[ डॉ. भरत झुनझुनवाला ]: हाल के दौर में देश की आर्थिक विकास दर विश्व के प्रमुख देशों में उच्चतम रही है, फिर भी यह सात प्रतिशत पर आकर ठहरी हुई है। हम अतीत में इससे भी ऊंची विकास दर हासिल कर चुके हैं और चीन ने 13 प्रतिशत की विकास दर कई वर्षों तक लगातार हासिल की थी। ऐसे में नए साल की एक बड़ी चुनौती विकास दर को बढ़ाने की है। विकास की मूल प्रक्रिया मांग से शुरू होती है। उपभोक्ता के हाथ में नकद होता है तो वह बाजार से पहनने के लिए कपड़े अथवा मकान बनाने के लिए सीमेंट खरीदता है। इससे बाजार में कपड़े और सीमेंट के दाम बढ़ते हैं। इन्हें बनाने वाली कंपनियों को लाभ अधिक होता है और वे निवेश की ओर उन्मुख होती हैं। निवेश से पुन: रोजगार के अवसर सृजित होते हैं। नई कंपनियों के कर्मियों द्वारा सीमेंट और कपड़े की मांग की जाती है। इस प्रकार खपत और निवेश का चक्र स्थापित हो जाता है। वर्तमान में इस चक्र पर जीएसटी ने दो प्रकार से प्रहार किया है।

पहला विषय छोटे उद्योगों का है। सूक्ष्म, लघु एवं मध्यम उद्योग मंत्रालय के अनुसार 2011- 12 में देश की आय में छोटे उद्योगों का हिस्सा 29.6 प्रतिशत था जो कि 2016 में घटकर 28.8 प्रतिशत रह गया है। हम मान सकते हैं कि जीएसटी लागू होने के बाद इसमें और गिरावट आई है, क्योंकि तमाम वैश्विक अनुभव ऐसा बताते हैं। ऑस्ट्रेलिया की विक्टोरिया यूनिवर्सिटी द्वारा कराए गए अध्ययन में पाया गया कि छोटे उद्योगों द्वारा अपनी कुल आमदनी का तीन प्रतिशत हिस्सा जीएसटी के अनुपालन में खर्च किया जा रहा है। उद्योगों को सामान्यत: बिक्री का 15 प्रतिशत लाभ होता है। इसमें तीन प्रतिशत की गिरावट आई है।

ऑस्ट्रेलिया के छह में से पांच उद्यमों को जीएसटी से नुकसान हुआ। न्यूजीलैंड की वेलिंग्टन यूनिवर्सिटी ने पाया कि बड़े उद्यमियों की तुलना में छोटे उद्यमी अधिक जीएसटी अदा करते हैं। जीएसटी के अनुपालन के लिए कंप्यूटर और सॉफ्टवेयर खरीदना पड़ता है। छोटा उद्यमी 50 हजार का कंप्यूटर खरीदकर साल में दस लाख का माल बेचता है। बड़ा उद्यमी उसी 50 हजार का कंप्यूटर खरीदकर दस करोड़ का माल बेचता है। एक लाख की बिक्री पर छोटे उद्योग पर 10,000 रुपये का भार पड़ता है जबकि बड़े उद्योगों पर मात्र 100 रुपये। मलेशिया की मोनाश यूनिवर्सिटी के एक अध्ययन में पाया गया कि मलेशिया के छोटे उद्योगों पर मनोवैज्ञानिक लागत आ रही है। वे बंद होने की चिंता से जूझ रहे हैं। इन वैश्विक अनुभवों के आधार पर हम मान सकते हैं कि अपने देश में भी जीएसटी लागू होने के बाद छोटे उद्यमों की स्थिति बिगड़ी है। इसमें पहले ही जो संकुचन हो रहा था वह और तेज हो गया है। ध्यान रहे कि अपने देश में अधिकांश रोजगार इन्हीं छोटे उद्योगों द्वारा सृजित किए जाते हैं।

एक आंकड़े के अनुसार छोटे उद्योगों के जरिये तकरीबन 11.2 करोड़ रोजगार सृजित हुए हैं। वित्त मंत्रालय के अनुसार बड़े और संगठित निजी क्षेत्र के माध्यम से केवल 1.2 करोड़ रोजगार सृजित हुए। छोटे उद्योगों द्वारा बड़े उद्योगों की तुलना में दस गुना रोजगार सृजित हुए हैं। यानी जीएसटी का नतीजा यही निकल रहा है कि रोजगार के अवसर घट रहे हैं। रोजगार कम उत्पन्न होने से उपभोक्ता के हाथ में क्रय शक्ति स्वाभाविक रूप से कम हो जाती है। बाजार में मांग नहीं है। कंपनियां नए उपक्रम लगाने में रुचि नहीं ले रही हैं। इसलिए 2019 की चुनौती है कि छोटे उद्योगों को जीएसटी के दबाव से मुक्त कराया जाए। इसका एक उपाय यह है कि छोटे उद्योगों द्वारा कच्चे माल पर अदा किए गए जीएसटी का उन्हें नकद रिफंड दिया जाए जिससे उनकी उत्पादन लागत कम बनी रहे और वे बड़े उद्योगों के सामने टिके रहें।

दूसरा उपाय यह है कि छोटे उद्योगों द्वारा माल का भुगतान मिलने के समय जीएसटी अदा करना हो। ऐसा करने से छोटे उद्योगों पर दबाव कम होगा, रोजगार बढ़ेगा और मांग एवं निवेश का सिलसिला फिर से चल निकलेगा। परिणामस्वरूप हमारी आर्थिक विकास दर बढ़ेगी।

सरकार विचार कर रही है कि जीएसटी की 12,18 एवं 28 प्रतिशत की दरों को मिलाकर एकल दर बना दी जाए। इससे जीएसटी के अनुपालन में कानूनी विवाद कम होंगे। उद्यमों के लिए जीएसटी का अनुपालन आसान हो जाएगा और अर्थव्यवस्था को गति मिलेगी। यह बात सही है, लेकिन एकल दर लागू होने से अमीर द्वारा खरीदी गई मर्सिडीज कार और गरीब द्वारा खरीदे गए दूध पर बराबर टैक्स वसूल किया जाएगा। इससे गरीब पर टैक्स का भार बढ़ेगा। न्यूजीलैंड सरकार के एक अध्ययन में कहा गया कि भिन्न-भिन्न दरों से गरीबों पर टैक्स का भार कम होता है।

नोबेल पुरस्कार विजेता प्रोफेसर जेम्स निर्लीज द्वारा किए गए एक अध्ययन में सामने आया कि एकल दर से गरीब पर टैक्स का भार बढ़ता है। ऑस्ट्रेलिया के शेरिदन कॉलेज द्वारा बोत्सवाना के लिए किए गए एक अध्ययन में भी इसकी पुष्टि हुई है, लेकिन इन तीनों अध्ययनों में यह भी कहा है कि एकल दर से अर्थव्यवस्था को गति मिलती है। इसलिए एकल दर लागू करने से गरीब पर जो भार बढ़ता है वह रकम उसे सीधे बैंक में भेज दी जानी चाहिए। ऐसा करने से गरीब के ऊपर टैक्स का जो भार बढ़ेगा उसकी भरपाई नकद हस्तांतरण से हो जाएगी। बाजार में मांग कम नहीं होगी। साथ ही साथ एकल दर से अर्थव्यवस्था को गति भी मिलेगी यानी एकल दर लागू करने की शर्त यह है कि पहले गरीब को सीधे नकद ट्रांसफर की व्यवस्था की जाए।

एकल दर के कारण गरीब पर जीएसटी का भार पड़ने से हमारी विकास दर पर भी दुष्प्रभाव पड़ता है। मान लीजिए एक रिक्शेवाले की जेब से एक हजार रुपये खो जाते हैं तो उसे अपनी खपत कम करनी होगी। उसकी कुल आय 10 हजार थी। उसमें एक हजार रुपये खोना अहमियत रखता है। इसकी तुलना में यदि रतन टाटा के एक हजार रुपये खो जाएं तो उनकी खपत में तनिक भी असर नहीं पड़ेगा, क्योंकि उनकी कुल आय करोड़ों में है। इसी प्रकार जीएसटी का भार गरीब पर पड़ने से गरीब की खपत में ज्यादा गिरावट आती है जबकि अमीर पर जीएसटी का भार कम होने से उसकी खपत में तनिक भी वृद्धि नहीं होती है। इसलिए जीएसटी की एकल दर का तार्किक परिणाम है कि गरीबों द्वारा मांग कम होती है और मांग और निवेश का चक्र टूटता है।

नए साल के आगमन पर हम दो परस्पर विरोधी उद्देश्यों के बीच में फंसे हुए हैं। एकल दर लागू करने से अर्थव्यवस्था में सक्षमता आती है और दूसरी तरफ एकल दर लागू करने से मांग में गिरावट आती है और अर्थव्यवस्था सुस्त पड़ती है। इसका भी उपाय यह है कि एकल दर लागू करने के साथ-साथ गरीब को सीधे कुछ रकम नकद ट्रांसफर कर दी जाए जैसा कि कुछ अंतरराष्ट्रीय अध्ययनों में कहा गया है। यदि नए साल में ऐसा कुछ किया जा सके तो बाजार में मांग कम नहीं होगी। तात्पर्य यह कि सरकार को जीएसटी की एकल दर लागू करने से पहले गरीब को सीधे नकद ट्रांसफर की व्यवस्था करनी चाहिए।

[ लेखक वरिष्ठ अर्थशास्त्री एवं आइआइएम बेंगलूर के पूर्व प्रोफेसर हैं ]