[ राजीव सचान ]: किसी भी संस्था के शीर्ष पर बदलाव होने पर आम तौर पर उसकी कार्यप्रणाली में कुछ न कुछ परिवर्तन अवश्य देखने को मिलता है, लेकिन बहुत कम ऐसा होता है जब यह परिवर्तन उस संस्था को कोई नया आयाम प्रदान करता है। इस पर आश्चर्य नहीं कि सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश के रूप में रंजन गोगोई कुछ तब्दीली करते दिख रहे हैैं। उन्होंने पद संभालते ही एक तो जनहित याचिकाएं सुनने का दायित्व सुप्रीम कोर्ट के दूसरे वरिष्ठ न्यायाधीश को भी सौंपा। इसके बाद उन्होंने न्यायाधीशों से कहा कि वे लंबित मुकदमों के बोझ को देखते हुए कार्य दिवसों के दौरान न तो छुट्टियां लें और न ही सेमिनार-गोष्ठी आदि में शामिल हों। उनकी इस अपील के बाद एक जज ने अपना विदेश दौरा रद करने का फैसला लिया। नए मुख्य न्यायाधीश ने भरोसा दिलाया है कि वह सुप्रीम कोर्ट की कार्यप्रणाली में बदलाव लाने के लिए कुछ और कदम उठाएंगे। जब तक ऐसा नहीं हो जाता तब तक यह कहना कठिन है कि सुप्रीम कोर्ट में आमूल-चूल बदलाव होने जा रहा है।

वैसे भी अभी तक जो कदम उठाए गए हैैं वे सीमित असर वाले ही हैैं। मुख्य न्यायाधीश के रूप में रंजन गोगोई ने तत्काल सुनवाई की मांग के नए मानक बनाने के भी संकेत दिए हैैं। ये सुखद संकेत हैैं, क्योंकि उन्होंने स्पष्ट किया है कि केवल उन्हीं मामलों में तुरंत सुनवाई की मांग की जाए जिसमें किसी को फांसी होने वाली हो या फिर किसी का घर तोड़ा जा रहा हो? यदि इस व्यवस्था पर सख्ती से अमल हो सका तो बात-बात पर जनहित याचिकाएं दायर करने और तत्काल सुनवाई की मांग करने वाले हतोत्साहित होंगे। उन्हें हतोत्साहित किया भी जाना चाहिए, क्योंकि जनहित याचिकाएं एक तरह से जनता के हितों की ही बलि ले रही हैैं। बीते कुछ समय से तो यह स्थिति है कि हर मसले को जनहित का रूप देकर न केवल याचिका के माध्यम से सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया जाता है, बल्कि तत्काल सुनवाई की मांग भी की जाती है। अगर यह मांग बड़े वकीलों की ओर से की जाती है तो आम तौर पर सुप्रीम कोर्ट के लिए उनके आग्रह को टालना मुश्किल होता है।

नक्सलियों के मददगार होने के आरोप में गिरफ्तार किए गए पांच लोगों के शुभचिंतकों की ओर से दायर याचिका किसी भी लिहाज से जनहित याचिका नहीं थी, लेकिन उसे इसी रूप में देखा और सुना गया। चूंकि पुणे पुलिस की ओर से गिरफ्तार लोगों की ओर से कुछ बड़े नाम वालों ने याचिका दायर की और उनकी पैरवी भी बड़े नाम वाले वकीलों ने की इसलिए सुप्रीम कोर्ट ने यह जानते हुए भी उसकी सुनवाई की कि इससे एक नई परंपरा की नींव पड़ेगी। यह अच्छा नहीं हुआ कि दो-तीन बार की सुनवाई के बाद उसे यह समझ आया कि वह तो ट्रायल कोर्ट का काम कर रहा है। समझना कठिन है कि यह साधारण सी बात उसी समय क्यों नहीं समझी गई जब पहली बार मामले को सुना जा रहा था?

ध्यान रहे कि कुछ ऐसा ही सवाल तब भी उठा था जब सुप्रीम कोर्ट ने मस्जिद में नमाज इस्लाम का अभिन्न अंग है या नहीं मामले पर नए सिरे से विचार किया था। यह प्रथमदृष्टया ही स्पष्ट था कि 1994 के इस मामले का अयोध्या मसले से कोई लेना-देना नहीं, फिर भी बड़े नाम वाले वकीलों की पैरवी के चलते इस मामले की सुनवाई हुई। नतीजा वही निकला जो करीब-करीब पहले से स्पष्ट था। 1994 का मामला जमीन के अधिग्रहण से जुड़ा था और अयोध्या मामला जमीन के मालिकाना हक का है। आखिर इस बुनियादी अंतर को तभी क्यों नहीं जाना जा सका जब यह मांग हो रही थी कि अयोध्या मामले की सुनवाई के पहले 1994 वाले मामले पर विचार किया जाए? क्या इस तरह की कवायद को वक्त की बर्बादी के अलावा और कुछ कहा जा सकता है? यह स्थिति चिंताजनक है कि अब संसद के फैसले अमल में आने के पहले ही जनहित याचिकाओं के जरिये सुप्रीम कोर्ट पहुंच जा रहे हैैं। भविष्य में सरकारें इस चिंता में दुबली दिखें तो हैरानी नहीं कि कहीं संसद के फैसले सुप्रीम कोर्ट की न्यायिक समीक्षा का शिकार न बन जाएं?

यह गनीमत रही कि सुप्रीम कोर्ट ने आधार की वैधता पर मुहर लगा दी, लेकिन यह समझना कठिन है कि जैसे उसने आधार संबंधी कानून की केवल एक धारा को रद कर मूल कानून को मंजूरी दे दी वैसे ही राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग (एनजेएसी) संबंधी कानून के मामले में क्यों नहीं किया? सुप्रीम कोर्ट चाहता तो एनजेएसी संबंधी कानून के उन प्रावधानों को रद या दुरुस्त करने का काम कर सकता था जिन्हें कथित तौर पर उच्चतर न्यायपालिका के अधिकारों में कटौती करने वाला कहा गया। उसने इसके बजाय संविधान संशोधन की लंबी प्रक्रिया से बने पूरे कानून को ही एक तरह से रद्दी की टोकरी में डाल दिया। नतीजा यह हुआ कि वह कोलेजियम व्यवस्था अस्तित्व में बनी रही जो दुनिया के किसी भी लोकतांत्रिक देश में नहीं और जो लोकतंत्र की मूल भावना के भी खिलाफ है?

सुप्रीम कोर्ट ने राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग संबंधी कानून को रद करते समय कहा था कि यह संविधान के मूल ढांचे का उल्लंघन करता है, लेकिन क्या कोलेजियम व्यवस्था संविधान के मूल ढांचे के अनुरूप है? यदि नहीं तो वह अस्तित्व में क्यों है? सवाल यह भी है कि आखिर यह मूल ढांचा है क्या? यदि नए मुख्य न्यायाधीश के कार्यकाल में भी कोलेजियम व्यवस्था बनी रहती है और उसके जरिये जज ही जजों की नियुक्ति करते रहते हैैं तो इसका मतलब होगा कि सुप्रीम कोर्ट में सुधारों के लिए और इंतजार करना होगा। यह एक विडंबना ही है कि करीब-करीब हर क्षेत्र एवं संस्था में सुधार हो रहे हैैं और कई सुधार तो सुप्रीम कोर्ट के जरिये ही हो रहे हैैं, लेकिन खुद शीर्ष अदालत वास्तविक एवं ठोस सुधारों से बची हुई है।

किसी को नहीं पता कि ऐसा क्यों होता है कि सुप्रीम कोर्ट कुछ मामलों में तो राजनीतिक दलों को यह याद दिलाता है कि कानून बनाने का काम संसद का है और कुछ में संसद का काम अपने हाथ ले लेता है। राजनीति के अपराधीकरण पर रोक के मामले में उसने कहा कि इस बारे में कानून बनाने का काम संसद का है, लेकिन अन्य कई मामलों में उसने अपने आदेश और दिशानिर्देश आदि के जरिये कानून बनाने का काम खुद ही कर दिया।

[ लेखक दैनिक जागरण में एसोसिएट एडीटर हैैं ]