[ संतोष त्रिवेदी ]: लंदन से जैसे ही विश्व कप में हमारे खिलाड़ियों के उम्दा प्रदर्शन की खबर विलायत से आई, देश के भीतर छुपे होनहार ‘खिलाड़ी’ छटपटा उठे। उन्हें अपने हुनर को आजमाने का अच्छा अवसर दिखाई दिया। हमारे यहां राजनीति का क्षेत्र कभी भी प्रतिभा-शून्य नहीं रहा। जब भी लगा कि देश ‘गलत’ दिशा में आगे बढ़ रहा है, राजनीति हमें ‘सही’ राह पर ले आती है। जनसेवक जी इस काम के लिए सबसे आगे आए। वह ‘बल्लेबाजी’ के लिए इतने आतुर हुए कि एक राजसेवक के पैरों को ही स्टंप समझकर उखाड़ने लगे। बुरा हो ऐसी व्यवस्था का जिसने ऐसी प्रतिभा को सम्मानित करने के बजाय हवालात में डाल दिया।

‘जनसेवा’ करने के बाद हवालात

यह तो अच्छा हुआ कि ‘जनसेवा’ करने के तुंरत बाद हवालात जाने से पहले वह हमसे बातचीत को तैयार हो गए। उस दुर्लभ मुलाकात में पहला सवाल हमने यही पूछा कि आपको ऐसी बल्लेबाजी की प्रेरणा कैसे मिली? सवाल सुनकर वह शून्य की ओर ताकने लगे। फिर धीरे-धीरे कहना शुरू किया, ‘दरअसल, हम बचपन से बल्लेबाज बनना चाहते थे। स्कूल टीम में हमने सिर्फ दो साथियों के सिर फोड़े, फिर भी चयन नहीं हुआ था। चयनकर्ता चाहते थे कि जब तक हम टांग तोड़ने की कला विकसित नहीं कर लेते, तब तक कामयाब खिलाड़ी न बन पाएंगे। तब हम मन मसोसकर रह गए थे। अब जनता ने ही हमें अपनी सेवा करने का अवसर दिया तो हम भला क्यों चूकते!’

‘बल्लेबाजी’ का कारनामा

‘आपने ‘बल्लेबाजी’ से यह अद्भुत कारनामा कैसे किया?’ हमने भी ‘दूसरा’ फेंकते हुए उन्हें चौंकाया। इससे वह कतई नहीं चौंके। बड़ी सहजता से खेल गए। कहने लगे, ‘हम हमेशा नए प्रयोग करने के हामी रहे हैं। गोली-बंदूक से मारने की परंपरा अब पुरानी हो चुकी है। हम इस तरह की हिंसा के खिलाफ हैं। यहां तक कि ‘जूतामार’ कला भी आउटडेटेड हो चुकी है। पुरानी तरकीबों से न हनक बढ़ती है, न ‘टीआरपी।’ ले-देकर हमारे पास यही वकल्प बचा था। सामयिक होने के नाते भी ‘बल्ला’ हमारी प्राथमिकता में था। इसलिए नई तकनीक का सहारा लिया। कलाई के बेहतर प्रयोग के कारण ‘बैटमार’ एक उन्नत कला है। यह सबको ठीक से आती भी नहीं।’ उनका यह जवाब सुनकर हमने ‘यार्कर’ डालने की कोशिश की-‘पर कुछ लोगों का कहना है कि आपके इस तरह ‘बल्लेबाजी’ करने से विकास अवरुद्ध हो सकता है। उसके कदम रुक भी सकते हैं?’

विकास की खोखली नींव

जनसेवक जी एकदम से भावुक होते हुए बोले, ‘अगर विकास दो-चार टांगें टूटना भी ‘अफोर्ड’ नहीं कर सकता तो ख़ुद सोचिए, उसकी नींव कितनी खोखली है। हम ऐसा ‘विकास’ नहीं चाहते। किसी देश का इतिहास यूं ही नहीं बनता। वह प्रतिक्षण बलिदान मांगता है। इस बारे में हमारी कार्यप्रणाली एकदम स्पष्ट है। पहले आवेदन फिर निवेदन, इसके बाद दे-दनादन। पता नहीं क्यों विरोधियों को यह नहीं सुहा रहा है।’ इतना कहकर वह अपना बल्ला सीधा करने लगे। ‘आप पर कानून हाथ में लेने का आरोप लगाया जा रहा है। क्या यह बात सही है?’ हमने इस बार गुगली आजमाई।

कानून को हाथ में नहीं, जेब में रखते हैं

वह हंसते हुए बोले, ‘यह आरोप तो एकदम निराधार है। कानून को हाथ में लेने का सवाल ही नहीं है। हम इसे ससम्मान अपनी जेब में रखते हैं। और हां, कानून को अपने हाथ में रखने वाले आजकल खाली हाथ घूम रहे हैं। सबने देखा है कि हमारे हाथ में केवल ‘बल्ला’ था। हम तो सिर्फ ‘आक्रामक बल्लेबाजी’ कर रहे थे।’ उनकी इस बालसुलभ मासूमियत देखकर हम भी अपनी ‘औकात’ भूल बैठे। उसी मासूमियत से पूछ बैठे, ‘आपको इतना तो याद होगा कि ‘बैटिंग’ करते हुए आपने कितना ‘स्कोर’ बनाया था?’ वह छूटते ही बोल पड़े-‘हमें बल्ले के अलावा कुछ भी याद नहीं। हमारा ‘स्कोर’ तो जनता चुनावों में बताएगी। एक और पते की बात बताता हूं। किसी गरीब का दुख हमसे देखा नहीं जाता। उसी दुख को दूर करने की यह छोटी-सी कोशिश थी, बस। फिर मौका मिलने पर हम जनसेवा से पीछे नहीं हटेंगे।’

जनसेवक हवालात नहीं, कारागार जाते हैं

‘अच्छा आखिरी बात। आपको हवालात जाने का कितना दुख है?’ हमने छोटी बॉल डालकर उन्हें ललचाया। वह जैसे इसी इंतजार में थे। बॉल को सीमापार भेजते हुए बोले, ‘लगता है आपकी भी हिंदी खराब है! अरे भाई, चोर और उचक्के ‘हवालात’ जाते हैं। जनसेवक हवालात नहीं, कारागार जाते हैं। कारागार तो हमारी उन्नति का मार्ग प्रशस्त करते हैं। हम यहीं से चुनाव लड़कर इतिहास रचेंगे। अतीत से हम यही सबक ले रहे हैं, पर ‘बिकाऊ-मीडिया’ यह नहीं बताएगा। आप अपनी हिंदी दुरुस्त कीजिए। हम देश को दुरुस्त कर रहे हैं।’ ऐसा कहकर उन्होंने बल्ला उठा लिया। इसे देखकर हमने भी अपनी ‘गेंदबाजी’ खत्म करने में ही भलाई समझी।

[ लेखक हास्य-व्यंग्यकार हैं ]