[ बलबीर पुंज ]: क्या किसी राष्ट्र में कानून-नियम और उसका वैचारिक अधिष्ठान उसकी संस्कृति, परंपरा और जनभावना से अलग हो सकता है? इस प्रश्न का उत्तर-अमेरिका में हाल ही में पारित हुए एक विधेयक में देखने को मिलता है। बीते सप्ताह अमेरिकी संसद ने अपने देश में कुत्ते-बिल्ली के मांस का सेवन रोकने की दिशा में इनके वध पर प्रतिबंध लगाने संबंधी एक विधेयक पारित किया। इसके साथ ही दूसरे विधेयक में उसने विश्व के अन्य देशों- चीन, दक्षिण कोरिया, वियतनाम, थाईलैंड, फिलीपींस, इंडोनेशिया, कंबोडिया, लाओस और भारत के पूर्वोत्तर राज्यों से भी मांस सेवन के लिए कुत्ते-बिल्ली के वध को रोकने का अनुरोध किया।

अमेरिकी संसद के निचले सदन-प्रतिनिधि सभा ने जिन राष्ट्रों से उपरोक्त आग्रह किया है उनके कई क्षेत्रों में कुत्ते-बिल्ली का मांस खाया जाता है और इन देशों के लाखों नागरिक दशकों से अमेरिका में बसे हुए है और वहां के नागरिक हैं। अमेरिका की कुल आबादी 33 करोड़ है जिसमें एशियाई मूल के लगभग 50 लाख चीनी, करीब 40 लाख भारतीय, 39 लाख फिलीपीनी, 19 लाख वियतनामी, 18 लाख कोरियाई, 14 लाख जापानी, 3.3 लाख कंबोडियाई, तीन लाख थाई, 2.7 लाख लाओ और एक लाख इंडोनेशियाई आदि बसते हैं। फिर भी अमेरिकी सत्ता-अधिष्ठान ने अपने देश में बड़े वर्ग की संवेदना और भावना को विश्व के एक बड़े भाग के ‘पसंदीदा भोजन’ की तुलना में प्राथमिकता दी।

एक आंकड़े के अनुसार अकेले चीन और दक्षिण कोरिया में खाने के लिए तीन करोड़ से अधिक कुत्तों को प्रतिवर्ष मार दिया जाता है। चीन में आयोजित होने वाला वार्षिक डॉग फेस्टिवल विश्व में हमेशा विवाद का कारण बनता है। अमेरिकी संसद में पारित विधेयक के अनुसार, मनुष्य के भोजन के लिए कुत्तों और बिल्लियों के वध पर रोक लगाई जाएगी। कुत्ता-बिल्ली मांस व्यापार निषेध कानून 2018 का उल्लंघन करने पर 5,000 अमेरिकी डॉलर (लगभग साढ़े तीन लाख रुपये) का जुर्माना लगेगा।

अमेरिकी सांसद क्लाउडिया टेनी कहती हैं, ‘यह बिल अमेरिका के मूल्यों को दर्शाता है और सभी देशों को यह संदेश देता है कि हम इस अमानवीय और क्रूर बर्ताव का साथ नहीं देंगे।’ अभी तक अमेरिका के छह राज्य-जॉर्जिया, मिशिगन, हवाई, न्यूयॉर्क, वर्जीनिया और कैलिफोर्निया में मनुष्य के सेवन के लिए कुत्ते-बिल्ली को मारने पर पूर्ण प्रतिबंध है। जबकि शेष राज्यों में खाने के लिए इन पशुओं की हत्या पर अलग-अलग कानूनी प्रावधान हैं। अमेरिका के इस कदम के पीछे क्या प्रेरणा है? कुत्तों और बिल्लियों के अतिरिक्त अमेरिका के कई प्रांतों और यूरोपीय देशों में घोड़े के मांस का सेवन भी प्रतिबंधित है। इन देशों में इन प्रतिबंधों के पीछे कोई आर्थिक, आध्यात्मिक या फिर धार्मिक बिंदु नहीं है- केवल करुणा, पशुप्रेम भावना और कुछ मामलों में सांस्कृतिक जुड़ाव है। इस पृष्ठभूमि में भारत की स्थिति क्या है?

भारत के मूल सनातन चिंतन में हर जीवित स्वरूप का अपना महत्व है और करोड़ों हिंदुओं के लिए गाय आस्था का केंद्र हैै। लंबे समय से देश में सनातन परंपराओं में विश्वास रखने वाले लोग गोकशी पर प्रतिबंध लगाने की मांग कर रहे है तो दूसरी ओर स्वघोषित सेक्युलरिस्ट और स्वयंभू उदारवादी ‘पसंदीदा भोजन के अधिकार’ का तर्क देकर गोमांस सेवन की पैरवी करते हैैं। अब अमेरिकी संसद में पारित उक्त विधेयकों के बाद यह देखना दिलचस्प होगा कि क्या अपने देश में ‘पसंदीदा भोजन के अधिकार’ वाले लोग अमेरिका का विरोध करेंगे। क्या वे अमेरिका में भी ऐसा करने का दुस्साहस करेंगे?

भारत में गोकशी पर पाबंदी की मांग होने पर जिस प्रकार विरोध देखने को मिलता है वह एक विषाक्त चिंतन और औपनिवेशिक मानसिकता का खतरनाक कॉकटेल है। अनादिकाल से आज तक भारत में करोड़ों लोगों के लिए गाय केवल मात्र पशु न होकर, उनकी संस्कृति की पहचान और आस्था का जीवंत रूप है। हिंदुओं की इसी आस्था का उपहास करने, उनकी भावना को आहत करने और उनके मान-बिंदुओं को अपमानित करने के लिए ‘मेरा अधिकार, मेरी पसंद’ का ढोल पीटा जाता है। यदि मध्यकाल में कुछ अपवादों को छोड़ दिया जाए तो दिल्ली में मुगलों के अधिकांश शासनकाल में गोकशी पर प्रतिबंध था।

अंतिम मुगल शासक बहादुरशाह जफर-द्वितीय ने भी गोवध करने वालों को तोप से उड़ाने का फरमान जारी किया था। व्यापक रूप से भारतीय उपमहाद्वीप में गोमांस भक्षण की कुरीति 15वीं-16वीं शताब्दी में पुर्तगाली और फिर बाद में ब्रितानी अपने साथ लेकर आए। गोमांस के शौकीन औपनिवेशियों ने इसका उपयोग ‘बांटो और राज करो’ की अपनी कुत्सित नीति में किया, जिससे हिंदू-मुसलमानों में शत्रुभाव को और अधिक गहराया। विडंबना देखिए कि स्वतंत्रता के सात दशक बाद भी उसी औपनिवेशिक मानसिकता का दोहन और उसका परोक्ष समर्थन आज भी भारत में एक वर्ग द्वारा ‘उदारवादी दर्शन’ के रूप में किया जा रहा है।

गोकशी के समर्थक अपनी दलीलों में आर्थिक पक्ष भी मुखरता के साथ रखते है, जिसमें किसी काम नहीं कर रहे गोवंशों को बूचड़खानों में भेजने का सुझाव होता है। जो लोग ऐसा कहते हैं वे या तो वामपंथियों द्वारा फैलाए भ्रम, धारणाओं और मिथकों के कारण अपनी जड़ों से कटे हुए हैं या फिर भारत की सनातन संस्कृति के धुर-विरोधी हैं। ऐसे लोग अक्सर भूल जाते हैं कि गौ संरक्षण का विषय केवल आर्थिकी से नहीं, भारत की सांस्कृतिक पहचान और बहुलतावादी सनातन परंपरा से भी जुड़ा है।

क्या ‘पसंदीदा भोजन के अधिकार’ के नाम पर अंग्रेजों की ‘बांटो और राज करो’ वाली औपनिवेशिक मानसिकता से प्रेरित होकर गोमांस भक्षण जैसी कुरीति को जारी रखना-किसी भी सभ्य समाज में उचित माना जा सकता है? देश में गायों को बचाने के लिए कई गौरक्षकों ने या तो अपने प्राणों की आहुति दी है या फिर वे आज भी उसके लिए आंदोलित हैं और अपना पूरा जीवन समर्पित कर चुके हैं। आवश्यकता इस बात की है कि भारत में जिस बड़ी जनभावना का अनादिकाल से ही गाय से आध्यात्मिक और सांस्कृतिक जुड़ाव रहा है उसका मूर्त रूप अब व्यावहारिकता में भी दिखना चाहिए।

सड़कों पर आवारा पशुओं की भांति इधर-उधर घूमती गायों, उनके बछड़ों और खेती में अनुपयुक्त हो चुके गोवंशों के उत्थान हेतु सामाजिक और सरकारी स्तर पर योजनाएं चलनी चाहिए और आश्रय का उचित प्रबंध होना चाहिए। जब तक करोड़ों हिंदू अपनी आस्था को व्यावहारिक रूप में परिवर्तित नहीं करेंगे, तब तक भारत में गौ संरक्षण संभव नहीं।

[ लेखक राज्यसभा के पूर्व सदस्य एवं वरिष्ठ स्तंभकार हैं ]