[ प्रदीप सिंह ]: लोकसभा चुनाव के नतीजों के बाद राजनीतिक और बौद्धिक समाज के एक छोटे से तबके ने तो यह अहसास कर लिया कि वह अपनी ही बनाई दुनिया में रह रहा था और इस कारण जमीनी हकीकत से कट गया था, लेकिन इसी तबके का एक हिस्सा अभी भी प्रचंड जनादेश को स्वीकार करने की बजाय उसके अस्वीकार के तर्क खोज रहा है। उसकी ओर से तरह-तरह के तर्क दिए जा रहे हैं। सबका सार यह है कि मोदी भले ही फिर से प्रधानमंत्री बन गए हों, लेकिन यह उनकी जीत नहीं है।

मोदी झूठ और नफरत से जीते

कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी के मुताबिक मोदी झूठ और नफरत से जीते हैं। मशहूर अर्थशास्त्री अमर्त्य सेन से लेकर शरद पवार तक इस जीत को कमतर बताने की होड़ में शामिल हैं। वास्तव में जो आईना उन्हें सच्चाई दिखा रहा है वे उस आईने को ही तोड़ना चाहते हैं। पिछले कुछ सालों में भारत में अमर्त्य सेन की पहचान नोबेल पुरस्कार विजेता अर्थशास्त्री से ज्यादा एक राजनीतिक कमेंटेटर की बनी है। वे ऐसे राजनीतिक पंडितों के अगुआ बन गए हैं जिनकी यह दृढ़ मान्यता है कि भाजपा और मोदी कुछ अच्छा कर ही नहीं सकते। यदि मोदी कुछ ऐसा करते हैं जिसकी तारीफ हो रही हो तो उसमें मीनमेख निकालने की कोशिश करो। उस पर अविश्वास जताओ। मोदी की प्रशंसा में एक भी शब्द बोलना ऐसे लोगों के लिए कुफ्र है।

हिंदू राष्ट्रवाद की जीत

अर्थशास्त्र के लिए नोबेल पुरस्कार पाने वाले रिचर्ड थेलर कहते हैं कि लोगों की यह स्वाभाविक प्रवृत्ति होती है कि वे अपनी बात को प्रमाणित करने वाले ही साक्ष्य खोजते हैं। इसके विपरीत मिलने वाले तथ्यों पर वे ध्यान नहीं देते। उन्होंने इस प्रवृत्ति को संपुष्टि पूर्वाग्रह (कन्फर्मेशन बायस) कहा है। अमर्त्य सेन के मुताबिक मोदी की जीत हिंदू राष्ट्रवाद की जीत है, पर हिंदू राष्ट्रवाद ने सिर्फ सत्ता हासिल की है। यह उसकी वैचारिक जीत नहीं है।

ईवीएम पर शोध

सेन जैसे लोगों का मानना है कि उनका आइडिया ऑफ इंडिया अक्षुण्ण है। ऐसे लोगों की यह भी धारणा है कि भाजपा ने पैसे, मीडिया और तकनीक की ताकत से लोगों को भ्रमित कर दिया। शरद पवार जैसे कारोबारी नेता भी हैं जो मतदाता की आवाज सुनने-समझने के बजाय ईवीएम पर शोध कराने जा रहे हैं। यह बात और है कि उनके भतीजे यह कह रहे हैं कि ये सब बेकार की बात है।

हिंदू मस्तिष्क में सेंध

असदुद्दीन ओवैसी इस नतीजे पर पहुंचे हैैं कि भाजपा ने ईवीएम नहीं, हिंदू मस्तिष्क में सेंध लगाकर चुनाव जीता। लेफ्ट लिबरल बुद्धिजीवी यह मानकर चलते आए हैैं कि इंडिया का आइडिया एक ही हो सकता है। वे भारत की सबसे बड़ी ताकत विविधता को भी नकारते हैैं। उन्हें समझ में ही नहीं आ रहा कि इस विचार का राजनीतिक लाभ मिलना खत्म हो चुका है। विचारों में समय और देश काल की परिस्थिति के अनुसार बदलाव न आए तो वे ठहरे हुए पानी की ही तरह सड़ जाते हैं।

अल्पसंख्यकों के साथ छल

सवाल है कि यह बदलाव आया कैसे? दरअसल यह बदलाव छल में छेद करने से आया। प्रधानमंत्री मोदी ने संसद के सेंट्रल हॉल में अपने भाषण में कहा कि लंबे समय से गरीबों से छल हो रहा था। उसमें हमने छेद कर दिया। वह यहीं नहीं रुके। उन्होंने आगे कहा कि अल्पसंख्यकों के साथ भी छल हो रहा है। इसमें भी छेद करने की जरूरत है। उनकी इन दोनों बातों से जाहिर है कि उन्हें पता है कि समस्या क्या है और उसका समाधान क्या है। उन्होंने गरीबों के साथ हो रहे छल में छेद करके जाति की राजनीति पर सत्ता भोगने वालों के लिए स्थाई वनवास का इंतजाम कर दिया है। मुसलमानों के साथ हो रहे छल में छेद से धर्मनिरपेक्षता की आड़ में चल रही मुस्लिम तुष्टीकरण की सांप्रदायिक राजनीति में छेद करना उनका अगला लक्ष्य है।

मुस्लिम तुष्टीकरण की राजनीति

पिछले सत्तर सालों से देश में एक अजीब तरह का विमर्श चल रहा था। मुस्लिम तुष्टीकरण की राजनीति धर्मनिरपेक्षता का पर्यायवाची बन गई थी। जाति की राजनीति को सामाजिक न्याय की राजनीति का नाम दिया गया, पर हिंदू की बात करना सांप्रदायिकता की राजनीति माना गया। प्रधानमंत्री ने दो तरह के छल का तो उल्लेख किया, लेकिन उन्होंने शायद जानबूझकर तीसरे छल की बात नहीं कही। यह वह छल है जो इस देश के हिंदुओं के साथ हो रहा था। हो सकता है कि उन्होंने इस छल का जिक्र इसलिए भी न किया हो कि इस छल में छेद करने का आधार लेफ्ट लिबरल तबके ने अपनी दोगली नीति से तैयार किया है। हिंदुओं को यह छल समझ में तो आ रहा था, पर ऐसा कोई नेता नहीं मिल रहा था जिस पर वे भरोसा कर सकें।

अखलाक की हत्या

इस बात को अखलाक की हत्या के मामले पर उठे तूफान से समझा जा सकता है। अखलाक की हत्या के बाद देश में अवार्ड वापसी का जो दौर शुरू हुआ उसने ऐसा माहौल बनाया, मानो मोदी और भाजपा से ज्यादा असहिष्णु दुनिया में कोई नहीं है। हिंदुओं पर इस घटना का असर मुसलमानों से ज्यादा हुआ। अखलाक एक व्यक्ति था, लेकिन उसकी हत्या को देश के पूरे मुस्लिम समुदाय पर आक्रमण के रूप में पेश किया गया। उसकी मौत से ज्यादा उसका धर्म महत्वपूर्ण हो गया। हिंदुओं की समझ में नहीं आया कि यह हो क्या रहा है?

कश्मीर में हिंदुओं पर हमला

कश्मीर में सैकड़ों हिंदू मारे गए, लाखों निकाले गए, उनके घर जला दिए गए और उनकी महिलाओं के साथ दुष्कर्म हुआ, लेकिन किसी ने नहीं कहा कि यह हिंदुओं पर हमला है। सच तो यह है कि उन्हें हिंदू भी नहीं कहा गया। कहा यह गया कि वे कश्मीरी पंडित हैैं। जैसे कश्मीरी पंडित किसी और धर्म के मानने वाले हों। लाखों हिंदुओं के साथ इतना सब हो तो वह ‘हुआ तो हुआ।’ हजारों सिखों के साथ हो तो ‘हुआ तो हुआ।’ यह कौन सा प्राकृतिक न्याय है? कौन सी संवैधानिक मान्यता है? पर संपुष्टि पूर्वाग्रह की प्रवृत्ति वाले इसे कैसे और क्यों समझेंगे? आखिर यह एक तथ्य है कि रह-रहकर यह साबित करने की भी कोशिश हुई कि कश्मीरी पंडित अपने पलायन के लिए खुद ही दोषी हैैं।

राजनीति का तिरस्कार

2019 का जनादेश लेफ्ट लिबरल समूह और उनके सहारे और समर्थन से की जाने वाली राजनीति का तिरस्कार है। पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी को इस तिरस्कार की पहली किस्त मिली है। दूसरी साल 2021 में मिल सकती है। अब एक नया शिगूफा चला है कि विपक्ष बहुत कमजोर हो गया है और यह स्थिति जनतंत्र के लिए बहुत बड़ा खतरा है। ये तर्कवीर तब कहां थे जब आजादी के तीस साल तक लोकसभा में प्रतिपक्ष का कोई नेता ही नहीं था। इन लोगों ने विपक्ष और जनतंत्र के कमजोर होने का मुद्दा 1984 में क्यों नहीं उठाया?

विपक्ष प्रभावी दखल से ताकतवर बनता है

संसद में विपक्ष संख्या बल से नहीं, अपने प्रभावी दखल और सड़क पर संघर्ष की क्षमता से ताकतवर बनता है। पश्चिम बंगाल विधानसभा में भाजपा के केवल छह सदस्य हैं, लेकिन वे संसद से सड़क तक सबसे ताकतवर विपक्षी हैैं। राहुल गांधी, अखिलेश, तेजस्वी, मायावती, शरद पवार, कुमारस्वामी एवं चंद्रबाबू नायडू जैसे नेताओं को जितना जल्दी समझ में आ जाए तो बेहतर कि यह जनादेश मोदी की राजनीति में विश्वास और उनकी राजनीति में अविश्वास का है।

( लेखक राजनीतिक विश्लेषक एवं वरिष्ठ स्तंभकार हैैं )

लोकसभा चुनाव और क्रिकेट से संबंधित अपडेट पाने के लिए डाउनलोड करें जागरण एप