अमिय भूषण। नेपाल के विदेश मंत्री प्रदीप ग्यावली आज भारत आ रहे हैं। नेपाली संसद भंग किए जाने के फैसले के बाद से नेपाल में गहराए राजनीतिक संकट के बीच नेपाल की कार्यवाहक सरकार के विदेश मंत्री की यह यात्र संबंध सुधार की कोशिशों से आगे की यात्र है। नेपाल की संप्रभुता और आंतरिक राजनीति को जिस समय बीजिंग अपनी हरकतों से चोटिल कर रहा हो, ठीक उसी समय नेपाली विदेश मंत्री का भारत की आधिकारिक यात्र पर होना महज संयोग भर नहीं है।

भारत में नेपाल संबंधी चर्चा के कई कारण और भी हैं। एक कारण हालिया प्रकाशित पुस्तक द प्रेसिडेंशियल ईयर्स भी है। इस पुस्तक के लेखक भारत के पूर्व राष्ट्रपति डॉ. प्रणब मुखर्जी हैं। दिवंगत डॉ. प्रणब मुखर्जी ने इस किताब में देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के नेपाल संबंधी एक महत्वपूर्ण निर्णय का जिक्र करते हुए लिखा है कि नेपाल के तत्कालीन महाराजा त्रिभुवन शाहदेव ने जवाहरलाल नेहरू को नेपाल विलय का प्रस्ताव दिया था, लेकिन नेहरू ने उस समय इसे अस्वीकार कर दिया। तब प्रधानमंत्री रहे नेहरू के इस निर्णय को प्रणब मुखर्जी एक अपरिपक्व और अदूरदर्शी कदम मानते हुए लिखते हैं, यदि नेहरू की जगह उस समय इंदिरा प्रधानमंत्री होतीं, तो नेपाल भारत का हिस्सा होता, और तब नेपाल न तो आज की तरह अस्थिर होता और न ही भारत विरोधी गतिविधियों का केंद्र होता। डॉ. मुखर्जी सिक्किम पर लिए गए पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के सही निर्णय की भरपूर प्रशंसा करते हैं।

नेपाल में राजनीतिक अस्थिरता : इस बीच नेपाल में तेजी से बदल रहे घटनाक्रम के तहत नई दिल्ली की वाजिब चिंता को समझना जरूरी है। नेपाल में इस समय तीन पक्ष हैं जो अपने अपने हिसाब से प्रतिक्रिया दे रहे हैं- लोकतंत्रवादी, राजशाही समर्थक और न्यायपालिका। लोकतंत्रवादियों के भीतर भी तीन और पक्ष हैं, एक की पहचान वामपंथी धड़े की है, दूसरे की नेपाली कांग्रेस की है तो तीसरे की पहचान जसपा यानी जनता समाजवादी पार्टी की है। सशक्त जसपा का उदय सभी मधेश पार्टयिों के विलय से हुआ है। इन तीनों पक्षों के भीतर गतिरोध भी पुरजोर है, सबके अपने हित और अपने उद्देश्य हैं। वामपंथी धड़ा ओली और प्रचंड के बीच दो ध्रुवीय है, इनके बीच की दूरी ओली के संसद भंग के निर्णय और चीनी अंतरराष्ट्रीय विभाग मंत्री गुओ येझु के दौरे के बाद और गहरी हो चुकी है।

प्रचंड समूह फिलहाल संसद की बहाली और ओली की विदाई की प्रतीक्षा में है। वहीं ओली अपनी स्थिति को मजबूत करने में लगे हैं। राजनीतिक तौर पर अभी पूरा नेपाल इसी में बंटा है। नेपाली कांग्रेस का रामचंद्र पौडेल खेमा जहां एक ओर संसद भंग के फैसले को असंवैधानिक करार देते हुए ओली का मुखर विरोध कर रहा है, वहीं दूसरी ओर पूर्व प्रधानमंत्री शेर बहादुर देउबा का खेमा ओली से जुड़े तमाम प्रकरणों पर फिलहाल चुप्पी साधे हुए है। चुनावों की आहट के बीच नेपाली कांग्रेस जब पौडेल खेमे की वजह से सड़क पर प्रदर्शन का हिस्सा बना है, तब भी सदन बर्खास्तगी के मसले पर प्रतिक्रिया बेहद संतुलित है। मधेसी प्रभाव वाले जसपा की स्थिति भी कमोबेश ऐसी ही है। एक ओर पूर्व विदेश मंत्री उपेंद्र यादव और उनसे हाल ही में जुड़े पूर्व प्रधानमंत्री बाबूराम भट्टराई वाला माओवादी धड़ा ओली का विरोध करता दिख रहा है तो वहीं राजेंद्र महतो धड़े में ओली के लिए संतुलन की नीति दिख रही है।

राजतंत्र समर्थक समूह फिलहाल हिंदू राष्ट्र की मांग और पुराने राजशाही की बहाली के पक्ष में सड़कों पर प्रदर्शन कर रहा है। राजशाही समर्थक समूह का वैसे भी नए नेपाली संविधान से बहुत कुछ लेना देना नहीं है। नेपाल के नए संविधान पर पैनी नजर रखने वाले मानते हैं कि नेपाल के पहाड़ों में गणतंत्र के प्रति पहले से भी निष्ठा या आग्रह नहीं के बराबर है। पहाड़ का मानस इस बात से इत्तेफाक रखता है कि इस संविधान और उसके प्रविधानों के नाते नेपाल अपने पुराने हिंदू राष्ट्र की पहचान को खो कर एक नया धर्मनिरपेक्ष राज्य बन चुका है। वैसे राजशाही के पक्षधर भी उसकी उन कमियों को भी स्वीकार करते हैं जो जगजाहिर है, मसलन राजशाही का खुलकर सामने न आना या फिर उसके भीतर नेतृत्व का अभाव होना। इतना ही नहीं, राजशाही समर्थक आंदोलन का नेतृत्व अपरिपक्व और गैर राजनीतिक लोगों के हाथों में होना भी राजशाही के पक्षधरों को निराश करनेवाला है। साथ ही राजतंत्र के मसले पर मुख्य राजनीतिक दलों का मुखर विरोध व राजनीतिक रूप से परिपक्व सामाजिक कार्यकर्ताओं का अभी तक लोकतंत्र में गहरा विश्वास होना, राजतंत्र के प्रयासों को रोकने के लिए पर्याप्त है।

सर्वोच्च अदालत के फैसले का इंतजार : न्यायपालिका की साख फिलहाल दांव पर है। मुख्य न्यायाधीश सहित पूरे पैनल पर प्रधानमंत्री ओली से संबद्धता के आरोप लगाए जा रहे हैं। नेपाली संविधान की रोशनी में प्रधानमंत्री ओली के संसद भंग का फैसला कितना सही या गलत था, इस पर अंतिम फैसला नेपाल की सर्वोच्च अदालत को करना है। इस फैसले का असर अदालत की प्रासंगिकता और प्रामाणिकता पर भी होगा। इस बीच संसद भंग के फैसले पर नेपाली सुप्रीम कोर्ट की गतिशीलता को लेकर भी कई सवाल लगातार खड़े किए जा रहे हैं।

वामपंथी धड़े के नेता पुष्प कमल दहल यानी प्रचंड फिलहाल चीन के विश्वस्त दिख रहे हैं, बावजूद इसके वह हतप्रभ हैं, साथ ही ओली की सियासी चाल से आहत भी हैं। यही वजह है कि प्रचंड चीनी प्रतिनिधिमंडल की वापसी की प्रतीक्षा किए बिना ही सड़कों पर देशव्यापी प्रदर्शनों द्वारा माहौल बना रहे हैं। साथ ही भारत से नेपाली संसद की बहाली के लिए हस्तक्षेप की मांग कर रहे हैं। ओली सरकार के विदेश मंत्री के भारत दौरे की खबर से परेशान प्रचंड अब से दो सप्ताह पूर्व ही भारत के दौरे पर आकर स्वदेश लौट चुके हैं। वैसे प्रचंड की यह यात्र घोषित तौर पर पत्नी के चिकित्सीय कारणों को लेकर थी, फिर भी जानकार मानते हैं कि काठमांडू से दिल्ली होते हुए मुंबई पहुंचे प्रचंड के भारत दौरे में अघोषित कारण भी मौजूद था।

ओली की मंजे राजनेता की पहचान : नेपाल के कार्यवाहक प्रधानमंत्री ओली के दोस्त फिलहाल नेपाल के सभी दलों में हैं। लोकतंत्रवादी के अलावा राजशाही समर्थकों के बीच भी ओली लोकप्रिय हैं। वास्तव में ओली एक मास्टरमाइंड नेता हैं। एक ओर नए चुनावों के द्वारा एक सशक्त चुनी हुई सरकार की बात करते हैं, तो वहीं आपसी सहमति के आधार पर बनी सरकार और सदन को अचानक भंग करने का फैसला करते हैं। इतना ही नहीं, इस फैसले की आड़ में समस्त अधिकारों को अपने अधीन करते हैं। मंत्रिपरिषद में बदलाव कर केवल अपने विश्वस्त लोगों के हाथों में ही मंत्रलयों की कुंजी रखते हैं। ओली कभी मधेश मुद्दे को भटकाने के लिए दोषी करार दिए जाते थे, लेकिन आजकल उनके समर्थन में काठमांडू की सड़कों पर धोती साड़ी पहने गमछा ओढ़े मधेशी समुदाय के लोग मैथिली भोजपुरी में नारे और तख्ती के साथ जुलुस निकाल रहे हैं।

चीन से आहत नेपाली जनमानस : नेपाल की संप्रभुता पर चीनी चोट से नेपाल का जन-मन इन दिनों खासा आहत है। संसद भंग के बाद राजनीतिक अस्थिरता के दौर से गुजर रहे नेपाल की अस्मिता से चीन ने शर्मनाक खिलवाड़ किया है। काठमांडू के कपार पर जबरन सवार होने आए बीजिंग के प्रतिनिधिमंडल का नेपाल की जमीन पर विरोध चीन के लिए सबक और भारत के लिए नेपाल के बदलाव का संकेत है। चीन की कम्युनिस्ट पार्टी के मंत्री गुओ येझु के नेतृत्व वाले चीनी प्रतिनिधिमंडल के अवांछित काठमांडू दौरे और नेपाल के आंतरिक मामलों में जबरन दखल की कोशिश पर नेपाली अवाम की लानत मलानत नेपाली के जागरण का प्रमाण है। नेपाल की जमीन चोरी पर चीन के खिलाफ चला आया छिटपुट विरोध अब प्रदर्शनों में बदल गया है। नेपाली राष्ट्रीय अस्मिता जाग चुकी है और चीन के प्रति विरोध जनमानस में बढ़ा है।

नेपाल एक बार फिर भारत के संदर्भ में कई कारणों से सुर्खियों में है। हालिया घटनाक्रम के तौर पर नेपाली विदेश मंत्री प्रदीप ग्यावली की भारत यात्र चर्चा के केंद्र में है। तीन दिनों की आधिकारिक यात्र पर आज भारत पहुंच रहे नेपाली विदेश मंत्री की यह यात्र कई लिहाज से महत्वपूर्ण है। आधिकारिक तौर पर भले ही इस यात्र का एकमेव कारण भारत नेपाल संयुक्त आयोग की छठी बैठक में शामिल होना बताया गया है, परंतु इस दौरे में कुछ अन्य कारक और संकेत भी निहित हैं।

[भारत-नेपाल संबंध मामलों के जानकार]