राजनीतिक रार का नया मोर्चा, भाजपा चाहेगी की राहुल की सदस्यता रद होने का मामला अदालती निर्णय पर रहे केंद्रित
लोकतांत्रिक समाज की एक बुनियादी शर्त है और वह यही है कि अगर ठोस प्रमाण न हों तो सार्वजनिक रूप से किसी को निशाना नहीं बनाया जाना चाहिए लेकिन देश के अघोषित प्रथम राजनीतिक परिवार के कर्णधार राहुल ने इसे कभी नहीं माना।
उमेश चतुर्वेदी: मोदी उपनाम पर आपत्तिजनक बयानबाजी के मामले में सूरत की अदालत से सजा मिलने के बाद राहुल गांधी की संसद सदस्यता रद हो गई। यह वर्ष 2013 के थामस बनाम भारतीय संघ मामले में सुप्रीम कोर्ट की व्यवस्था का ही परिणाम है। दो साल या उससे ज्यादा की सजा की स्थिति में जनप्रतिनिधियों को पहले तीन महीने की मोहलत मिलती थी। सुप्रीम कोर्ट ने उसे रद कर दिया था। उसके खिलाफ ही मनमोहन सरकार 2013 में अध्यादेश लाने वाली थी। उसकी योजना सुप्रीम कोर्ट के फैसले को बदलने की थी। तब उसके खिलाफ राहुल गांधी ही आए थे। भरी प्रेस कांफ्रेंस में अपनी ही सरकार के अध्यादेश की प्रति को फाड़ दिया था। अब इसे संयोग कहें कि दुर्योग कि जिस अध्यादेश का उन्होंने विरोध किया, अगर वह रहता तो शायद उनकी संसद सदस्यता बरकरार रहती। राहुल गांधी के खिलाफ मानहानि का यह इकलौता मामला नहीं था। ऐसे ही मामले अहमदाबाद, भिवंडी, पटना और गुवाहाटी की अदालतों में भी चल रहे हैं।
लोकतांत्रिक समाज की एक बुनियादी शर्त है और वह यही है कि अगर ठोस प्रमाण न हों तो सार्वजनिक रूप से किसी को निशाना नहीं बनाया जाना चाहिए, लेकिन देश के अघोषित प्रथम राजनीतिक परिवार के कर्णधार राहुल ने इसे कभी नहीं माना। 1977 के आम चुनाव में इंदिरा गांधी के खिलाफ जो अशोभनीय नारे लगे, वे रिकार्ड पर नहीं थे। उन नारों को सम्मानित और पहली पंक्ति के नेता नहीं लगा रहे थे, लेकिन राहुल ने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और प्रधानमंत्री मोदी पर हर बार बिना किसी ठोस सुबूत के न सिर्फ आरोप लगाया, बल्कि अशोभनीय नारे भी लगाए। ‘चौकीदार चोर है’ जैसा नारा अगर कांग्रेस के आम कार्यकर्ता-नेता लगाते तो कम अशोभनीय होता, लेकिन राहुल ने न सिर्फ सार्वजनिक मंच से यह नारा लगाया, बल्कि बार-बार दोहराया भी। तब वह कांग्रेस अध्यक्ष थे। मोदी सरनेम वाला उनका आपत्तिजनक बयान भी नरेन्द्र मोदी विरोध की चरम मानसिक उत्तेजना का ही परिणाम था।
राहुल गांधी और कांग्रेस के शीर्ष नेतृत्व की कमजोरी यही है कि उसकी सलाहकार मंडली में गंभीर लोग कम हैं। वे बार-बार राहुल और प्रियंका को सिर्फ नैरेटिव आधारित आक्रमण का सुझाव देते हैं। राहुल के एक सलाहकार रोजाना ट्विटर पर जिस प्रकार की सतही अभिव्यक्ति करते हैं, उससे अंदाजा लगाया जा सकता है कि वह किस तरह का सुझाव देते होंगे। कांग्रेस आरोप लगाती है कि राहुल की छवि भाजपा ने जानबूझकर बिगाड़ी है। दरअसल राजनीतिक मैदान में छवि बनाने और बिगाड़ने पर ही जब लोकतांत्रिक नतीजे प्रभावित होते हों तो राजनीतिक दल ऐसा करेंगे ही। ऐसे में अपनी छवि को लेकर जवाबदेह और जिम्मेदार बनना आवश्यक है। राहुल बयान देते वक्त यहीं चूक जाते हैं। उनकी यह चूक ही उनकी छवि को नुकसान पहुंचाती है। अब तो सूरत की अदालत के फैसले के बाद यह स्थापित ही हो जाएगा कि राहुल जुबानी गलतियां करते रहे हैं। भले ही बाद में उन्हें ऊपरी अदालत से राहत मिल जाए।
राहुल की संसद सदस्यता समाप्त करने के फैसले पर विवाद स्वाभाविक है। कांग्रेस के आधिकारिक प्रवक्ता ही नहीं, उसकी हालिया सहयोगी बनी शिवसेना भी कह रही है कि राहुल की सदस्यता रद होना अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर हमला है। कांग्रेस इसे सियासी मामला बताते भी नहीं थक रही है। कांग्रेस कह रही है कि चूंकि संसद और संसद से बाहर राहुल निडर होकर बोल रहे हैं, इसलिए सरकार ने उनके खिलाफ कार्रवाई की और आनन-फानन में उनकी सदस्यता खत्म कर दी गई। इस बहस में सुप्रीम कोर्ट का फैसला कहीं पीछे छूट गया है। राजनीति की जो रवायत है, उसमें कांग्रेस सुप्रीम कोर्ट के फैसले की अनदेखी कर मामले को राजनीतिक रंग देने की कोशिश करेगी, वहीं भाजपा चाहेगी कि मामला राजनीति के बजाय अदालत और राहुल की बदजुबानी पर ही केंद्रित रहे।
कुछ महीनों बाद कर्नाटक, राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में विधानसभा चुनाव होने हैं। छत्तीसगढ़ और राजस्थान में कांग्रेस की सरकार है। ऐसे में उसकी कोशिश होगी कि इस मामले में राहुल को राजनीतिक बलिदानी बताया जाए और मोदी सरकार के कदम को कठघरे में खड़ा किया जाए, ताकि राजस्थान और छत्तीसगढ़ में सत्ता कायम रखने के साथ ही कर्नाटक और मध्य प्रदेश में भाजपा से सत्ता छीनी जा सके। इसलिए अगले कुछ दिनों तक कांग्रेस अपने देशव्यापी सांगठनिक ढांचे की बदौलत जिला स्तर तक राहुल की सदस्यता खारिज किए जाने को मुद्दा बनाती रहेगी। देश को अगले कुछ दिनों तक कांग्रेसी धरना-प्रदर्शनों के लिए तैयार रहना होगा।
जहां कांग्रेस का संगठन मजबूत है, वहां यह विरोध तीखा हो सकता है। जहां संगठन कमजोर है, वहां विरोध धीमा दिखेगा। राहुल को उन विपक्षी दलों का भी समर्थन मिल सकता है, जिनके नेताओं के खिलाफ भ्रष्टाचार के मामले चल रहे हैं या जिनके खिलाफ ऐसी ही बदजुबानी को लेकर मानहानि के मुकदमे अदालतों में लंबित हैं। वे भी इस सियासी संग्राम में कांग्रेस के साथ उतरने की कोशिश करेंगे। हालांकि, इस अभियान की एक सीमा है। अगर राहुल के मामले को तूल मिलता है और इसकी परिणति जनसमर्थन में होती है तो अगले चुनाव के बाद प्रधानमंत्री बनने की आस लगाए बैठे गैर-कांग्रेसी विपक्षी नेताओं को निराशा हाथ लग सकती है। इसलिए हो सकता है कि ममता बनर्जी, नीतीश कुमार और अखिलेश यादव जैसे नेता इस मामले में भाजपा की आलोचना करें, पर राहुल और कांग्रेस को खुलकर समर्थन न दे पाएं।
सूरत की अदालत के फैसले के बाद भारतीय राजनीति में सकारात्मक बदलाव जरूर होगा। अब नेता बदजुबानी करने और बिना ठोस सुबूत के आरोप लगाने से बचेंगे। सूरत के फैसले के बाद अदालतों का मानस भी बदलेगा। राजनेताओं को विशिष्ट मानने से जुड़े अवचेतन में बैठे पारंपरिक सोच से भी मुक्ति मिलेगी। आने वाले दिनों मे ऐसे और कुछ फैसले दिख जाएं तो हैरत नहीं होगी। कह सकते हैं कि इस फैसले से अदालती और विपक्षी मानस तो बदलेगा ही, भारतीय राजनीति पर भी इसका बड़ा प्रभाव दिख सकता है।
(लेखक राजनीतिक विश्लेषक एवं वरिष्ठ पत्रकार हैं)