूरे क्षेत्र को ‘प्रयागराज’ नाम दिया है। वस्तुत: यह नाम परिवर्तन का मसला नहीं है। प्रयाग पहले से है। सरकार ने इसका वास्तविक भूसांस्कृतिक क्षेत्र बढ़ाया है। प्रयाग प्राचीन साहित्य और परंपरा में तीर्थराज हैं। प्रयागराज नाम में सांस्कृतिक परंपरा की अनुभूति होती है।

ऐसे तमाम तथ्यों के बावजूद कुछ मुट्ठी भर लोग इस निर्णय की आलोचना कर रहे हैं। रामायण और महाभारत दुनिया के सुप्रतिष्ठित महाकाव्य हैं। वे आख्यान हैं, इतिहास भी हैं। वाल्मीकि ने भरद्वाज के विश्वविद्यालय गुरुकुल, अक्षयवट आदि का सुंदर वर्णन किया है। इसी परिसर में भरत की चित्रकूट यात्रा का सत्कार हुआ था। महाभारत में प्रयाग को सोम, वरुण और प्रजापति का केंद्र कहा गया है। कूर्म पुराण ने भी इसे प्रजापति क्षेत्र बताया है। मत्स्य पुराण, वामन पुराण और अग्नि पुराण आदि में इसे यज्ञ क्षेत्र कहा गया है।

मत्स्य पुराण के अनुसार इसका विस्तार 20 कोस और वराह पुराण के अनुसार पांच योजन था। अकबर के समकालीन तुलसीदास ने भी रामचरितमानस में प्रयाग की महिमा ‘छेत्रु अगम गढ़ गाढ़ सुहावा/सपनेहु नहि प्रतिपक्षिन भावा। को कहि सकइ प्रयोग प्रभाऊ।’ के रूप में लिखी। प्रयाग यज्ञ तप की शाश्वत ऊर्जा से आवेशित क्षेत्र है। आस्था का निर्माण अंधविश्वास से नहीं प्रत्यक्ष कर्म, तप, अनुभूति, योग, यज्ञ से हुआ है।

सारी दुनिया में नाम परिवर्तन हुए हैं। बहुधा इनके कारण सांस्कृतिक रहे हैं। उपनिवेशवादी सत्ता की दुखद स्मृतियों को हटाने के लिए भी नाम परिवर्तन होते रहे हैं। ईरान का नाम पहले पर्शिया था। 1935 में यहां पर्शियन साम्राज्य की स्थापना हुई थी। बाद में ईरानियों ने देश का नाम ईरान कर लिया। आज का म्यांमार पहले बर्मा था। आज का जार्डन पहले टांसजार्डन था जो 1946 में स्वतंत्र हुआ। 1949 में टांसजार्डन की जगह जार्डन शब्द आया। यह नाम जार्डन नदी से संबंधित है। कंबोडिया का नाम पहले कमप्यूचिया था।

ब्रिटिश राज में श्रीलंका सीलोन था। 1972 में ‘रिपब्लिक ऑफ श्रीलंका’ हुआ। 1978 में इसका नाम डेमोक्रेटिक रिपलब्लिक ऑफ श्रीलंका हुआ। कई देशों ने भिन्न-भिन्न कारणों से अपने नाम संशोधित किए। ‘प्रयागराज’ नामकरण नया नहीं है। इलाहाबाद पुराने प्रयागक्षेत्र का ही भाग है। सरकारें नया शहर बना सकती हैं। उत्तर प्रदेश का आधुनिक शहर नोएडा सरकार ने ही बनाया था, लेकिन दुनिया की कोई भी सरकार ‘प्रयाग’ नहीं बना सकती। प्रयाग जैसा निर्माण प्रकृति ही रचती है। हजारों वर्ष के तप, योग और याग साधना मिलकर ही प्रयाग रचते हैं।

प्रयाग में तीन नदियों का समागम है जो दुनिया में अन्यत्र नहीं मिलता। नील नदी की दो धाराएं हैं। एक श्वेत और दूसरी नील, लेकिन दोनों का मिलन आनंद मिस्न या सूडान के सांस्कृतिक इतिहास में नहीं है। ऋग्वेद में गंगा, यमुना, सरस्वती का आनंदवर्धक स्तवन है। गंगा का प्रवाह भारत के मन को आह्लादित करता है। सो पूर्वजों ने आकाश के दूधिया नक्षत्र समूह को आकाशगंगा कहा। यमुना श्रीकृष्ण की प्रीति और गीता दर्शन की साक्षी हैं। सरस्वती वैदिक पूर्वजों की ‘नदीतमा’ है। तीनों मिलती हैं तब बनता है तीर्थराज।

वैदिक साहित्य में नदी पार करने वाले क्षेत्र को तीर्थ कहा गया है। अध्यात्म में संसार सागर को पार कराने वाले ज्ञान, कर्म, पुण्य को तीर्थ बताया गया है। प्रयाग का संगम अनूठा है। तीन पुण्य सलिला नदियों का समुल्लासी नाद, यज्ञ, योग, तप की ऊर्जा और मंत्र पुरश्चरण का प्रभाव। प्रयागराज को विधाता ने स्वयं गढ़ा है। मुख्यमंत्री योगी के इस निर्णय को वोट राजनीति के चश्मे से देखने वाले मित्र सांस्कृतिक अनुभूति के रस, आनंद और राष्ट्रभाव से परिचित नहीं हैं। देर सवेर उन्हें पश्चाताप ही होगा। सतत प्रवाहमान संस्कृति के कारण ही हम भारत के लोग एक राष्ट्र हैं।

भारत में नाम परिवर्तन का यह पहला अवसर नहीं है। बंगलौर का नाम 2006 में ही बंगलुरु हुआ है। पुर्तगाली प्रभाव में आज का मुंबई बाम्बेम था। अंग्र्रेजों ने इसका नाम बॉम्बे रखा। 1996 में मुंबा देवी से जोड़कर इस शहर का नाम मुंबई हुआ। केरल के त्रिवेंद्रम का नाम 1991 में तिरुवनंतपुरम हुआ है। इस नाम का अर्थ भगवान अनंत का नगर बताया जाता है। कलकत्ता को कोलकाता नाम पाए बहुत समय नहीं बीता है। मद्रास का नाम चेन्नई हो जाना सबको याद है। महानगर वाराणसी पहले बनारस था। नदी वरुणा और अस्सी से जुड़ा यह नाम भारत की सांस्कृतिक राजधानी का है। नगरों महानगरों के नाम परिवर्तन के उदाहरण ढेर सारे हैं। यहां राज्यों के भी नाम बदले गए हैं। पंजाब का नाम 1950 के पहले पूर्वी पंजाब था। उत्तर प्रदेश का नाम 1950 के पहले संयुक्त प्रांत था। पांडुचेरी का नाम 2006 तक पांडिचेरी था और अब पुडुचेरी तो फिर प्रयागराज का विरोध क्यों? क्या इसलिए कि इस नाम का संबंध प्राचीन भारतीय परंपरा व आस्तिकता से है? निर्णय के विरोध में तथ्यों का कोई आधार ही नहीं है। आखिरकार इस निर्णय के विरोध के मूल कारण क्या हैं?

प्रगतिशील समाज जड़ नहीं होते। वे राष्ट्रजीवन को गतिशील बनाने में संलग्न रहते हैं। नामकरण में संस्कृति, सभ्यता व इतिहास के तत्व होते हैं। एक अध्ययन में भारत के 80-85 प्रतिशत नाम श्रीराम, श्रीकृष्ण आदि प्राचीन प्रतीकों से जुड़े पाए गए थे। यह हमारा भारत बोध है। दिल्ली की एक सड़क का नाम औरंगजेब रोड से बदलकर डॉ. एपीजे अब्दुल कलाम रोड रखा गया था। इसमें गलती क्या थी? एक सड़क का नाम औरंगजेब के भाई दाराशिकोह को समर्पित था। औरंगजेब के कृत्य भारतीय जनमानस को आहत करने वाले हैं। दाराशिकोह के कृत्य स्मरणीय हैं। उनकी रुचि उपनिषद दर्शन में थी और औरंगजेब की उत्पीड़न में। दोनों मुस्लिम हैं। इतिहास बोध पर लीपापोती उचित नहीं होती। प्रेरक स्मृति शुभ होती है। अमेरिका की संघीय राजधानी का वाशिंगटन नाम प्रथम राष्ट्रपति वाशिंगटन की स्मृति में रखा गया था। राष्ट्रजीवन में उल्लास भरने वाले नामकरण निश्चित ही स्वागतयोग्य हैं। प्रयागराज भारतीय श्रुति, स्मृति और इतिहास के स्वर्णकोष का ऐसा ही स्वागतयोग्य नामकरण है।

[ लेखक उत्तर प्रदेश विधानसभा के अध्यक्ष हैं ]