समान नागरिक संहिता को लेकर विधि आयोग द्वारा जारी की गई प्रश्नावली के बाद उस पर व्याप्त राजनीतिक सन्नाटा सचमुच बेचैन करने वाला है। इस बारे में जो भी राय जाहिर की जा रही है वह मुख्यत: मुस्लिम धार्मिक और सामाजिक संगठनों द्वारा ही जाहिर की जा रही है और वह भी उनके पुरुष पदाधिकारियों द्वारा। ज्यादातर कह रहे हैं कि वे विधि आयोग की प्रश्नावली का जवाब ही नहीं देंगे। तीन तलाक के मामले में भी उनका यही रवैया है। चूंकि सरकार को तीन तलाक पर सर्वोच्च न्यायालय को अपनी राय देनी थी इसलिए उसने दे दी। इसे चाहे सरकार की आवाज कह लें या कि एक राजनीतिक दल की, अन्यथा तो ऐसा लग रहा है मानो इस मसले से राजनीतिक दलों का कोई सरोकार ही नहीं है। इससे भी बड़ी चिंता की बात यह है कि मुस्लिम समुदाय के हितों की रक्षा पर बनी राजनीतिक पार्टियां भी चुप नजर आ रही हैं। शुक्र है कि मीडिया का कि वह हरकत में है। यह स्थिति अपने आप में भारत में मुसलमानों की राजनीतिक चेतना व मुस्लिम राजनीतिक पार्टियों की राजनीतिक सच्चाई को बयान करती है। एक लोकतांत्रिक राष्ट्र में राजनीतिक एवं सामाजिक स्तर पर परस्पर विरोधी विचारों की उपस्थिति को एक जागृत समाज के रूप में लिया जाता है। राजनीति उसका नेतृत्व करती है। संकट उस समय उठ खड़ा होता है जब स्वयं राजनीति अन्य प्रभावशाली शक्तियों के नेतृत्व को स्वीकार कर लेती है। हमारे यहां की मुस्लिम राजनीति में यह प्रवृत्ति साफ तौर पर दिखाई दे रही है।
भारत में मुस्लिमों का राजनीतिक नेतृत्व दो तरह के राजनीतिक लोगों के हाथ में है। पहले में कांग्रेस, भाजपा, सपा, बसपा जैसे गैर-मुस्लिम दल हैं तो दूसरे में स्वयं मुस्लिम नेता हैं। मुस्लिम राजनीति का दुर्भाग्यजनक पक्ष यह रहा है कि जब इस समूह ने स्वयं को संगठित करके एक राजनीतिक संगठन के रूप में तब्दील किया तो उसी समय कांग्रेस ने खिलाफत आंदोलन में भाग लेकर राजनीति में धर्म को कुछ इस तरह शामिल करा दिया कि वह आज भी उससे उबर नहीं पा रही है। कांग्रेस ने ऐसा ही दूसरा बड़ा कदम 1986 में तब उठाया जब उसने शाहबानो को गुजारा भत्ता दिए जाने संबंधी सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय को रोकने के लिए संसद में अपने बहुमत का सहारा लिया। कांग्रेस को डर था कि कहीं न्यायालय के निर्णय से नाराज मुस्लिम मतदाता उससे भी नाराज न हो जाएं। हालांकि इसके बावजूद कांग्रेस अपनी रीति-नीति के कारण इस समुदाय का विश्वास खोती ही चली गई। कांग्रेस जैसा रवैया उन ज्यादातर गैर-मुस्लिम पार्टियों ने भी अपनाया जो कांग्रेस पर मुसलमानों के साथ तुष्टीकरण की नीति का खेल खेलने का खुलेआम आरोप लगाती रहीं। पहली बार ऐसा हुआ है कि भाजपा के मूल नेतृत्व वाली सरकार ने अब तक चली आ रही तुष्टीकरण की नीति के विरोध में जा एक प्रगतिवादी कदम उठाया।
जहां तक मुस्लिम राजनीतिक दलों का सवाल है, इनके तीन मुख्य बड़े संकट हैं। पहला यह कि इस देश में एक भी ऐसी मुस्लिम पार्टी नहीं है जिसका आधार राष्ट्रीय हो। इनका अस्तित्व केवल राज्य विशेष के एक खास इलाके तक सीमित है और वह भी बहुत थोड़ी सी प्रतीकात्मक सफलताओं के साथ। असदुद्दीन ओवैसी की चर्चित पार्टी आल इंडिया मजलिस ए इत्तेहादुल मुसलमीन 1927 की बनी पार्टी है। तेलंगाना विधानसभा में इसकी 7 सीटें हैं और महाराष्ट्र में केवल 2। लोकसभा में उसकी एक सीट है। जब यह पार्टी बिहार के पिछले विधानसभा चुनाव में शामिल हुई तो बिहार के मुस्लिम बहुल सीमांचल क्षेत्र तक ने इसे खारिज कर दिया। भले ही ऐसे राजनीतिक दल अपने उद्देश्यों में ‘सेक्युलर डेमोक्रेसी’ की बात करते हों, लेकिन उनकी राजनीति मूल मकसद अपने वर्ग के लोगों को तथाकथित धर्म की जकड़न में ही कैद रखना होता है। इसके फलस्वरूप हर छोटे-छोटे मामलों में लोगों को इस बात का भय दिखाया जाता है कि ‘इस्लाम और उसे मानने वालों का वजूद खतरे में है।’ सामाजिक एवं आर्थिक रूप से पिछड़ा यह वर्ग उनकी इन बातों को स्वीकार कर लेता है। यह इनका दूसरा संकट है। तीसरा संकट है धार्मिक नेताओं द्वारा अप्रत्यक्ष रूप से राजनीतिक एवं सामाजिक शक्तियों का संचालन करना। इसके कारण विचारों के स्तर पर नवउदारवादी विचारधारा के विकास और विस्तार की संभावनाएं न्यून हो जाती हैं तथा असगर अली इंजीनियर जैसे प्रगतिशील एवं तर्कवादी विचारकों को किनारे कर दिया जाता है। धर्म और राजनीति, दोनों ऐसे लोगों के खिलाफ एकजुट होकर खड़ी हो जाती है। 2013 में असगर अली के निधन के बाद इस बौद्धिक विमर्श की शून्यता को महसूस किया जा सकता है, लेकिन प्रकृति शून्यता को बर्दाश्त नहीं करती।
आजादी के बाद के इन 70 सालों की गहरी खामोशी, किंतु आंतरिक खदबदाहट के फलस्वरूप मुस्लिम समाज में से एक ऐसा नया उदारवादी नेतृत्व उभरकर सामने आया है, जिसकी शायद इन धार्मिक और राजनीतिक नेताओं ने कल्पना भी नहीं की होगी। यह महिलाओं का समूह है। सर्वोच्च न्यायालय में तीन तलाक के खिलाफ जनहित याचिका किसी पुरुष संगठन ने नहीं, मुस्लिम महिलाओं के संगठन ने दायर की है। हाजी अली दरगाह में महिलाओं के प्रवेश का आंदोलन भी मुस्लिम महिलाओं के संगठन का था। भारतीय मुस्लिम महिला आंदोलन का फैलाव पूरे देश में हो रहा है। बड़ी बात यह है कि यह आंदोलन अपनी बातों को पूरे समाजशास्त्रीय तर्कों एवं तथ्यों के आधार पर रखता है। मुस्लिम फॉर सेक्युलर डेमोक्रेसी के मुस्लिम महिला अधिकार नेटवर्क की शाखाएं पूरे देश में, यहां तक कि विदेशों में भी खुल चुकी हैं। इसने 2013 में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा धारा 377 (समलैंगिकता) के बारे में दिए गए निर्णय के प्रति भी असहमति व्यक्त की थी। ऐसे संगठनों में ही मुस्लिम समाज के नए चेहरे की झलक दिख रही है। ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड जैसों को इस तरह के समूह फूटी आंख नहीं सुहा रहे। होना तो यह चाहिए कि शिक्षित मुस्लिम युवकों के साथ समस्त प्रगतिशील ताकतें मुस्लिम महिला समूहों का समर्थन करें, लेकिन विडंबना यह है कि ज्यादातर दल इस नए नेतृत्व का साथ देने में हिचक रहे हैं। वे चुप्पी साधकर एक तरह से यथास्थिति को ही अपनी स्वीकृति दे रहे हैं।
[ लेखक डॉ. विजय अग्रवाल, भारतीय प्रशासनिक सेवा के पूर्व अधिकारी एवं स्तंभकार हैं ]