[ उदय प्रकाश अरोड़ा ]: दूसरी बार प्रधानमंत्री बनने के बाद नरेंद्र मोदी ने अपने प्रारंभिक भाषण में अल्पसंख्यकों के पिछड़ेपन को दूर करने पर भी जोर दिया था और हिंदू-मुस्लिम एकता के प्रश्न को भी उठाया था। एक अन्य संबोधन में उन्होंने आजादी से पूर्व मुस्लिम समाज ने एकता के लिए जो कार्य किए उनका भी स्मरण किया और 1857 के उस संग्राम का जिक्र किया, जिसमें मुसलमानों ने हिंदुओं के साथ मिलकर आजादी की लड़ाई का प्रथम बिगुल बजाया था। दिल्ली अल्पसंख्यक आयोग, जमीयत-ए-उलेमा हिंद के सदस्यों और अनेक विख्यात मुसलमानों ने प्रधानमंत्री मोदी की उन बातों की प्रशंसा की।

हिंदू-मुस्लिम एकता की अब नए सिरे से व्याख्या

देखा जाए तो हिंदू-मुस्लिम एकता, एक ऐसा प्रश्न है, जिसे आजादी से पहले देश के लगभग सभी नेताओं ने महत्व दिया। हाल में कश्मीर के संदर्भ में लिए गए फैसलों को देखते हुए इस प्रश्न को नए सिरे से महत्व दिया जाना चाहिए। यह शुभ संकेत है कि आरएसएस और जमीयत मिलकर इस दिशा में पहल कर रहे हैैं। यह पहले कश्मीर से हो तो और बेहतर।

हिंदू-मुस्लिम एकता आवश्यक

एक समय स्वामी विवेकानंद ने कहा था कि मातृभूमि की आजादी के लिए हिंदू-मुस्लिम धर्म का संगम होना अति आवश्यक है। उनके अनुसार, वेदांत के मस्तिष्क और इस्लाम के शरीर के मिलन के बिना भारत का उद्धार होना संभव नहीं है। गांधी जी से जब पूछा गया कि हिंदुस्तान की कौन-सी समस्या है जिसे वह सबसे पहले सुलझाना चाहेंगे तो उनका कहना था कि जब-तक इस मुल्क में हिंदू-मुस्लिम एकता स्थापित नहीं हो जाती उन्हें आगे जाने का कोई रास्ता नहीं दिखाई देता।

आजादी आने तक हिंदू-मुस्लिम एकता छिन्न-भिन्न हो गईं

दुख की बात है कि आजादी के पहले हजारों राष्ट्रीय नेताओं ने हिंदू-मुस्लिम एकता के लिए जो कोशिशें की थीं, आजादी आने तक वे छिन्न-भिन्न हो गईं। इसका कारण यह था कि मुस्लिमों का एक वर्ग इस बात पर जोर देने लगा कि हिंदू और मुस्लिम दो अलग-अलग राष्ट्र बनते हैैं अत: धर्म के आधार पर दो राष्ट्रों का विभाजन होना चाहिए। जब ऐसी बातें की जा रही थीं तो कश्मीरी भारत के साथ खड़े थे। वास्तविकता यह है अधिकांश उलेमा ने विभाजन को स्वीकार नहीं किया था। देवबंदी स्कूल के उलेमा ने विभाजन का विरोध कर कांग्रेस का खुलकर साथ दिया। बलूच और पश्तून विभाजन नहीं चाहते थे। फिर भी अनेक कारणों से विभाजन को टाला नहीं जा सका। 1943 तक तो विभाजन का सिद्धांत असहनीय था, किंतु कुछ मुस्लिम नेताओं के कारण ऐसा न हो सका।

विभाजन के पहले और बाद तक मुसलमान मांग ही करता रहा

प्रसिद्ध इस्लामी विद्वान मौलवी वहीदुद्दीन लिखते हैैं, ‘मुसलमानों की शिकायतें निरंतर बढ़ती गईं। 1947 में जब देश आजाद होने वाला था तब मुसलमानों ने 14 मांगों की लंबी सूची बनाई। आजादी के बाद यह सूची बढ़कर 25 हो गई। विभाजन के पहले, विभाजन के समय और विभाजन के बाद भी मुस्लिम समाज सदैव मांग ही करता रहा। इतिहास इस बात का साक्षी है कि कोई भी संगठन एक साथ देने और लेने का कार्य नहीं कर सकता। यदि आप राष्ट्र को कुछ दे नहीं सकते तो आपको मांगने का कोई हक नहीं बनता।’

मुसलमान अपनी सृजनात्मक शक्ति को बढ़ाएं

मौलाना वहीदुद्दीन का मानना है कि भारत में मुसलमान मांगे ही रखते हैैं, वे राष्ट्र को क्या योगदान दे सकते हैं, इसके विषय में उन्होंने कभी नहीं सोचा। जरूरत इस बात की है कि आपसी मतभेदों को भुलाकर देश के मुसलमान अपनी सृजनात्मक शक्ति को बढ़ाएं। अल्पसंख्यकों में पारसी समुदाय को ही लें। उन्होंने कभी कोई शिकायत नहीं रखी। परिश्रम करते रहे। आज देश का वह सबसे अधिक समृद्ध समुदाय है। टाटा, भाभा, पालकीवाला जैसी अनेक कर्मठ विभूतियों ने पारसियों का गौरव बढ़ाया है।

कश्मीर भारत का सिरमौर है

जिस कश्मीर की आज बहुत चर्चा है उसके बिना क्या हिंदुस्तान की कल्पना संभव है? कश्मीर भारत का सिरमौर है। सूफीमत ने हिंदुओं और मुसलमानों के बीच की खाई को पाटकर भारत की एकता को सुदृढ़ किया है। भारत की सूफी परंपरा इस्लाम, शैव भक्ति और वेदांत का मिश्रण है। भारत में हिंदू-मुस्लिम एकता का काम कश्मीर से प्रारंभ होता है। कश्मीर के मुसलमानों को याद रखना चाहिए कि हिंदू धर्म के प्रभाव से सूफियों की एक नई धारा ने भारत में जन्म लिया, जिसे ‘ऋषि शृंखला’ के नाम से जाना जाता है।

कश्मीरियत का जन्म

शैव धर्म, सूफियों की ऋषि शृंखला और कश्मीर में विकसित संस्कृत भाषा ने मिलकर जिस कश्मीरियत को जन्म दिया उसके बिना भारतीय संस्कृति के अस्तित्व की कल्पना ही नहीं की जा सकती। भारत का धर्म सबको जोड़ने में विश्वास रखता है अलगाव करने में नहीं। यही वजह है कि भारत का प्रबुद्ध वर्ग यह मानता है कि किसी भी अल्पसंख्यक समाज को भारत में चिंता करने की कोई जरूरत नहीं, क्योंकि देश की बहुसंख्यंक हिंदू जनता हमेशा से सहिष्णु और उदार रही है।

कश्मीरी पंडितों ने दी हिंदू-मुस्लिम एकता को मजबूती

हिंदू-मुस्लिम एकता को मजबूत करने के लिए जिन विद्धानों का विशेष रूप से उल्लेख किया जा सकता है उनमें कश्मीरी पंडित सबसे महत्वपूर्ण माने जाते हैैं। घाटी के शरणार्थी के रूप में जो आज कश्मीरी पंडित हैं वे उन्हीं पाणिनी, पतंजलि, चरक, कालिदास, कल्हण, बिल्हण, अभिनव गुप्त, क्षेमेंद्र, आनंदवर्धन और वामनाचार्य की संतान हैैं जिन्होंने कश्मीर में रहकर ही संस्कृत साहित्य को समृद्ध बनाया। कश्मीर के लिए कल्हण द्वारा लिखे ग्रंथ राजतरंगिणी को भारत में इतिहास का सर्वप्रथम ग्रंथ माना जाता है।

संस्कृत उच्च वर्ग के विद्वानों की भाषा रही

कहा जाता है कि संस्कृत उच्च वर्ग के विद्वानों की भाषा रही है। वह आम जनता में प्रचलित नहीं थी। कश्मीर इसका अपवाद रहा। जॉर्ज ग्रियर्सन के अनुसार लगभग 2000 वर्ष तक कश्मीर में संस्कृत जनता की बोलचाल की भाषा थी। आठवीं से पंद्रहवीं शताब्दी के बीच कश्मीर के 13-14 विद्धानों ने जो लिखा था वह समूचे संस्कृत साहित्य का आधे भाग से भी अधिक है। अलंकार शास्त्र, नाट्यशास्त्र, कृषिशास्त्र, चिकित्सा विज्ञान, वास्तु विज्ञान और नक्षत्र विज्ञान के विकास में कश्मीरी विद्धानों का योगदान सबसे अधिक था।

कश्मीर गढ़ रहा इस्लामी और हिंदू संस्कृतियों का

भारत आने पर पश्चिम के विद्धानों ने संस्कृत अध्ययन के लिए जिन विद्धानों की सहायता ली उनमें कश्मीर के गोविंद, नित्यानंद शास्त्री, मुकुंदराम शास्त्री, प्रो. जगधर, पं. दामोदर भट्ट और आनंद कौल प्रमुख थे। इस्लामी और हिंदू, दोनों संस्कृतियों का कश्मीर गढ़ रहा है। कश्मीर में विकसित शैव धर्म आठवीं से बारहवीं शताब्दी तक भारत का सबसे महत्वपूर्ण दार्शनिक और धार्मिक आंदोलन था। इस प्रकार देखा जाए तो भारत की हिंदू-मुस्लिम एकता कश्मीर से ही प्रारंभ होती है।

( लेखक जेएनयू के पूर्व ग्रीक चेयर प्रोफेसर हैैं )