[ डॉ. श्रुति मिश्रा ]: बीते दिनों निर्भया के दोषियों के लिए अदालत ने चौथी बार डेथ वॉरंट जारी किया। उम्मीद है कि अब चारों दोषियों को 20 मार्च को फांसी दे दी जाएगी। हमारा संविधान एक अपराधी को भी अपने को निर्दोष साबित करने के लिए हर संभव मौके और साधन उपलब्ध कराता है। न्याय की यह परंपरा और पद्धति ही उसके प्रति जनसामान्य के विश्वास को पुख्ता करने का कार्य करती है। पीड़ित हों या दोषी, वे न्याय की आस में निचली अदालतों से लेकर सर्वोच्च अदालत तक वर्षों वर्ष संघर्ष करते हैं, लेकिन जब वे वैसा कुछ होते हुए देखते हैं जैसा निर्भया के मामले में देखने को मिला तो उनमें हताशा-निराशा घर करती है। इसे कई बार निर्भया के माता-पिता ने व्यक्त भी किया। इसका संज्ञान लिया जाना चाहिए था।

निर्भया के माता-पिता को न्याय के लिए दर-दर क्यों भटकना पड़ रहा है?

इसी के साथ इस पर भी ध्यान दिया जाना चाहिए था कि आखिर उन्हें न्याय के लिए दर-दर क्यों भटकना पड़ रहा है? यह तो शासन-प्रशासन और न्यायपालिका को सुनिश्चित करना चाहिए था कि इस जघन्य मामले के दोषियों की सजा पर जल्द से जल्द अमल हो। दुष्कर्म और हत्या जैसे बर्बर अपराध की दंश झेलने वाली एक पीड़िता के परिवार की मनोदशा का अंदाजा सहज ही लगाया जा सकता है। जो स्थिति बनी वह सोचने को मजबूर करती है कि क्या त्वरित न्याय का अभाव न्याय के अर्थ को खत्म कर रहा है?

नाबालिग से लगने वाले अपराधियों ने निर्भया के साथ बर्बरता करने में कोई कोताही नहीं की थी

याद करें तो नाबालिग से लगने वाले अपराधियों ने निर्भया के साथ बर्बरता करने में कोई कोताही नहीं की थी। उस मंजर को याद करने पर रूह कांप जाती है। बेशक एक अपराधी के मानवाधिकार हो सकते हैं, लेकिन यह सुनिश्चित होना चाहिए कि इससे पीड़िता के मानवाधिकार बाधित न हों। इस मामले में अपराधियों द्वारा कानून के वैधानिक पक्ष की कमियों का भरपूर फायदा उठाया गया। वे बार-बार याचिका दाखिल कर फांसी टालने की कोशिश करते रहे और उसमें सफल भी होते रहे।

भय की समाप्ति ही अपराध का कारण बनता

जब अपराधियों में दंड का भय नहीं होता और उनमें इंसानियत का अभाव होता है तो दोनों कारक मिलकर उन्हें इंसान की श्रेणी से निकाल कर हैवान बना देते हैं। कहते हैं कि भय की समाप्ति ही अपराध का कारण बनता है। ऐसे में आवश्यक है कि समाज के असामाजिक और अपराधी तत्वों में कानून का भय बना रहे। यदि कानूनी दांवपेच का इस्तेमाल कर दोषी इसी तरह सजा के अमल से बचते रहेंगे और विधि के शासन का मजाक बनाते रहेंगे तो पीड़ित स्वयं को कानून व्यवस्था के आगे लाचार ही महसूस करेंगे। किंतु

ठोस कारणों के आधार पर ही फांसी की सजा टाली जा सकती है- सुप्रीम कोर्ट

1998 में त्रिवेणीबेन बनाम गुजरात राज्य के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने आदेश दिया था कि ठोस कारणों के आधार पर ही फांसी की सजा टाली जा सकती है, किंतु पिछले करीब दो महीने से हम निरंतर देख रहे हैं कि कानूनी प्रावधानों का फायदा उठाकर निर्भया के गुनहगार सजा से आंख मिचौली करते रहे। नि:संदेह दोषियों-आरोपितों को अपील का अधिकार है, किंतु एक निश्चित समय तक ही।

एक अपराधी ने की मानसिक स्वास्थ्य के आधार पर फांसी की सजा से मुक्त करने की अपील

निर्भया मामले के एक अपराधी विनय शर्मा ने मानसिक स्वास्थ्य का हवाला देते हुए खुद को फांसी की सजा से मुक्त करने की अपील की, क्योंकि संविधान सिजोफ्रेनिया और मानसिक रोग से पीड़ितों के लिए सजा में रियायत का प्रावधान करता है। शायद उसे या उसके वकील को यह ज्ञात था कि आतंकी देवेंद्र् सिंंह भुल्लर के मानसिक रूप से अस्वस्थ हो जाने के कारण सुप्रीम कोर्ट ने उसकी फांसी की सजा को उम्र कैद में बदल दिया था। निर्भया के दोषी शारीरिक-मानसिक रूप से पूरी तरह स्वस्थ होने के बावजूद स्वयं को जानबूझकर चोट पहुंचाने और खुद की अस्वस्थता के आधार पर फांसी की सजा से बचने की पुरजोर तिकड़म भिड़ाते रहे।

त्वरित न्याय समय की मांग है

कुल मिलाकर अभिप्राय यह है कि वर्तमान समय में त्वरित न्याय और तय समय सीमा में न्याय की आवश्यकता समाज को सबसे ज्यादा है। इस आवश्यकता की पूर्ति के लिए हरसंभव कोशिश की जानी चाहिए, भले ही संविधान में संशोधन ही क्यों न करना पड़े, ताकि जल्द न्याय हो सके और साथ ही न्याय प्रक्रिया के प्रति भरोसा भी बढ़ सके।

( लेखिका काशी हिंदू विश्वविद्यालय में प्रोफेसर हैं )