[ पीयूष पांडे ]: अभिनेता सुशांत सिंह राजपूत की मौत के बाद अलग-अलग कारणों से बॉलीवुड में मचे घमासान के बीच उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने एक ऐसी घोषणा की है, जो मूर्त रूप ले सके तो देश के फिल्म परिदृश्य की दशा और दिशा बदल सकती है। योगी आदित्यनाथ ने नोएडा-ग्रेटर नोएडा में देश की सबसे खूबसूरत फिल्म सिटी बनाने का एलान किया है। यह फैसला कई मायने में बेहद अहम है। सबसे बड़ी बात यह कि यह घोषणा चुनावी नहीं है।

नई फिल्म सिटी के लिए नोएडा-ग्रेटर नोएडा से बेहतर कोई दूसरी जगह नहीं हो सकती

नई फिल्म सिटी के लिए राज्य की आर्थिक राजधानी कहे जाने वाले नोएडा-ग्रेटर नोएडा से बेहतर कोई दूसरी जगह नहीं हो सकती। यहां से कुछ किमी की दूरी पर स्थित जेवर में हवाई अड्डा जल्द साकार रूप लेने जा रहा है। राजधानी दिल्ली सटी हुई है, जहां हवाई अड्डा पहले से है। राजधानी में राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय जैसा प्रख्यात कला केंद्र है, जिसके प्रशिक्षित छात्र फिल्मों में काम करने के उद्देश्य से मुंबई जाने को विवश हैं। नोएडा से लखनऊ-वाराणसी तक एक्सप्रेस-वे के जरिये आसानी से पहुंचा जा सकता है, जहां ऐतिहासिक इमारतों का खजाना है। महज 200 किमी के भीतर आगरा जैसा शहर है, जिसका बॉलीवुड में ताजमहल से इतर कायदे से अन्वेषण ही नहीं हुआ है। शूटिंग के लिए मुफीद शिमला, नैनीताल, देहरादून, मसूरी, जयपुर, चंडीगढ़ जैसे कई शहर सड़क मार्ग के जरिये सिर्फ पांच-छह घंटे की दूरी पर हैं। नोएडा मीडिया का मक्का भी है, जो प्रस्तावित फिल्म सिटी को बढ़ावा देने में अपनी भूमिका निभा सकता है।

आक्रामक मठाधीशी का सामना करने से मिलेगी मुक्ति

नई फिल्म सिटी के पक्ष में कई तर्क हैं। सबसे बड़ी बात यह कि पूरी हिंदी पट्टी के सिनेमा को एक ऐसा केंद्र मिल सकता है, जहां भाषा, संस्कृति और क्षेत्रवाद का कोई व्यवधान नहीं होगा। यह कोई छिपी बात नहीं है कि उत्तर प्रदेश, बिहार और हिंदी पट्टी के लाखों युवा मुंबई में राजनीति प्रेरित संकीर्ण क्षेत्रीयता का शिकार होते रहे हैं। सपने देखने वाले लाखों प्रतिभाशाली युवाओं को मायानगरी की दहशत नहीं होगी, जहां कदम रखते ही आर्थिक संघर्ष आरंभ हो जाता है, क्योंकि मुंबई दुनिया के महंगे शहरों में एक है। बड़ी संख्या में रोजगार पैदा होंगे ही और मुंबई में फिल्म निर्माण के दौरान निर्माता-निर्देशकों को जिस आक्रामक मठाधीशी का सामना करना पड़ता है, उससे भी मुक्ति मिलेगी। यह सर्वविदित तथ्य है कि महाराष्ट्र में फिल्म बनाने वाला कोई भी निर्माता किस्म-किस्म की यूनियनों को नाराज कर फिल्म नहीं बना सकता।

फिल्म निर्माण में मुंबई का महत्व था, कानून व्यवस्था बेहतर थी

एक जमाने में फिल्म निर्माण में मुंबई का महत्व इसलिए भी अधिक था, क्योंकि कैमरे से लेकर बाकी तकनीक न केवल बहुत महंगी थीं, बल्कि मुंबई में ही सहज उपलब्ध थी। महाराष्ट्र में कानून व्यवस्था भी कई राज्यों से बेहतर थी, लेकिन अब परिदृश्य बदल चुका है। अब फिल्मों से इतर वेब सीरीज, शॉर्ट फिल्म, डॉक्यूमेंट्री और सीरियल जैसे कई नए दरवाजे खुले हैं, जिनके निर्माण के लिए मुंबई की बाध्यता नहीं रह गई है। तकनीक ने फिल्म निर्माण आसान और सस्ता किया है। इंटरनेट और ओटीटी प्लेटफॉर्म ने भी स्वतंत्र निर्माता-निर्देशकों को ताकत दी है।

उत्तर प्रदेश में पहले के मुकाबले कानून व्यवस्था बेहतर है

नि:संदेह उत्तर प्रदेश में पहले के मुकाबले कानून व्यवस्था भी बेहतर है और कम से कम संगठित अपराध नहीं है, लेकिन सवाल मुख्यमंत्री की घोषणा से आगे के हैं, क्योंकि फिल्म सिटी के लिए जमीन मुहैया करा देने मात्र से फिल्म सिटी स्थापित नहीं की जा सकती। ऐसी एक कोशिश 1980 के दशक में की गई थी, लेकिन राजनीतिक उपेक्षा, लचर कानून व्यवस्था, आवश्यक बुनियादी ढांचे के अभाव और फिल्म संस्कृति की गैरमौजूदगी में नोएडा की फिल्म सिटी सिर्फ समाचार चैनलों के दफ्तरों की जगह बनकर रह गई। कई बड़े फिल्म निर्माताओं ने नोएडा फिल्म सिटी की स्थापना के वक्त कम दाम में जमीन खरीदी और बाद में ऊंचे दाम पर बेचकर चलते बने।

नोएडा-ग्रेटर नोएडा में नई फिल्म सिटी की पहल स्वागतयोग्य है

नोएडा-ग्रेटर नोएडा में नई फिल्म सिटी की पहल स्वागतयोग्य है, लेकिन यह याद रखना चाहिए कि इस योजना के साए में भाई-भतीजावाद कम होने या फिल्म माफिया के नेस्तनाबूद होने का सपना देखना व्यर्थ है। वे अलग समस्याएं हैं, जो नई फिल्म सिटी बनने पर कुछ कम भले हों, समाप्त नहीं होंगी। फिल्म सिटी का संबंध नए अवसरों की उपलब्धता, रोजगार और अर्थव्यवस्था को बढ़ावा देने, बृज-अवधी-बुंदेलखंडी के साथ पंजाबी, हरियाणवी की फिल्मों के प्रसार और हिंदी पट्टी के युवाओं में उस संभावना का बीज बोने से अधिक जुड़ा है, जो मुंबई न पहुंच पाने के चलते अंकुरित ही नहीं हो पाता।

देश में हर साल 1500 से 2000 फिल्में बनती हैं

महत्वपूर्ण है कि देश में हर साल 1500 से 2000 फिल्में बनती हैं। कुल फिल्मों में 44 फीसद हिंदी की, 13 फीसद तमिल, 13 फीसद तेलुगु और पांच फीसद मलयालम की होती हैं। एक रिपोर्ट के मुताबिक भारतीय फिल्म बाजार 2024 तक 33 हजार करोड़ रुपये के आंकड़े को पार कर लेगा। शुरुआती वर्षों में कुल हिंदी फिल्मों का 8-10 फीसद काम भी उत्तर प्रदेश लाया जा सका तो अर्थव्यवस्था को पंख लगने के साथ विकास की नई इबारत लिखी जा सकती है।

सरकार को देनी होंगी फिल्म निर्माण संबंधी कारोबार को कई रियायतें

इस योजना को मूर्त रूप देने के लिए सरकार को जमीन आवंटन से इतर गुणवत्तापरक फिल्म शिक्षा को बढ़ावा देने, लैब से लेकर अन्य फिल्म निर्माण संबंधी कारोबार को विशेष रियायत देने, नए सिनेमाघर बनाने, क्षेत्रीय भाषा की फिल्मों के प्रदर्शन को सुनिश्चित करने और फिल्म निर्माण के लिए सब्सिडी की योजना को पारदर्शी एवं व्यापक बनाने का काम भी करना होगा। उत्तर प्रदेश से जुड़े फिल्मकारों को राज्य में लाने के लिए प्रेरित करना होगा। ऐसा नहीं है कि उत्तर प्रदेश में अभी फिल्में नहीं बन रहीं, लेकिन फिल्म सिटी का अर्थ है फिल्म निर्माण को संस्थागत बनाना। कुल मिलाकर फिल्म निर्माण से जुड़ी एक ऐसी फिल्म संस्कृति को विकसित करने के केंद्र में राज्य सरकार को स्वयं रहना होगा, अन्यथा एक बार फिर फिल्म सिटी अपने अर्थ खो देगी।

( लेखक पत्रकार एवं पटकथा लेखक हैं )

[ लेखक के निजी विचार हैं ]