[डॉ. अश्विनी महाजन]। मुक्त व्यापार के समर्थक और विशेष तौर पर नीति आयोग के पूर्व उपाध्यक्ष प्रो. अरविंद पानगड़िया काफी निराश हुए थे, जब बजट 2018 के भाषण में वित्तमंत्री अरुण जेटली ने यह घोषणा की थी कि ऑटोमोबाईल, कलपुर्जे, कैमरा, टीवी, बिजली के मीटर और स्मार्टफोन पर आयात शुल्क बढ़ाया जाएगा। उनकी निराशा और बढ़ गई थी जब भारत सरकार के राजस्व सचिव ने यह कहा कि आयात शुल्कों में यह वृद्धि भारतीय उद्योगों को संरक्षण देने के लिए है। आयात शुल्क बढ़ाने के दो कारण हो सकते हैं, एक राजस्व बढ़ाना और दूसरा घरेलू उद्योगों को संरक्षण प्रदान करना। इसके बाद भारत सरकार ने 328 वस्त्र उत्पादों पर आयात शुल्क 10 से बढ़ाकर 20 प्रतिशत कर दिया।

बढ़ते व्यापार घाटे और भुगतान शेष घाटे को थामने के लिए 26 सितंबर 2018 को भारत सरकार ने एयर कंडिशनर, फ्रिज, जूतों, वाशिंग मशीन समेत 86 करोड़ रुपये के 19 गैर-जरूरी आयातों पर आयात शुल्क बढ़ाकर फिर से भारतीय उद्योगों को संरक्षण देने की अपनी मंशा को दोहरा दिया। इससे अर्थशास्त्रियों के बीच बहस छिड़ चुकी है कि भारत जिस तरह संरक्षणवाद के रास्ते पर चल पड़ा है क्या वह सही है। कुछ अर्थशास्त्री तर्क दे रहे हैं कि भारतीय उद्योगों के संरक्षण हेतु आयात शुल्क बढ़ाना सही नीति नहीं है। उनका कहना है कि इससे उपभोक्ताओं को सामान महंगा मिलेगा और भारतीय उद्योग कुशल नहीं हो पाएंगे, इसलिए मुक्त व्यापार को जारी रखना चाहिए। लेकिन कई अर्थशास्त्रियों का यह मानना है कि चूंकि भारत पिछले काफी समय से भारी व्यापार घाटे का सामना कर रहा है इसलिए मुक्त व्यापार सही होने पर भी एकतरफा नहीं हो सकता।

स्वतंत्रता आंदोलन में भी घरेलू उद्योगों के संरक्षण के लिए विदेशी सरकार पर राजनैतिक दबाव बना कर आयातों पर शुल्क बढ़ाते हुए भारतीय उद्योगों को संरक्षण देने के लिए बाध्य कर दिया गया था। आयात शुल्क बढ़ने के कारण देश में कपड़ा उद्योग, कागज उद्योग, चीनी उद्योग और सीमेंट उद्योग को प्रोत्साहन मिला जिससे इन उद्योगों का विकास हुआ। आजादी के बाद भी यही सोच रही कि अगर देश में उद्योगों का विकास करना है तो विदेशों से आने वाले आयातों पर रोक लगानी होगी और यह रोक ‘टैरिफ’ लगाकर या सीधे तौर पर बाधाएं लगाकर किया जा सकता है। 1980 के दशक के उत्तरार्ध में आयातों पर प्रतिबंधों में ढील दी गई और हमारे आयात तेजी से बढ़ने लगे। चूंकि हमारे निर्यात प्रतिस्पर्धी नहीं थे इसलिए हमारा विदेशी व्यापार घाटा और भुगतान घाटा दोनों तेजी से बढ़ने लगे। विदेशी कर्ज बढ़ा और एक समय भारत के पास एक सप्ताह के आयातों के बराबर भी विदेशी मुद्रा भंडार नहीं बचा था। विदेशी कर्जों के भुगतान में कोताही न हो इसके लिए 1990 में सोना गिरवी रखना पड़ा।

ऐसे में 1991 में आर्थिक सोच में बदलाव आना शुरू हुआ और आयात पर तमाम रुकावटें समाप्त कर दी गई। इस बीच कुछ अंतरराष्ट्रीय व्यापार समझौते भी आगे बढ़े और जनरल एग्रीमेंट ऑन ट्रेड एंड टैरिफ (गैट) के बदले विश्व व्यापार संगठन अस्तित्व में आ गया और इसके अंतर्गत होने वाले समझौतों के अनुसार टैरिफ में भारी कमी आई और गैर-टैरिफ बाधाएं समाप्त होने लगे।

पिछले कुछ वर्षों में, खासतौर पर अमेरिका में डोनाल्ड ट्रंप के सत्ता संभालने के बाद अमेरिका ने मुक्त व्यापार को तिलांजलि देने का फैसला किया और ‘बाय अमेरिकन, हायर अमेरिकन’ का नारा देकर कहा कि वह अमेरिकी उद्योगों को संरक्षण देने के लिए विदेशों से आने वाले सामान पर आयात शुल्क बढ़ाएंगे। उसके बाद पहले स्टील और एल्युमिनियम पर आयात शुल्क बढ़ाया गया और बाद में चीन से आने वाले 500 अरब डॉलर के आयातों पर शुल्क बढ़ाया गया। उधर चीन ने भी उसके जवाब में अमेरिका से आने वाले सामान पर आयात शुल्क बढ़ाना शुरू कर दिया और व्यापार युद्ध का आगाज हो गया। दुनियाभर में अमेरिका व अन्य देशों द्वारा अपनाई जा रही संरक्षणवाद की नीति पर चर्चा होने लगी है और मुक्त व्यापार के भविष्य पर सवाल खड़ा हो गया है।

भारत पिछले काफी समय से भारी व्यापार घाटे का सामना कर रहा है और यदि कोई एक देश है जिससे उसका व्यापार घाटा सबसे ज्यादा है तो वह चीन है। हालांकि चीन के सामान के बहिष्कार का आंदोलन जोर पकड़ रहा है, उसके बावजूद चीन से व्यापार घाटा लगातार बढ़ता जा रहा है। कारण यह है कि चीन से कई प्रकार की वस्तुओं का आयात हो रहा है, जिसमें न्यूक्लियर रिएक्टर, टेलीकॉम उपकरण आदि शामिल हैं। भारत सरकार ने पिछले कुछ समय से चीन से आने वाली 100 से ज्यादा वस्तुओं पर एंटी डंपिंग ड्यूटी भी लगाई है और मानक लागू करते हुए भी चीन से सामान के आयात पर रुकावटें खड़ी की हैं। हमें यह ध्यान रखना होगा कि यदि मुक्त व्यापार समर्थकों की बात मानी जाए तो दुनिया में व्यापार युद्ध से बेखबर हमें अपने आयात शुल्कों को कम ही रखना होगा।

आर्थिक सिद्धांतों के अनुसार यदि सभी मुल्क अपने आयात शुल्क कम रखेंगे तो ही सबको मुक्त व्यापार का फायदा होगा, लेकिन यदि दूसरे मुल्क अपने आयात शुल्क बढ़ा दें और हम अपने आयात शुल्क कम रखें तो उससे हमारे निर्यात बाधित होंगे और आयात बढ़ जाएंगे। ऐसे में हमारा व्यापार घाटा पहले से ज्यादा बढ़ जाएगा। इससे विदेशी भुगतानों में कठिनाई होगी और रुपया कमजोर हो जाएगा। मुक्त व्यापार को जारी रखने का दायित्व केवल भारत का नहीं है।

अवसर भी है व्यापार युद्ध

1991 के बाद जो मुक्त व्यापार का दौर चला पिछले कुछ वर्षों में व्यापार युद्ध के चलते उसमें बदलाव आ गया है। इस दौरान हमारे उद्योग-धंधों पर खासा विपरीत असर पड़ा है। ग्रोथ तो हुई है पर वह रोजगारविहीन है। ऐसे में जब दुनिया के दूसरे मुल्क व्यापार युद्ध की ओर अग्रसर हो रहे हैं और दुनिया संरक्षणवाद की तरफ बढ़ रही है, तो यह भारत के लिए एक चुनौती भी है और अवसर भी। अब हम आयातों पर रोक लगाकर अपने उद्योगों को पुर्नजीवित कर सकते हैं। जब अमेरिका के राष्ट्रपति अपने उद्योगों को दोबारा शुरू करने का दंभ भर सकते हैं तो भारत को भी इस बारे में सोचना चाहिए।

[एसोसिएट प्रोफेसर, दिल्ली विश्वविद्यालय]