[ए. सूर्यप्रकाश]। प्रतिभाशाली अभिनेता सुशांत सिंह राजपूत के असमय निधन ने लोगों को शोकाकुल करने के साथ ही कई सवाल भी खड़े कर दिए हैं जो अभी भी पूछे जा रहे हैं। जिन रहस्यमयी परिस्थितियों में उन्होंने आत्महत्या की उसके बाद से बॉलीवुड में कायम गलत परंपराओं पर तीखी बहस छिड़ गई है। इससे फिल्म जगत में रिश्तों के तानेबाने, वर्चस्व और बाहरियों यानी गैर-फिल्मी पृष्ठभूमि वालों के साथ होने वाले खराब सुलूक को लेकर सवालिया निशान लगे हैं।

जहां मुंबई पुलिस सुशांत की मौत के कारणों की जांच में जुटी है वहीं कंगना रनोट ने अपने बयानों से खलबली मचा दी है। सुशांत और कंगना दोनों बॉलीवुड में बाहरी हैं, जिन्हें अपना मुकाम बनाने के लिए खूब संघर्ष करना पड़ा। एक साक्षात्कार में कंगना ने मुंबई में बॉलीवुड माफिया और उसके द्वारा नेपोटिज्म यानी भाई-भतीजावाद को बढ़ावा देने की बात कहकर एक तरह बर्र के छत्ते में हाथ डाल दिया। इससे बॉलीवुड की कीचड़ सामने आने के साथ ही पक्षपात का मुद्दा भी मुख्यधारा में आ गया।

नेपोटिज्म की जड़े हैं बहुत गहरी

बॉलीवुड माफिया के खिलाफ एक आरोप तो यह है कि यह प्रतिभाशाली होने के बावजूद बाहरियों को फिल्म उद्योग से बेदखल करने और फिल्मी सितारों के औसत प्रतिभा वाले बच्चों को बढ़ावा देता है। यह विडंबना ही है कि मुंबई के सिने जगत का जो सच है वही लुटियन की दिल्ली और देश के अन्य इलाकों की भी हकीकत है। नेपोटिज्म की जड़ें इतनी गहरी हो गई हैं कि अब यह हमारे जीवन का हिस्सा बन गया है। भले ही इस पर विमर्श देर से शुरू हुआ, पर उसकी पड़ताल जरूरी है, क्योंकि यह उस लोकतांत्रिक धर्म का उल्लंघन करता है जिसमें सभी को समान अवसर देने की बात होती है। 

नेपोटिज्म को लेकर कंगना ने उठाए सवाल

कंगना के मुख्य निशाने पर निर्माता निर्देशक करण जौहर हैं। हालांकि जौहर ने फिल्म उद्योग में ऐसे किसी चलन से इन्कार किया है। उनका कहना है कि चूंकि यह पूरा मामला व्यावसायिक हितों से जुड़ा है अत: कोई निर्माता किसी फिल्मी सितारे के बेटे-बेटी को लांच करते हुए ज्यादा सहज महसूस करता है। वह कहते हैं कि किसी फिल्मी सितारे के बेटे को आसानी से चर्चा मिल जाती है और इससे जोखिम कम हो जाता है, क्योंकि दांव पर तो रकम ही लगी हुई होती है।

राजनीति में भी हावी है भाई-भतीजावाद

दूसरे शब्दों में नेपोटिज्म के दायरे में निर्माता अधिक सुरक्षित महसूस करते हैं। क्या यही बात राजनीति के बारे में भी सच नहीं है? संसदीय चुनावों में पार्टियों द्वारा टिकट वितरण पर गौर करें तो आपको महसूस होगा कि जुड़ाव कितना मायने रखता है। आजादी के बाद सात दशकों से यही रीत चली आई है। असल में भाई- भतीजावाद की जड़ें इतनी गहरी हैं कि एक वक्त देश की कमान संभालने वाले नेताओं के पोते-पड़पोते तक उन निर्वाचन क्षेत्रों और लुटियन दिल्ली के बंगलों पर अपना जन्मसिद्ध अधिकार समझते हैं जिनसे कभी उनके पूर्वजों का जुड़ाव था। इन बंगलों के प्रति उनकी आसक्ति इतनी बढ़ जाती है कि एक वक्त के बाद वे भूल जाते हैं कि ये सार्वजनिक संपत्ति हैं। अगर वे उनमें निवास नहीं करते तो यह मांग करने लगते हैं कि उन्हें संग्रहालय बना दिया जाए।

नेहरू-गांधी परिवार में भाई-भतीजावाद

नेहरू-गांधी परिवार हमारी राष्ट्रीय राजनीति और लुटियन दिल्ली में वंशवाद और साथ ही भाई-भतीजावाद का वास्तविक प्रणेता है। इसकी शुरुआत प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के जमाने से ही हो गई थी, जिन्होंने 1959 में पुत्री इंदिरा गांधी को कांग्रेस अध्यक्ष बनवाया। उसके बाद जो हुआ उससे हम सभी भलीभांति परिचित हैं। इस परिवार से एक के बाद एक प्रधानमत्री बनते गए। हमारा लोकतांत्रिक संविधान कमजोर होता गया और ऐसा महसूस होने लगा कि भारत वास्तव में एक राजतंत्र है।

2014 में मिली चुनौती

जैसे-जैसे यह परिवार स्वयं को मजबूती से स्थापित करता गया वैसे- वैसे उसने अपने रिश्तेदारों और मित्रों को बढ़ावा देना शुरू किया। नेहरूवादी विचार का वर्चस्व बढ़ा तो महत्वाकांक्षी नौकरशाह, अकादमिक, विचारक, कलाकार, मीडिया पेशेवर और कारोबारी उसका हिस्सा बनते गए। उन्हें महसूस हुआ कि इस कारवां का हिस्सा बनकर ही वे अपने-अपने क्षेत्रों में सिरमौर बन सकते हैं। कांग्रेस पार्टी के पूर्ण वर्चस्व वाले दौर में वही संसद पहुंचे जो इस वैचारिक बिरादरी का हिस्सा थे। इस परिवार ने अपने चाटुकारों के बच्चों को आगे बढ़ाकर अपने इस वंशवादी रवैये को सार्वभौमिक बनाया। मई 2014 में नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने तक इस ढांचे को चुनौती नहीं मिली थी। उन्होंने इस ढांचे को तोड़ा और लुटियन की दिल्ली में सभी के लिए एकसमान परिदृश्य बनाने की ओर उन्मुख हुए। बॉलीवुड में यही काम कंगना कर रही हैं।

कंगना ने बॉलीवुड के खतरनाक पहलुओ की ओर किया संकेत 

कंगना हिंदी फिल्म उद्योग में शर्मनाक तरीके से भाई-भतीजावाद को बढ़ावा देने वालों और प्रतिभाशाली बाहरियों की उपेक्षा करने वालों को बेखौफ ललकार रही हैं। कंगना ने बॉलीवुड के कुछ बेहद खतरनाक पहलुओं की ओर संकेत किया है, जैसे कि एक नामचीन बॉलीवुड निर्देशक ने सुशांत से कहा था कि वह बहाव के साथ बह नहीं रहे, बल्कि डूब रहे हैं। बॉलीवुड में दिग्गज सितारों द्वारा सार्वजनिक मंच या अवॉर्ड समारोहों में नए कलाकारों का मजाक उड़ाकर उन्हें असहज करना बहुत आम है।

अच्छी फिल्मों के बावजूद सुशांत से बॉलीवुड ने किया किनारा 

सुशांत की जिंदगी बिहार में र्पूिणया जिले के एक गांव से शुरू हुई। वह भौतिकी में नेशनल ओलंपियाड विजेता रहे। इंजीनियरंग प्रवेश परीक्षा में भी टॉपर रहे। गणित और अंतरिक्ष विज्ञान से लेकर नृत्य, संगीत और सिनेमा में उनकी गहरी दिलचस्पी थी। क्या वह बॉलीवुड के लिए कुछ ज्यादा ही बौद्धिक थे जहां कई सितारों ने अपने लचर अकादमिक रिकॉर्ड को भी अपनी थाती बताया। ‘छिछोरे और ‘एमएस धौनी’ में सुशांत ने बहुत संवेदनशीलता और समर्पण के साथ अपने किरदारों को जीवंत किया। आखिर ऐसी प्रतिभा को प्रोत्साहन देने के बजाय बॉलीवुड ने उसे किनारे क्यों लगा दिया?

अगर फिल्म उद्योग में कोई माफिया या यूं कहें कि स्थापित सितारों का एक गिरोह सक्रिय है तो उसकी पहचान कर उस पर प्रहार किया जाना चाहिए। कंगना ने जो सवाल उठाए हैं उन पर गंभीर विमर्श के साथ ही उनका समाधान करना होगा। यदि सुशांत के बलिदान को व्यर्थ जाने से रोकना है तो बॉलीवुड का लोकतांत्रीकरण करने के साथ ही उसमें सभी के लिए समान अवसर सृजित करना होगा। यह तभी संभव है जब सुशांत के मसले पर उपजा राष्ट्रीय आक्रोश एक राष्ट्रीय आंदोलन में बदले।

(लेखक लोकतांत्रिक विषयों के जानकार एवं वरिष्ठ स्तंभकार हैं)