[ राजीव सचान ]: लोकसभा चुनाव नतीजों के बाद से यह एक स्वर बार-बार सुनाई दे रहा है कि अबकी बार विपक्ष बड़ा कमजोर है। इसी के साथ लोकतंत्र में सशक्त विपक्ष की महत्ता को भी रेखांकित किया जा रहा है। यह निराधार नहीं, लेकिन यह पहली बार नहीं जब सत्ताधारी दल के हिस्से में तीन सौ से अधिक सीटें दिख रही हों। नेहरू, इंदिरा और राजीव गांधी के समय 1967 को छोड़कर कांग्रेस ने जब भी सत्ता हासिल की उसने साढ़े तीन सौै से अधिक सीटें जीतीं।

आज का विपक्ष कमजोर कम, बिखरा अधिक

1984 में तो इंदिरा गांधी की हत्या के बाद हुए चुनाव में कांग्रेस ने 404 सीटें हासिल की थीं। इस बार भाजपा ने अपने दम पर 303 और सहयोगी दलों के साथ साढ़े तीन सौ से अधिक सीटें हासिल की हैैं। स्पष्ट है कि विपक्ष उतना कमजोर नहीं है जितना बताया जा रहा है। सच्चाई यह है कि आज का विपक्ष कमजोर कम, बल्कि बिखरा हुआ और अतार्किक अधिक है।

विरोध के लिए विरोध की मानसिकता

इससे भी खराब बात यह है कि वह विरोध के लिए विरोध की मानसिकता से ग्रस्त है। यह मानसिकता नई नहीं है, लेकिन बीते करीब दो दशकों से यह अधिक देखने को मिल रही है। इसी मानसिकता के चलते 1998 में वाजपेयी सरकार के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव लाया गया था। इस प्रस्ताव का मूल कारण यह था कि वाजपेयी सरकार को समर्थन दे रहीं अन्नाद्रमुक नेता जयललिता नाराज होकर सोनिया गांधी के साथ चाय पीने चली गई थीं। इस चाय पार्टी के आयोजक-संयोजक थे सुब्रमण्यम स्वामी। वाजपेयी सरकार महज एक वोट से गिर गई थी। आज शायद ही किसी को पता हो कि यह अविश्वास प्रस्ताव क्यों लाया गया था?

मध्यावधि चुनाव

कुछ नेताओं की सनक के चलते मध्यावधि चुनाव हुए और वाजपेयी सरकार और अधिक सशक्त होकर सत्ता में लौटी। 2004 में वह अप्रत्याशित रूप से सत्ता से बाहर हो गई। उसने वादा तो यह किया कि वह रचनात्मक विपक्ष की भूमिका निभाएगी, लेकिन कई अवसरों पर उसने नकारात्मक रवैये का ही परिचय दिया।

परमाणु समझौते का विरोध

इसका एक बड़ा प्रमाण तब मिला जब उसने अमेरिका से हुए परमाणु समझौते का विरोध करना शुरू कर दिया। इस समझौते के विरोध का कोई औचित्य नहीं था, फिर भी भाजपा यही कहती रही कि यह समझौता देशहित में नहीं। यह पता नहीं कि परमाणु समझौते पर लोकसभा में मतदान के दौरान वोट के बदले नोट का जो सनसनीखेज मामला सामने आया उसके पीछे कौन था, लेकिन जो भी था उसका इरादा सरकार को गिराना था। कायदे से इस मामले की तह तक जाया जाना चाहिए था, लेकिन कोई नहीं जानता कि ऐसा क्यों नहीं हो सका?

भाजपा की नकारात्मक राजनीति

2009 में अगर कांग्रेस के नेतृत्व वाला गठबंधन फिर से सत्ता में आया तो इसका एक कारण बतौर विपक्ष भाजपा की नकारात्मक राजनीति थी।

कांग्रेस हुई सत्ता से बेदखल

2014 में कांग्रेस अपने खराब कर्मों से सत्ता से बाहर हुई। उसे महज 44 सीटें मिलीं। जब यह माना जा रहा था कि वह अपनी करारी हार पर ईमानदारी से आत्ममंथन करेगी तब वह इस नतीजे पर पहुंची कि जनता ने गलती कर दी है। पूरे पांच साल वह ऐसे व्यवहार करती रही जैसे गलती उसकी नहीं, बल्कि नासमझ जनता की है। इसका दुष्परिणाम यह हुआ कि कांग्रेस पूरे पांच साल संसद के दोनों सदनों में हंगामा करने और टीवी कैमरों के सामने नारे लिखी तख्तियां दिखाने की कोशिश करती रही। उसके सांसद किसी मसले पर बहस के बजाय इसकी तैयारी करते दिखते रहे कि तख्तियों में क्या नारे लिखे जाएं और उन्हें सदन में इस तरह कैसे लहराया जाए कि वे टीवी कैमरों में आ जाएं?

2015 में मानसून सत्र की बर्बादी

2015 में संसद का वह मानसून सत्र याद करें जो ललित मोदी कांड के नाम पर बर्बाद कर दिया गया था। कांग्रेस इस मामले को किसी बड़े घोटाले की शक्ल देकर संसद के दोनों सदन बाधित किए रही। इसके बाद रह-रह कर सरकार के खिलाफ कथित गंभीर मसले खोजकर संसद के कामकाज को बाधित किए जाने की परंपरा को पुष्ट ही किया गया। यह काम राफेल सौदे को लेकर भी किया गया।

कांग्रेस की एक और करारी हार

राहुल गांधी कभी भूकंप लाने की बात करते रहे और कभी यह डींग हांकते रहें कि प्रधानमंत्री उनके सामने खड़े नहीं हो पाएंगे। एक और करारी हार के बाद राहुल गांधी यह मान रहे हैैं कि पार्टी के अन्य नेताओं ने चौकीदार चोर है नारे का इस्तेमाल उतने जोर-शोर से नहीं किया जितना उन्होंने किया। वह इस नतीजे पर भी पहुंचे हैैं कि मोदी नफरत के बल पर चुनाव जीत गए हैैं।

मोदी के खिलाफ अभद्र भाषा की अनदेखी

मोदी के खिलाफ राहुल की अभद्र भाषा की अनदेखी कर सोनिया गांधी यह कह रही हैैं कि सत्ता के लिए मर्यादा का उल्लंघन किया गया। प्रियंका गांधी ने रायबरेली में सोनिया गांधी की जीत का अंतर कम होने पर अपने कार्यकर्ताओं को यह चेतावनी दे डाली कि वह उनकी पहचान करेंगी जिन्होंने ढंग से मेहनत नहीं की।

जिम्मेदार विपक्ष की भूमिका के आसार कम

गांधी परिवार के सदस्यों के ऐसे बयानों को देखते हुए इसके आसार कम ही हैैं कि कांग्रेस जिम्मेदार विपक्ष की भूमिका निभाएगी। वैसे भी राहुल गांधी यह कह चुके हैैं कि उनके 52 सांसद संसद में भाजपा को बच निकलने का मौका नहीं देंगे। बात केवल लोकसभा में ही विपक्ष के आचरण की नहीं है, क्योंकि यह किसी से छिपा नहीं कि बीते पांच साल लोकसभा से पारित विधेयक किस तरह राज्यसभा में रोके जाते रहे?

लोकसभा से अधिक हंगामा राज्यसभा में हुआ

राज्यसभा में विपक्ष अपने बहुमत का इस्तेमाल कुछ इसी भावना से करता दिखा जैसे जनता की कथित गलती को ठीक करने की जिम्मेदारी उस पर आ गई है। राज्यसभा को वरिष्ठों का सदन मानते हुए यह कहा जाता है कि इस सदन में कहीं अधिक धीर-गंभीर होकर चर्चा की जाती है, लेकिन बीते पांच साल में इसका उलट देखने को मिला। लोकसभा से अधिक हंगामा राज्यसभा में हुआ। संसद में पक्ष-विपक्ष के बीच नोकझोंक और विवाद लोकतंत्र का हिस्सा है, लेकिन विरोध के लिए विरोध का कोई मतलब नहीं।

सत्तापक्ष को कठघरे में खड़ा करने में समर्थ थे

मुश्किल यह है कि आज यदि चार सांसद भी ठान लें तो वे लोकसभा या राज्यसभा को पंगु बना सकते हैैं। यदि हंगामा करने वाले सांसदों के खिलाफ कभी कोई कार्रवाई की जाए तो गांधी प्रतिमा के नीचे बैठकर यह कहा जाने लगता है कि विपक्ष का मुंह बंद किया जा रहा है। एक समय विपक्ष जब वाकई बहुत दुर्बल हुआ करता था तब उसके पास राममनोहर लोहिया, पीलू मोदी, इंद्रजीत गुप्त, अटल बिहारी वाजपेयी आदि ऐसे नेता होते थे जो अकेले ही सत्तापक्ष को कठघरे में खड़ा करने में समर्थ रहते थे।

विपक्ष की नकारात्मक राजनीति

चंद्रशेखर के अवसान के बाद ऐसा कोई नेता नहीं दिखता। शरद पवार बुजुर्ग नेता अवश्य हैैं, वह विपक्ष की हार के लिए ईवीएम को जिम्मेदार ठहरा रहे हैैं। ये तो नकारात्मक राजनीति के नए संकेत ही हैैं। इसी कारण यह कहना कठिन है कि विपक्ष यह समझेगा कि उसे तार्किक होने की जरूरत है, न कि संख्याबल के लिहाज से ताकतवर होने की।

( लेखक दैनिक जागरण में एसोसिएट एडीटर हैैं )

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