नई दिल्ली [ बद्री नारायण ]। भारत की राजनीति शतरंज की चाल की तरह है। शतरंज की बिसात पर कोई हाथी आगे बढ़ाता है तो दूसरा अपना घोड़ा आगे कर देता है। अगर और जनग्राही बनाने के लिए ताश के खेल के प्रतीक का इस्तेमाल करें तो कोई बादशाह की चाल चलता है तो और कोई अपना ‘इक्का’ लेकर आगे आ जाता है। अभी हाल में उत्तर प्रदेश में फूलपुर और गोरखपुर में हुए लोकसभा के उपचुनावों में बहुजन समाज पार्टी समर्थित समाजवादी पार्टी के उम्मीदवारों की जीत से पिछड़ी एवं दलित जातियों में सामाजिक गठजोड़ विकसित होना प्रारंभ हुआ है।

पिछड़े एवं दलित समूहों में खेमेबंदी

सपा-बसपा के बीच बने राजनीतिक गठजोड़ से इन सामाजिक समूहों के कुछ तबकों में उत्साह भी देखने को मिल रहा है। इसी बीच उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने तुरुप चाल चलते हुए अति दलितों एवं अति पिछड़ों को आरक्षण देने के लिए एक समिति बनाने की घोषणा कर दी। इससे एक प्रकार से पिछड़ों एवं दलितों के बीच समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी के नेतृत्व में विकसित हो रहे सामाजिक राजनीतिक गठजोड़ की गति पर विराम लगेगा। साथ ही उत्तर प्रदेश के समाज में आरक्षण व्यवस्था के संचालन पर भी समीक्षा, टीका-टिप्पणी तो होगी ही। पिछड़े एवं दलित समूहों में अलग-अलग खेमेबंदी भी होगी। ऐसा नही है कि यह योगी आदित्यनाथ का कोई नया आविष्कार है। इसके पहले भी ऐसे प्रयास होते रहे हैं।

पिछड़े एवं दलितों पर राजनीति

उत्तर प्रदेश में जनतांत्रिक शासन के इतिहास का अगर अवलोकन करें तो कांग्रेस शासन के दौरान यहां हेमवती नंदन बहुगुणा के मुख्यमंत्रित्व काल में डॉ. छेदी लाल साथी की अध्यक्षता में सर्वाधिक पिछड़ा आयोग बना था। इस आयोग ने पिछड़ों के आरक्षण की सांगोपांग समीक्षा करते हुए उसे तीन भागों में बांटने का सुझाव दिया था। इसी क्रम में जब राजनाथ सिंह प्रदेश के मुख्यमंत्री तो वर्ष 2001 में भाजपा शासन के दौरान हुकुम सिंह समिति बनाई गई थी। इसे सामाजिक न्याय समिति का नाम दिया गया था। हुकुम सिंह राजनाथ सिंह मंत्रिमंडल में संसदीय कार्य मंत्री थे। 29 जून, 2001 को गठित इस समिति ने 31 अगस्त, 2001 को अपनी 200 पृष्ठों की रिपोर्ट प्रस्तुत की थी।

 पिछड़े एवं दलितों को राजनाथ सरकार ने कई श्रेणी में बांटने का काम किया

इस रिपोर्ट में दलितों एवं पिछड़ों के आरक्षण को नए सिरे से तय करने की सिफारिश की गई थी। इस रिपोर्ट के अनुसार दलित सामाजिक समूह को दो भागों में बांटा गया था। ए श्रेणी में जाटव एवं धूसिया बिरादरी को रखा गया था। बी श्रेणी में अन्य दलित बिरादरी के सामाजिक समूहों को रखा गया था। इस रिपोर्ट के अनुसार ए श्रेणी के लिए 10 प्रतिशत एवं बी श्रेणी की दलित बिरादरी के लिए 11 प्रतिशत आरक्षण देने का सुझाव दिया गया था। इसी तरह पिछड़ों को तीन श्रेणियों में बांटा गया था। पिछड़ों का कुल कोटा 27 प्रतिशत की जगह 28 प्रतिशत करने का सुझाव दिया गया था। इनकी ए श्रेणी में यादव एवं अहीर जातियों को रखा गया था। इनके लिए पांच प्रतिशत आरक्षण का सुझाव दिया गया था। पिछड़ों की बी श्रेणी में जाट, कुर्मी, लोध, गुर्जर आदि आठ जातियों को रखा गया था। उन्हें नौ प्रतिशत आरक्षण देने का प्रावधान था। पिछड़ों की श्रेणी सी एक रोचक वर्ग बनकर उभरी थी। इसमें 22 मुस्लिम जातियों को जोड़कर 70 अति पिछड़ी बिरादरियों को 14 प्रतिशत आरक्षण कोटा देने का सुझाव दिया गया था।

आरक्षण के भीतर आरक्षण को लेकर गठित समितियों की रिपोर्ट लागू नहीं हुईं

इस समिति ने कुछ और उल्लेखनीय सिफारिशें की थीं। यह बात और है कि इन दोनों समितियों की रिपोर्ट अंतत: लागू नहीं हो सकी, क्योंकि सामाजिक न्याय समिति की रिपोर्ट को हाईकोर्ट में चुनौती दी गई। हाईकोर्ट ने इस पर रोक लगा दी। हाईकोर्ट का यह मानना था कि आरक्षण के भीतर आरक्षण नहीं दिया जा सकता।

आरक्षण के भीतर आरक्षण के नाम पर राजनीतिक गोलबंदी

हालांकि आरक्षण के भीतर आरक्षण को लागू करने के उक्त प्रयास सफल नहीं हो सके, किंतु ऐसी कोशिशों ने सामाजिक गति में महत्वपूर्ण हस्तक्षेप किए, राजनीतिक गोलबंदी को प्रभावित किया और नए पक्ष एवं विपक्ष बनाए। इन रिर्पोटों से यह पता चला कि ओबीसी में भी अति पिछड़े जैसे वर्ग भी हैं और दलितों में भी अति दलित। दलितों एवं पिछड़ों का एक समूह हालांकि इन कोशिशों का आलोचक भी है। वस्तुत: राज्य शासित जनतंत्र में कई बार संसाधनों का विभाजन असमान हो जाता है। जनतंत्र से पहली व्यवस्थाओं में तो यह खोट रहा ही है, परंतु जनतांत्रिक व्यवस्थाओं में भी ऐसी कमियां पाई जाती हैं। जो सामाजिक समूह विभिन्न ऐतिहासिक कारणों से मजबूत पायदानों पर खड़े हो जाते हैं वे जनतांत्रिक संसाधनों के वितरण क्रम में थोड़ी बेहतर भागीदारी पा लेते हैं। ये ऐसे समूह होते हैं जिन तक शिक्षा एवं आगे बढ़ने की चेतना पहले पहुंचती है और जो तुलनात्मक रूप से अच्छे जीवन की कामना की शक्ति थोड़ा पहले पा लेते हैं। इसी के साथ वे आगे बढ़ने का स्वप्न देखना औरों से पहले शुरू कर देते हैं। इसी क्रम में वे अपनी राजनीति भी विकसित कर लेते हैं, क्योंकि कामना एवं स्वप्न को जनतांत्रिक व्यवस्था में साकार करने के लिए अपने प्रतिनिधित्व की शक्ति चाहिए होती है।

राज्य की भाषा एवं समुदाय की भाषा के मध्य गहरी खाई

यह ध्यान रहे कि वे ही अपना प्रतिनिधित्व कर पाते हैं जिनके बीच सामुदायिक नेतृत्व उभर पाता है। यह सामुदायिक नेतृत्व राज्य सत्ता की व्यापक राजनीति से जोड़कर जनतांत्रिक हितों, सुविधाओं एवं परियोजनाओं को अपने सामाजिक समूहों तक लाने में मददगार होता है। यह वह तबका होता है जो राज्य की भाषा को समुदाय के लिए एवं समुदाय की भाषा को राज्य के लिए रूपांतरित करता है एवं दोनों की चाहत एवं आकांक्षाओं को एक-दूसरे तक पहुंचाता है। वस्तुत: राज्य की भाषा एवं समुदाय की भाषा के मध्य गहरी खाई होती है। कई बार राज्य समुदायों की भाषा को नहीं समझ पाता एवं समुदाय राज्य की भाषा को नहीं समझ पाते। फलत: दोनों समूह एक दूसरे के लिए अपने-अपने को अनुकूलित नहीं कर पाते। ऐसे में यह सामुदायिक नेतृत्व पिछडे़ एवं दलित समूहों के मध्य जनतांत्रिक संसाधनों के प्रसार में बड़ी भूमिका निभाता है।

सरकार की लाभकारी नीतियों से वंचित अति पिछड़े और अति दलित समुदाय

दलितों एवं पिछड़ों की जिन बिरादरियों में अपना सामुदायिक नेतृत्व उभर गया है उन्होंने बोलने की शक्ति प्राप्त कर ली है। अभी उत्तर प्रदेश में लगभग 40-50 के बीच दलित बिरादरी से जुड़े ऐसे समूह हैैं जिनके पास सबल जनतांत्रिक आधुनिक नेतृत्व नहीं उभर पाया है। ऐसे समूहों में प्रतियोगिता की शक्ति अभी विकसित नहीं हो पाई है। इनके पास तक जनतांत्रिक संसाधन रिस-रिस कर पहुंचते हैं। ऐसे समूह पिछड़ों में भी अति पिछड़ों के रूप में जाने जाते हैं। सच तो यह है कि उत्तर प्रदेश के साथ-साथ देश के अन्य सभी हिस्सों में अति पिछड़ों एवं अति दलितों की अनेक जातियां अभी अदृश्य सी हैं। अर्थात उनकी ओर अभी शासन-प्रशासन एवं नीतियों का समुचित ध्यान नहीं जा पाया है। संभव है कि ऐसे प्रयासों से इन समूहों को थोड़ी आवाज मिले। ये जब सशक्त एवं जागरूक होंगे तभी वे समाज एवं देश के आर्थिक विकास में भी महती भूमिका निभा पाएंगे।

[ लेखक गोविंद बल्लभ पंत सामाजिक विज्ञान संस्थान के निदेशक हैं ]