डॉ. श्रीष पाठक

नेपाल में नया संविधान लागू होने के बाद पहली बार चुनाव होने जा रहे हैं। प्रांतीय और संसदीय चुनाव दो चरणों में 26 नवंबर और 7 दिसंबर को होने हैं। इन चुनावों पर भारत के अलावा बाकी दुनिया की भी दिलचस्पी है। भारत की दिलचस्पी का एक कारण तो यही है कि नेपाल इन चुनावों के जरिये पिछले कई दशकों की राजनीतिक उठापटक से मुक्त हो पाता है या नहीं? दूसरा कारण यह है कि वहां बनने वाली नई सरकार भारतीय हितों के प्रति कितनी संवेदनशील रहती है। ध्यान रहे कि पिछले कुछ समय से नेपाल में चीन का प्रभाव बढ़ता जा रहा है। भारत की तरह चीन की भी यही चाहत है कि नेपाल में उसके हितों की चिंता करने वाली सरकार बने। चुनाव परिणाम कुछ भी हों, नेपाल ने एक ऐतिहासिक कदम उठाते हुए राज्यों और केंद्र के चुनाव एक साथ ही दो चरणों में कराने का निर्णय लिया है। पहला चरण 26 नवंबर को है और दूसरा 7 दिसंबर को।

एक साथ चुनाव कराने से संसाधनों की बचत तो होगी ही, सात राज्यों के मुख्यमंत्रियों सहित देश को एक प्रधानमंत्री भी मिलेगा। यह यकीनन एक प्रगतिवादी कदम है और आशा की जानी चाहिए कि नेपाल अपने इस लोकतांत्रिक प्रयोग में सफल होकर एक सुदृढ़ राष्ट्र बनने की दिशा में आगे बढ़ पाएगा। 1नेपाल केपिछले तीन दशक त्रसद राजनीतिक अस्थिरता के रहे हैं, जिसमें दस साल भयंकर हिंसा से भरे रहे हैं। वहां 1990 में बहुदलीय लोकतंत्रीय संसदीय व्यवस्था को अपनाया तो गया, पर गत 27 सालों में देश में 25 सरकारें आईं और एक बार बलपूर्वक राजकीय सत्ता परिवर्तन भी हुआ। 2001 में चुनाव के दो साल के भीतर ही आपातकाल लागू कर दिया गया था। 2005-06 में भारत के प्रयास से माओवादियों को राजनीतिक मुख्यधारा में शामिल किया गया और नए गणतांत्रिक नेपाल के नए संविधान के गठन के लिए 2008 में प्रथम संविधानसभा बनाई गई। विभिन्न अस्मिताओं वाले नागरिकों के सम्यक प्रतिनिधित्व के मुद्दे पर खींचातानी चलती रही और 2013 में द्वितीय संविधान सभा का गठन किया गया।

ये संविधान सभाएं संविधान-निर्माण के लिए सहमति जोहती रहीं और साथ-साथ शासन-प्रशासन भी किसी प्रकार चलाती रहीं। सितंबर 2015 में उसे नया संविधान मिला। नेपाल अपने सभी नागरिकों के लिए एक उपयुक्त संविधान बनाए, इसमें भी भारत को अपनी भूमिका का निर्वाह करना पड़ा। नए संविधान के अनुसार नेपाल एक गणतांत्रिक लोकतंत्र होगा जिसमें राष्ट्रपति संवैधानिक प्रधान और प्रधानमंत्री के पास वास्तविक शक्तियां होंगी और देश सात राज्यों का एक संघीय ढांचा बनेगा। नेपाल में 2013 के बाद से पिछले चार साल में चार सरकारें आ चुकी हैं जो नेपाली कांग्रेस के सुशील कोईराला, शेर बहादुर देउबा, माओवादी गठबंधन के पुष्प कमल दहल उर्फ प्रचंड और केपी ओली के नेतृत्व में बनीं। नए संविधान के मुताबिक देश में त्रिस्तरीय शासन व्यवस्था को अपनाया गया है, जिसमें केंद्रीय संसदीय स्तर, राज्य स्तर और निकायों का स्थानीय स्तर भी समावेशित है। स्वतंत्र एवं निष्पक्ष और नियमित अंतराल पर होने वाले चुनाव किसी भी स्वस्थ लोकतंत्र के लक्षण हैं। नेपाल एक छोटा देश हैं, लेकिन वहां राजनीतिक दलों की भारी भीड़ सी है। हालांकि मुख्य मुकाबला नेपाली कांग्रेस और दो वाम गुटों के गठबंधन के बीच है।1दरअसल नेपाल ने समानांतर मतदान प्रणाली व्यवस्था को चुना है जिसमें विभिन्न प्रत्याशी दो रीतियों से चुने जाएंगे। तकरीबन साठ प्रतिशत प्रत्याशी फस्र्ट पास्ट द पोस्ट यानी एफपीपी (जो अधिक मत पाया, वह जीता) पद्धति से और बाकी प्रत्याशी आनुपातिक प्रतिनिधित्व प्रणाली से चुने जाएंगे।

जहां एफपीपी पद्धति एक सरल चुनाव पद्धति है वहीं आनुपातिक प्रतिनिधित्व पद्धति जटिल तो है, परंतु प्रत्याशियों का सम्यक प्रतिनिधित्व सुनिश्चित करती है। नेपाल के संविधान-निर्माताओं ने अपने स्तर पर यह कोशिश की है कि गठित होने वाली आगामी संसद में सभी हित और अस्मिताएं सम्यक प्रतिनिधित्व के साथ प्रशासन में योग दें ताकि देश फिर किसी आंतरिक संघर्ष की स्थिति में न फंसे। राज्यों और केंद्रीय विधानमंडल के लिए एक साथ चुनाव कराने के नेपाल के प्रयोग को भी भारत को गौर से देखना होगा, क्योंकि एक अर्से से यहां यह मांग हो रही है कि विधानसभा और लोकसभा के चुनाव एक साथ होने चाहिए। अब जब भारत की साक्षरता लगभग 75 प्रतिशत के करीब है तब आनुपातिक प्रतिनिधित्व प्रणाली अपनाए जाने के लिए भी जरूरी विमर्श करना चाहिए, क्योंकि यही पद्धति भारत की विशाल विविधताओं का सम्यक प्रतिनिधित्व कर सकती है।

[लेखक राजनीतिशास्त्र के असिस्टेंट प्रोफेसर हैं]