हर आदमी सुख चाहता है, दुख कोई नहीं चाहता, लेकिन क्या कारण है कि आदमी की चाहत कभी पूरी नहीं होती। आदमी दुख भोगना नहीं चाहता, किंतु काम ऐसे करता है, जिससे दुख पैदा हो जाता है। यह आश्चर्य की बात है कि आदमी की तमाम कोशिशें हैं सुख की, लेकिन उसे प्राप्त होता है दुख। यह बहुत विरोधाभासी बात है, लेकिन यह समझ की भी भूल है, आदमी का अज्ञान है। उसके पुरुषार्थ में कहीं कोई कमी है, नियत में खोट है। जीने का तरीका गलत है। सही विधि उसे मालूम नहीं है, तभी उसके कार्य का उचित परिणाम नहीं मिल पाता। सुख खोजने वालों को दुख मिलता है। इसका कारण है हर व्यक्ति अपनी कहना चाहता है, पर दूसरों को सुनना नहीं चाहता। आप जितना अपना पक्ष रखने की कोशिश करते हैं, बात उतनी बिगड़ती जाती है।

आप जितना अपने पक्ष पर जोर देते हैं, उतना ही विरोध बढ़ता चला जाता है। ऐसे में गुस्सा करने या बहस करने से संबंध बिगड़ जाते हैं और काम भी रुक जाते हैं। वास्तविकता यह है कि सुख प्राप्ति के लिए आदमी दुख के उत्पादन का कारखाना चला रहा है। अपने मिथ्या दृष्टिकोण के कारण वह दुख को उत्पन्न कर रहा है। सुख को पाने की चाह है तो दृष्टिकोण को सम्यक बनाकर सुख प्राप्ति के अनुरूप कार्य करने होंगे। कथनी और करनी में समानता लानी होगी। मन में कौन क्या कर रहा है, क्या सोच रहा है, किसी को पता नहीं। लोग दिखाने के लिए कुछ कहते हैं और करते कुछ और हैं। कोई दिखावे के नाम पर प्रेम जता रहा है तो वहीं वह मन में ईष्र्या का भाव रखे है।

यह बड़ी विचित्र बात है कि सद्गुण आदमी प्रयास करने पर भी जल्दी नहीं सीख पाता और दुर्गुण बिना किसी प्रयास के ही सीख लेता है, वैसे ही अच्छे बोल और मृदुभाषिता आदमी प्रयास करने पर भी जल्दी से नहीं सीख पता और गाली तथा अपशब्द बिना प्रयास के ही सीख लेता है। इस प्रवृत्ति से सहज ही छुटकारा नहीं मिलता। इसके लिए जरूरी है कि हम अपनी संगत बदले। जिनके साथ रहने से मन और भावों पर विपरीत प्रभाव पड़ रहा हो, वृत्तियां कलुषित और उच्छृंखल हो रही हों, सोच-विचार में विकृति आ रही हो, उनका साथ छोड़ देना ही हितकर है। इसी तरह ही व्यक्तित्व को बेहतर बनाया जा सकता है।

[ ललित गर्ग ]