[अन्नपूर्णा नौटियाल]। करीब साढ़े तीन दशकों की लंबी प्रतीक्षा के बाद देश को नई शिक्षा नीति (NEP) की सौगात मिली है। इसे तैयार करने में जितने अधिक अंशभागियों का सहयोग मिला वह अपने आप में एक मिसाल है। यह कवायद देश में जीवंत लोकतंत्र का प्रतीक है। शुरुआती दस्तावेज तैयार करना और उन पर आए सुझावों का संकलन कर उसे नीति का रूप देना बिल्कुल भी आसान काम नहीं था, लेकिन प्रधानमंत्री और शिक्षा मंत्री के नेतृत्व में इसे अंजाम दिया गया। आमूलचूल बदलावों वाली इस नीति को तैयार करने में पांच वर्षों तक जमीनी स्तर पर जो काम हुआ वह खासा चुनौतीपूर्ण था।

मौजूदा 10+2+3+2 ढांचे के स्थान पर 5+3+3+2 की मल्टी एंट्री और एग्जिट वाली नई रूपरेखा नवाचारी एवं महत्वाकांक्षी होने के साथ तमाम चुनौतियों से भी भरी है। कौशल मापन, व्यावसायिक शिक्षा, समानता, गुणवत्ता, विभिन्न धाराओं की शिक्षा, स्थानीय एवं वैश्विक मिश्रण, समावेशी एवं द्विपक्षीय समझ, विश्लेषणात्मक समझ का विकास, बस्ते का हल्का बोझ, शिक्षा जोन, कम पाठ्यक्रम, अन्वेषण पर जोर, चर्चा, विमर्श, शोध एवं नवाचार पर ध्यान, कॉलेजों को स्वायत्तता और शुरुआती दौर में बेहतर पढ़ाई के लिए मातृभाषा में अध्ययन वास्तव में बहुत अच्छे विचार हैं।

विकसित समाज काफी पहले इन पहलुओं को शिक्षा प्रणाली में जोड़ चुके

अमूमन सभी नीतियां भली मंशा के साथ तैयार की जाती हैं, लेकिन फर्क इसी बात से पड़ता है कि उन्हें कैसे लागू किया जाता है? विकसित समाज काफी पहले ही इन पहलुओं को अपनी शिक्षा प्रणाली में जोड़ चुके हैं। सभी यूरोपीय देश और यहां तक कि चीन और इजरायल न केवल अपनी स्कूली शिक्षा, बल्कि उच्च शिक्षा को भी अपनी मातृभाषा में सुनिश्चित कर चुके हैं जिससे उनकी मातृ भाषा में ही बेहतर पाठ्य सामग्री और संसाधन उपलब्ध हैं। साथ ही उन्हें अंग्रेजी सीखने से भी गुरेज नहीं होता जो न केवल वैश्विक अनुभव के लिए आवश्यक, बल्कि एक अतिरिक्त लाभ भी है।

छात्रों को छेड़नी पड़ी मुहिम

संदेह नहीं कि अपनी मंशा और विषयवस्तु में एनईपी काफी बढ़िया है, लेकिन वास्तविक चुनौती उसे मूर्त रूप देने की होगी। ऐसा इसलिए, क्योंकि तमाम दमदार नीतियों ने लचर क्रियान्वयन के कारण दम तोड़ दिया। अधिकांश उच्च शिक्षण संस्थानों से अभी भी मुख्य रूप से बेरोजगार युवाओं का रेला ही निकल रहा है। उनकी डिग्री में वैल्यू एडिशन से भी उन्हें उत्पादक बनाने में मदद नहीं मिली। 2017 में लागू विकल्प आधारित क्रेडिट सिस्टम शैशवकाल में है और तमाम संकाय और छात्र अभी तक उसकी जटिलताओं से परिचित नहीं हैं। इसके प्रति असंतोष इतना बढ़ गया कि छात्रों को इसके खिलाफ मुहिम तक छेड़नी पड़ी। परिणामस्वरूप कई राज्यों ने सेमेस्टर प्रणाली के स्थान पर वही पुरानी वार्षिक परिपाटी वाली परंपरा ही अपना ली। यह गड़बड़ी इसी कारण हुई कि एक तो इसे सीधे ऊपर से थोपा गया और दूसरे नई प्रणाली के लिए आवश्यक ढांचा भी तैयार नहीं हुआ।

एनईपी को लागू करना होगा टेढ़ी खीर 

चूंकि भारत एकसमान शैक्षणिक प्रणाली लागू करना बहुत ही मुश्किल काम है, ताकि प्रत्येक छात्र को एक जैसी शिक्षा और सुविधाएं मिल सकें। ऐसी स्थिति में एनईपी को लागू करना टेढ़ी खीर होगा। सबसे महत्वपूर्ण कदम तो यही होगा कि क्या सोचना है के बजाय कैसे सोचना है वाला बदलाव आकार ले। यदि गुणवत्ता बढ़ाने वाले कदमों पर जोर दिया जाए तो आत्मप्रेरणा के साथ तंत्र से मिलने वाला प्रोत्साहन एनईपी के लक्ष्यों को आसान बना देगा। शीर्ष से संचालित होने वाली व्यवस्था मुख्य रूप से नौकरशाही वाली ही है। वह निगरानी और नियंत्रण के लिए तो सही है, पर शिक्षा और शोध में अंतर की खाई को पाटने में मददगार नहीं।

स्कूली शिक्षा प्रणाली में करने होंगे व्यापक परिवर्तन

एनईपी को नौकरशाही के साथ ही आधिकारिक ढांचे को भी बदलना होगा जिसके कारण अक्सर प्रक्रियाओं में देरी होने के साथ प्रगति की राह अवरुद्ध होती है। नीचे से ऊपर की ओर चलने वाली प्रक्रिया कहीं अधिक उपयोगी होगी, क्योंकि एनईपी का लक्ष्य प्राथमिक से लेकर माध्यमिक और उच्च शिक्षा तक को समाहित करना है जिसके लिए स्कूली शिक्षा प्रणाली में व्यापक परिवर्तन करने होंगे और ऐसे अध्यापकों और अन्य र्किमयों को प्रशिक्षण देकर उनका एक वर्ग तैयार करना होगा जो पूरी तरह शिक्षा को सर्मिपत हों।

पर्याप्त शिक्षक और बुनियादी ढांचा होंगे जरूरी

शुरुआत से नब्ज पकड़ने के लिए प्राथमिक स्तर पर परिवर्तन और एकसमान तंत्र का विकास इसमें जीत की कुंजी होंगे। साथ ही प्राथमिक स्तर पर कौशल मापन के लिए भारी संख्या में प्रशिक्षित शिक्षकों या प्रशिक्षकों की भी आवश्यकता होगी जिनके अभाव में यह लक्ष्य अधूरा रह जाएगा। अध्ययन की धाराओं को लचीला बनाना और मानविकी, संगीत, कला, साहित्य और सामाजिक विज्ञान पर जोर देने की रणनीति स्वागतयोग्य है, पर इसके लिए सभी छात्रों की क्षमता और कौशल विकास भी आवश्यक है। ऐसे परिवर्तन को साकार करने के लिए पर्याप्त शिक्षक और बुनियादी ढांचा जरूरी होंगे।

अधिकांश संस्थानों की गुणवत्ता का सवाल सतह पर होने के चलते ही प्रधानमंत्री ने एनईपी को लागू करने में मानव संसाधनों के लिए रोडमैप, टाइमलाइन, संसाधनों और गुणवत्ता की स्पष्ट रूप से चर्चा की है। वह यह कहने से भी नहीं हिचके कि यह केवल एक सरकारी आदेश बनकर नहीं रहना चाहिए, बल्कि इसे सार्वजनिक रूप से साझा किया जाए ताकि शिक्षा के क्षेत्र में व्यापक बदलाव आ सकें जो वैश्विक शिक्षा तंत्र के साथ प्रतिस्पर्धा करने के साथ ही एक्सेस, समानता और गुणवत्ता के लक्ष्यों को समग्र दृष्टिकोण के साथ पूरा करे। अब गेंद शिक्षा मंत्रालय और यूजीसी के पाले में है। हालांकि इससे जुड़े प्रत्येक अंशभागी का भी यह दायित्व है कि वह नीति के सभी पहलुओं को समझकर उसे मूर्त रूप देने के लिए एक व्यावहारिक, वास्तविक और लालफीताशाही से मुक्त कार्ययोजना तैयार करे।

(लेखिका एचएनबी गढ़वाल विश्वविद्यालय की कुलपति हैं)