[ ए. सूर्यप्रकाश ]: राहुल गांधी अभी भी राफेल सौदे को तूल देने में लगे हुए हैं। वह जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के लिए ‘चौकीदार चोर है’ बोलकर उन पर अपमानजनक हमला बोलते हैं तो इससे राजनीतिक विमर्श की दिशा भी और गर्त में चली जाती है। ऐसा करते हुए वह परिवार की उसी परंपरा को ही आगे बढ़ा रहे हैं जिसमें इस परिवार ने अपने से इतर लोकतांत्रिक रूप से चुने हुए नेताओं का अपमान किया। राफेल के बहाने कांग्र्रेस ने भ्रष्टाचार के जिस मुद्दे को छेड़ा है उस पर बात करने का नेहरू-गांधी परिवार को कोई नैतिक अधिकार नहीं। आज इस पर एक नजर डालना जरूरी है कि आखिर नेहरू-गांधी परिवार ने अपनी राजनीति के लिए पैसों का बंदोबस्त कैसे किया?

नेहरू के दौर में कांग्रेस उद्योगपतियों और कारोबारियों से पैसे लेती थी और इसकी वजह से सरकार कभी-कभार मुश्किलों में भी फंस जाती थी। कई कंपनियों के मालिक मूंदड़ा की ही मिसाल लें जिन्होंने 1950 के दशक में कांग्रेस को भारी चंदा दिया। इससे वह वित्तीय रूप से बदहाल होते गए। फिर उन्होंने कांग्रेस को संकेत किया कि अब सरकार को उनकाअहसान चुकाने का वक्त आ गया है। नेहरू सरकार ने उन्हें उपकृत करने में देर नहीं की और भारतीय जीवन बीमा निगम को उनकी कंपनियों के शेयर ऊंची कीमत पर खरीदने के निर्देश दिए। वित्तमंत्री टीटी कृष्णमचारी आलाकमान के निर्देश पर काम कर रहे थे, लेकिन जब इसकी पोल एलआइसी-मूंदड़ा घोटाले के रूप में खुली तो वही बलि के बकरे बनाए गए।

1969 में इंदिरा गांधी ने कांग्रेस का विभाजन कर दिया। इसके बाद हालात बदल गए। विभाजन के बाद श्रीमती गांधी ने कम्युनिस्टों पर कुछ ज्यादा ही भरोसा करना शुरू कर दिया और इस तरह सोवियत संघ स्वाभाविक रूप से उनके बचाव में आया। केजीबी आर्काइव्स के प्रभारी रहे वासिली मित्रोखिन ने रूसी खुफिया एजेंसी की गतिविधियों से जुड़े सनसनीखेज खुलासे किए। उन्होंने बताया कि केजीबी ने कैसे 1971 के चुनाव में कांग्रेस को वित्तीय मदद पहुंचाई और कैसे उनके भेदिये कैबिनेट तक पहुंच गए थे? देश के कई सम्मानित नागरिकों और राजनीति, सरकार, नौकरशाही और उद्योग जगत से जुड़े कई दिग्गजों ने 1970 के बाद अपने अनुभव साझा किए हैं जिसमें उन्होंने चुनाव अभियानों के लिए उद्योगपतियों और कांग्र्रेस की सांठगांठ की परतें खोली हैं। उस दौर के साक्षी ये लोग बताते हैं कि पैसे जुटाने का कांग्रेस ने एक नया तरीका ही ईजाद कर लिया था। इसके तहत विदेशों से होने वाले बड़े अनुबंधों और रक्षा सौदों में दलाली ली जाने लगी। इस लिहाज से 1986-89 के बीच कैबिनेट सचिव रहे बीजी देशमुख की आत्मकथा ‘ए कैबिनेट सेक्रेटरी लुक्स बैक’ खासी उपयोगी है।

देशमुख कहते हैं, ‘बोफोर्स मामले की जड़ें उस चलन से जुड़ी हैं जो इंदिरा गांधी के दौर में शुरू हुआ जिसे उनके बेटे संजय गांधी ने और मजबूत किया। इससे कांग्रेस के लिए पैसे इकट्ठे किए जाते थे।’ 1960 के दशक के मध्य तक पंडित नेहरू के दौर में पार्टी के लिए चंदा जुटाने की प्रक्रिया इससे कहीं अधिक पारदर्शी बनी हुई थी जिसमें कारोबारियों से खुला चंदा लिया जाता था। वह कहते हैं कि खुद को कांग्रेस पार्टी की निर्विवाद नेता के रूप में स्थापित करने और चुनाव लड़ने के लिए इंदिरा गांधी को पैसों की शिद्दत से जरूरत थी। इसके लिए वह रजनी पटेल और वसंतराव नाइक जैसे अपने वफादारों पर आश्रित थीं। वह लिखते हैं, ‘जब वह भारतीय राजनीति के शीर्ष पर स्थापित हो गईं तो उन्होंने विदेशी सौदों के माध्यम से पैसे जुटाने का बेहतर तरीका ईजाद कर लिया जिसे संजय गांधी ने और तराशा।’

वर्ष 1980 में जब इंदिरा गांधी की सत्ता में वापसी हुई तब देशमुख गृह मंत्रालय में अतिरिक्त सचिव थे। उन्होंने लिखा, ‘मेरे सहकर्मियों ने जनवरी 1980 में मुझे बताया कि संजय गांधी ने कुछ मंत्रालयों के वरिष्ठ अधिकारियों को बुलाकर उन्हें कुछ सौदे करने का आदेश दिया है और साथ ही यह भी समझाया कि वे कैसे किए जाने चाहिए। इसके लिए भरोसेमंद अधिकारियों को रक्षा मंत्रालय एवं रक्षा उत्पादन विभाग जैसे महकमों में नियुक्त किया गया। यहां तक कि संजय गांधी के निधन के बाद भी कांग्रेस में यह सिलसिला कायम रहा।’

प्रतिष्ठित लोकसेवक, राजदूत एवं राज्यपाल रहे बीके नेहरू संजय और राजीव के रिश्तेदार भी थे। अपनी आत्मकथा ‘नाइस गाइज फिनिश्ड सेकंड’ के अनुसार संजय गांधी की अंत्येष्टि के मौके पर उन्होंने राजीव गांधी से पूछा, ‘संजय ने कांग्रेस के लिए कथित रूप से जो रकम जुटाई, क्या वह सुरक्षित है?’ इस पर राजीव ने कहा, ‘उन्हें कांग्रेस कार्यालय की अलमारी में 20 लाख रुपये ही मिले।’ फिर नेहरू ने पूछा कि संजय के पास आखिर कितनी रकम थी? इस पर राजीव ने अपने सिर को हाथों से ढंकते हुए कहा कि करोड़ों रुपये जिनका कोई हिसाब ही नहीं है। उस दौर के दो और प्रतिष्ठित एवं महत्वपूर्ण गवाह थे पूर्व राष्ट्रपति आर वेंकटरामण और उद्योगपति जेआरडी टाटा।

अपनी आत्मकथा ‘माई प्रेसिडेंशियल ईयर्स’ में वेंकटरामण ने एक वाकये का उल्लेख किया। यह अगस्त 1987 की बात है जब टाटा को राष्ट्रपति ने मिलने के लिए बुलाया। वेंकटरामण ने कहा कि उनकी बातचीत कुछ दिन पहले संसद में बोफोर्स रिश्वत कांड को लेकर राजीव गांधी के संसद में दिए बयान पर केंद्रित हो गई। किताब के अनुसार, ‘टाटा ने कहा कि यह काफी हद तक संभव है कि राजीव और उनके परिवार के किसी सदस्य ने इसमें या किसी अन्य मामले में कोई दलाली न खाई हो, लेकिन कांग्रेस पार्टी द्वारा कमीशनखोरी से इन्कार नहीं किया जा सकता। इसके पीछे टाटा ने यही दलील दी कि 1980 के बाद से राजनीतिक चंदे को लेकर उद्योगपतियों से पार्टी ने कोई संपर्क नहीं किया और उद्योगपतियों में यह आम धारणा है कि पार्टी सौदों की आड़ में पैसे बना रही है।’

जब रकम जुटाने का यही दस्तूर बन गया हो तब बोफोर्स जैसा कांड तो होना ही था। भारतीय सेना के लिए स्वीडिश कंपनी से तोप खरीदने के मामले में राजीव गांधी और अन्य लोगों पर दलाली के आरोप लगे जिन्हें राजीव ने संसद में सिरे से नकार दिया। हालांकि नेहरू-गांधी परिवार यह नहीं बता पाया कि भारत द्वारा सौदे की पहली किस्त चुकाने के तुरंत बाद ही बोफोर्स ने मारिया और ओत्तावियो क्वात्रोची के खाते में 73 लाख डॉलर क्यों हस्तांतरित किए? बाद में यह रकम कई जगहों से घूमते हुए आखिर में यूके के चैनल आईलैंड में पाई गई।

वाजपेयी सरकार ने ब्रिटिश सरकार से उस खाते को फ्रीज करा दिया, लेकिन मनमोहन सरकार ने ब्रिटिश सरकार से उस खाते पर लगी रोक हटवा दी और क्वात्रोची लूट की रकम लेकर चलता बना। इस इतालवी को आखिर दलाली क्यों मिली? सोनिया ने मनमोहन सरकार से उसके खाते पर पाबंदी क्यों हटवाई? ये सवाल गांधी-नेहरू परिवार का लगातार पीछा करते रहेंगे। मानों इतना ही काफी नहीं था। इराक के साथ तेल के बदले अनाज वाले संयुक्त राष्ट्र कार्यक्रम पर वॉल्कर कमेटी की जांच में यह सामने आया कि इराकी तानाशाह सद्दाम हुसैन से भी कांग्रेस को वित्तीय मदद मिलती रही। क्या कुछ और कहने की जरूरत बाकी है?

( लेखक प्रसार भारती के चेयरमैन एवं वरिष्ठ स्तंभकार हैं )