[ विवेक शुक्ला ]: आम चुनाव से गुजरते पाकिस्तान पर दुनिया की निगाहें भले हों, लेकिन चुनाव बाद इस देश में किसी बड़े बदलाव की उम्मीद नहीं है। इसके बाद भी नहीं है कि क्रिकेटर से नेता बने इमरान खान की पाकिस्तान तहरीके इंसाफ पार्टी यानी पीटीआइ सबसे बड़े दल के तौर पर उभर सकती है और वह प्रधानमंत्री भी बन सकते हैैं। पाकिस्तान में हर कोई यह जान-समझ रहा है कि रावलपिंडी स्थित पाकिस्तानी सेना का मुख्यालय 65 साल के इमरान खान को देश का प्रधानमंत्री बनता देखना चाह रहा है। जैसे यह स्पष्ट है कि इमरान खान की पीठ पर पाकिस्तानी सेना का हाथ है वैसे ही यह भी कि वह पूर्व प्रधानमंत्री नवाज शरीफ की राह रोकने के हर संभव जतन कर रही है। उसने नवाज शरीफ के रास्ते में इतने अवरोध खड़े किए कि एक तो उन्हें बेटी समेत जेल जाना पड़ा और दूसरे, उनकी पाकिस्तान मुस्लिम लीग (नवाज) चुनाव मैदान में पिछड़ भी गई।

पाकिस्तान में यह आम धारणा है कि सेना की मदद अदालत भी कर रही है। वहां के सुप्रीम कोर्ट ने पहले नवाज शरीफ को प्रधानमंत्री पद के अयोग्य करार दिया और फिर यह आदेश दिया कि वह अपने दल के मुखिया भी नहीं रह सकते। हालांकि पनामा पेपर्स मामले में अभियोजन पक्ष शरीफ को भ्रष्ट सिद्ध कर पाने में असफल रहा था, फिर भी सुप्रीम कोर्ट ने उन पर चाबुक चला दी, क्योंकि सेना भी ऐसा ही चाह रही थी। पाकिस्तानी सेना को शरीफ इसलिए पसंद नहीं, क्योंकि वह उसके वर्चस्व को चुनौती देने लगे थे। शरीफ की चुनौती से तिलमिलाई सेना को इमरान खान में संभावनाएं नजर आईं। इससे इमरान खान को भी बल मिला और वे खुलकर कहने लगे कि उन्हें कामयाबी मिलने जा रही है। वह नवाज शरीफ को भारत का एजेंट बता रहे हैैं।

पाकिस्तान में किसी को भी भारत का एजेंट कहकर बदनाम किया जा सकता है। एक समय मोहम्मद अली जिन्ना की बहन फातिमा जिन्ना को सैन्य तानाशाह जनरल अयूब खान ने भारत और अमेरिका का एजेंट करार दिया था। उनकी गलती बस इतनी थी कि वह सेना के बढ़ते प्रभाव के खिलाफ बोलने लगी थीं। अयूब खान के इस हथियार को बाद में राजनीतिक दलों ने भी अपना लिया और जिस-तिस को भारत या फिर अमेरिका का एजेंट बताया जाने लगा।

नवाज शरीफ तबसे सेना के निशाने पर हैं जबसे उन्होंने 2008 के मुंबई हमले के लिए पाकिस्तान में सक्रिय आतंकी गुटों को जिम्मेदार बताया था। डॉन लीक मामले के बाद सेना नवाज शरीफ से और नाराज हो गई। इस मामले में सरकार और सेना के बीच हुई बैठक में कही गई यह बात पाकिस्तान के अंग्रेजी दैनिक डॉन में छप गई थी कि सेना के दखल के चलते मसूद अजहर सरीखे आतंकियों की गिरफ्तारी में मुश्किल हो रही है। कुछ समय पहले नवाज शरीफ ने जब फिर से डॉन अखबार को साक्षात्कार दिया तो यह समाचार पत्र भी सेना के निशाने पर आ गया। सैन्य दफ्तरों में इस समाचार पत्र का आना बंद हो गया और प्रमुख शहरों में उसके वितरण को बाधित करने की कोशिश की जाने लगी।

हालांकि नवाज शरीफ को आम लोगों की हमदर्दी हासिल हुई, लेकिन उनके खिलाफ इस दुष्प्रचार का भी असर दिखा कि वह मोदी के दोस्त हैैं। इमरान खान की पार्टी के कार्यकर्ता चुनाव प्रचार में यह नारा लगाते दिखे-जो मोदी का जो यार है वह गद्दार है, गद्दार है। इमरान खान भले ही भारत से दोस्ती की बातें करते हों, लेकिन वह भारत और पाकिस्तान के बीच खराब संबंधों का ठीकरा मोदी के सिर पर ही फोड़ते हैैं।

इमरान खान अपनी पिछली भारत यात्रा के दौरान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से मिले थे। इस मुलाकात के बाद उन्होंने उनकी तारीफ के पुल बांधे थे, लेकिन भारतीय प्रधानमंत्री की औचक लाहौर यात्रा के बाद वह उनके खिलाफ बोलने लगे। वह हाफिज सईद और आतंकियों के अन्य आकाओं के खिलाफ बोलने से बचते हैैं। जब नवाज शरीफ ने माना था कि मुंबई हमले के पीछे पाकिस्तानियों का हाथ था तब इमरान खान ने उन्हें मीर जाफर बताया था। आतंकी तत्वों से हमदर्दी के कारण ही उन्हें तालिबान खान कहा जाने लगा था, क्योंकि वह तालिबान गुटों से बातचीत करने की वकालत करते थे।

चुनाव प्रचार के दौरान यह सामने आया कि कई कट्टरपंथी गुटों के नेता उनका समर्थन कर रहे हैैं। इनमें से कुछ तो आतंकी सरगना माने जाते हैैं। पाकिस्तान की राजनीति में इमरान खान की दस्तक से एक उम्मीद बंधी थी। उन्हें पाकिस्तान का अरविंद केजरीवाल कहा जाने लगा था, लेकिन जब भारत में केजरीवाल की छवि तली में जा लगी है तब पाकिस्तान में इमरान खान सत्ता के प्रमुख दावेदार के तौैर पर उभर आए हैैं। पता नहीं वह पाकिस्तान के प्रधानमंत्री बनते हैैं या नहीं, लेकिन अगर सेना के खुले-छिपे सहयोग और जरूरत पड़ने पर तीसरे स्थान की दावेदार मानी जा रही पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी की मदद से बन भी जाते हैैं तो उनके नेतृत्व में पाकिस्तान के भाग्योदय की उम्मीद नहीं की जा सकती।

पाकिस्तान में जब भी चुनाव होते हैैं तो यह कहा जाता है कि देश निर्णायक मोड़ पर आ खड़ा हुआ है। इस बार भी ऐसा ही कहा जा रहा है। चुनाव नतीजा कुछ भी हो, पाकिस्तान निर्णायक मोड़ पर खड़ा हुआ बिल्कुल भी नहीं दिख रहा है। पाकिस्तान की भावी सरकार सेना के साये में शासन करने के लिए विवश होगी और वह किस्म-किस्म के जिहादियों पर रोक लगाने का काम चाह करके भी नहीं कर पाएगी। इसके कहीं कोई संकेत नहीं हैैं कि पाकिस्तानी सेना आतंकवाद का इस्तेमाल करने की अपनी नीति को छोड़ने वाली है। इमरान को शायद इसकी फिक्र ही नहीं।

इमरान खान की भारत यात्राओं के दौरान मुझे उनसे चार बार मुलाकात करने का अवसर मिला। यह साफ कहा जा सकता है कि वह नेता बनने के बाद बदल गए हैैं। शायद वह मूलत: वैसे ही शख्स हैैं जैसा उनकी दूसरी पत्नी रेहम खान ने उन्हें चित्रित किया है-मतलबी और सामंती सोच वाले। इस पर हैरानी नहीं कि भारत से दोस्ती की बातें करने वाले इमरान अब भारत विरोध के बल पर भी चुनाव जीतना चाह रहे हैैं। प्रधानमंत्री बनने को अमादा इमरान खान यह देखने को तैयार नहीं कि पाकिस्तानी सेना ने नागरिक शासन को कितनी बुरी तरह जकड़ लिया है। नागरिक शासन पर सेना की जकड़न के चलते ही यह कहा जाता है कि उसने अघोषित तौर पर तख्ता पलट करके शासन की बागडोर अपने हाथ में ले ली है।

[ लेखक दिल्ली स्थित यूएई दूतावास में सूचना अधिकारी रहे हैैं ]