[ गुरजीत सिंह ]: हर नए साल के साथ यह उम्मीद भी परवान चढ़ती है कि यह बीते हुए वर्ष से बेहतर होगा। बीते साल भी अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रंप का अप्रत्याशित रवैया कायम रहा जिसमें उन्होंने सीरिया के अलावा अफगानिस्तान से अमेरिकी सेना की आंशिक वापसी का फैसला किया। भारत के लिहाज से अफगानिस्तान की स्थिति काफी चिंतित करने वाली है, क्योंकि उसकी चिंताओं पर न तो उसका सदाबहार दोस्त रूस और न ही नया-नवेला मित्र अमेरिका ध्यान दे रहा है। भले ही अभी भी साढ़े सात हजार से अधिक अमेरिकी सैनिक अफगानिस्तान में तैनात रहेंगे, लेकिन अमेरिका जिन हालात में यहां से कदम पीछे खींच रहा है उससे कुछ प्रश्न खड़े होते हैं। जब फौज वापस चली जाएगी और अमेरिकी भूमिका घट जाएगी तब क्षेत्रीय भू-राजनीति ही केंद्र में आ जाएगी जिसमें नए खिलाड़ी उभरेंगे जो पुराने महा-मुकाबले के नए वारिस हैं।

19वीं शताब्दी में कुछ अंग्रेज सैन्य और राजनीतिक अधिकारी इस मुकाबले के सूत्रधार थे। आर्थर कोनोली, ओलाफ कैरो और रुडयार्ड किपलिंग जैसे दिग्गजों ने इस दांव का समर्थन किया था। इसे जार शासित रूस की कुंठा का जवाब माना गया जो अफगानिस्तान और ब्रिटिश भारत में घुसपैठ के माध्यम से अरब सागर तक पहुंचना चाहता था। रूसियों को ब्रिटिश भारतीय प्रभाव और व्यापार मार्गों की ज्यादा परवाह थी जो अफगानिस्तान से मध्य एशिया तक जाते थे। ऐसे में अफगानिस्तान इस महा-मुकाबले के केंद्र में था जिसके दो छोरों पर ब्रिटिश भारत और रूस प्रतिद्वंद्वियों की तरह थे।

आज अफगानिस्तान के साथ ही हिंद-प्रशांत क्षेत्र भी महा-मुकाबले का अखाड़ा बना हुआ है। इसमें ब्रिटिश भारत के उत्तराधिकारी भारत और पाकिस्तान के अलावा सोवियत संघ से अलग हुए मध्य एशियाई देश प्रमुख खिलाड़ी हैं। ईरान की भूमिका का भी विस्तार हुआ है, लेकिन इसमें सबसे अहम पहलू चीन का उभार है जिसका 19वीं शताब्दी में तिब्बत और शिनजियांग में ऐसा प्रभाव नहीं था कि वह इस मुकाबले का खिलाड़ी बन सके। वर्ष 1979 में अफगानिस्तान में सोवियत संघ के हमले के बाद यहां हालात काफी बदले। मसलन अपने रणनीतिक हितों को लेकर पाकिस्तान की सक्रियता, चीन की बढ़ती पैठ और ईरान के अलावा मध्य एशियाई देशों के आग्र्रह।

आज भारत की भौगोलिक सीमा भले ही अफगानिस्तान से न लगती हो, लेकिन अफगानिस्तान के विकास में उसका अहम योगदान बना हुआ है। लिहाजा विभाजन के बाद भारत भी इस नए महा-मुकाबले का खिलाड़ी बन गया है, क्योंकि अफगानिस्तान में पाकिस्तान और चीन का प्रभाव उसके लिए चिंता का सबब है जिसके लिए सक्षम कूटनीति की दरकार होगी।

मूल महा-मुकाबले की ही भांति इसके नए संस्करण में भी अरब सागर और दक्षिण हिंद महासागर तक पहुंच बनाने की लड़ाई ही अहम मसला है। अब इसका स्वरूप बदला है जिसमें अवसर भुनाने की तैयारी भी हो गई है। भारत जिस चीन-पाकिस्तान आर्थिक गलियारे यानी सीपैक का विरोध कर रहा है वह चीन के शिनजियांग प्रांत को पाकिस्तान में ग्वादर बंदरगाह के जरिये अरब सागर से जोड़ता है।

इसी तरह भारत भी चाबहार बंदरगाह पर दांव लगाने के साथ ही नॉर्थ साउथ ट्रांसपोर्ट कॉरिडोर विकसित कर रहा है जो ईरान को अफगानिस्तान के रास्ते मध्य एशिया तक जोड़ता है। इससे चारों ओर स्थलीय सीमा से घिरे मध्य एशियाई देशों के लिए ईरानी बंदरगाहों के उपयोग से नए अवसरों की राह खुलेगी। भारत ने अफगानिस्तान में जिस शानदार बुनियादी ढांचे का विकास किया उसकी सफलता गाथा की चर्चा कम ही हुई है जबकि यह काम भारत की कुख्यात सुस्ती के उलट बहुत तेजी से हुआ है।

नॉर्थ साउथ कॉरिडोर को अफगानिस्तान में शांति और स्थायित्व की दरकार है। इसमें भारत के अपने हित भी हैं और यही वजह है कि वहां अमेरिकी मौजूदगी अभी भी अहम है। अगर वहां तालिबान सरकार की वापसी होती है तो भारत के लिए गुंजाइश कम होगी और बुनियादी ढांचे का काम भी प्रभावित होगा। चीन और पाकिस्तान के हित में यही है कि वे अपने रणनीतिक हितों की पूर्ति के लिए तालिबान को सत्ता में लाएं और भारतीय प्रभाव को घटाएं, क्योंकि इस महा-मुकाबले में भारत ही तालिबान का सबसे मुखर विरोधी है। रूस इस मामले में चीन की राह चल रहा है, मगर यूरोप को लेकर वह अपनी पहेली में उलझा हुआ है।

ईरान जरूर एक सक्रिय खिलाड़ी है, लेकिन अमेरिकी प्रतिबंधों ने उसके भी हाथ बांध दिए हैं। इससे उसके लिए चाबहार की अहमियत काफी बढ़ गई है, लेकिन विदेशी मुद्रा के संकट से निपटने के लिए उसे भारत जैसे सहयोगियों की जरूरत होगी जो उसके बंदरगाह और कॉरिडोर के संचालन में अपनी भूमिका को और प्रभावी बना सकें।

नए महा-मुकाबले में अरब सागर और दक्षिण हिंद महासागर प्रतिद्वंद्विता के नए बिंदु बनकर उभरे हैं। जहां चाबहार और ग्वादर जैसे बंदरगाह एक ही समुद्र से जुड़े हैं वहीं हिंद महासागर में स्थित श्रीलंका, मालदीव, सेशेल्स और मॉरीशस जैसे द्वीपों में चीन की आर्थिक और सैन्य पकड़ मजबूत होती जा रही है। हालांकि यहां चीनी नौसेना की वैसी धमक नहीं है जैसी दक्षिण चीन सागर में है जहां अमेरिका भी ज्यादा दिलचस्पी रखता है। दक्षिण हिंद महासागर में मुख्य जिम्मेदारी भारत की ही है, क्योंकि जिबूती में जापानी बेस के बावजूद अमेरिका, जापान और ऑस्ट्रेलिया की इस क्षेत्र में अपेक्षित मौजूदगी नहीं है। चीन यहां नौसैनिक क्षमताएं बढ़ा रहा है। इसे देखते हुए भारत को सतर्क रहने की जरूरत है। मालदीव और कुछ हद तक श्रीलंका के हालिया घटनाक्रम भारत के लिए बेहतर संकेत हैं, लेकिन उसे आर्थिक सहयोग, अवसंरचना विकास और नौसैनिक मोर्चे पर निरंतर रूप से सक्रियता बढ़ानी होगी।

पश्चिमी दुनिया में भले ही वैश्वीकरण खतरे में हो, लेकिन इस महा-मुकाबले और हिंद-प्रशांत क्षेत्र के घटनाक्रम दर्शाते हैं कि एक क्षेत्रीय रणनीति वैश्विक सहभागिता के रूप में उभर रही है। इसलिए इसमें अब खिलाड़ी भी बढ़ गए हैं और शक्ति का संतुलन भी नई करवट ले रहा है। लिहाजा खेल के नियम भी बदल रहे हैं और उसका दायरा भी फैल रहा है। इस बीच एक और नया ढांचा भी सामने आ रहा है और देर-सबेर महा-मुकाबले से भी इसका साबका होगा। यह ढांचा है शंघाई सहयोग संगठन यानी एससीओ का।

वर्ष 2000-03 के दौरान इसकी स्थापना छह सदस्यों के साथ हुई थी। इसमें मुख्य रूप से रूस और चीन की मध्य एशियाई देशों से सहभागिता में समन्वय करना था। भारत और पाकिस्तान को इसका सदस्य बनाने के साथ ही ईरान, अफगानिस्तान, बेलारूस और मंगोलिया को पर्यवेक्षक का दर्जा दिया गया है। श्रीलंका और तुर्की को संवाद साझेदार बनाया गया है। इस संगठन का काम क्षेत्र में शांति और स्थायित्व के लिए काम करना है। इसमें जहां भारत के तमाम हितैषी हैं वहीं अधिकांश देश ऐसे हैं जो चीन के निशाने पर नहीं आना चाहते। वास्तव में मूल महा-मुकाबले का कोई ढांचा नहीं था, लेकिन इसका है। साथ ही यह भारत के समक्ष सीमाओं को भी दर्शाता है तो उभरती शक्ति के रूप में भारत को मान्यता भी देता है जो किसी का पिछलग्गू बनकर नहीं रह सकता।

( लेखक पूर्व राजदूत हैं )