शास्त्री कोसलेंद्रदास। केंद्रीय संस्कृत विश्वविद्यालय अधिनियम लोकसभा ने पारित कर दिया है। इस अधिनियम से पहले से चल रहे मानित विश्वविद्यालय के दर्जे वाले तीन संस्कृत शिक्षण संस्थानों को केंद्रीय संस्कृत विश्वविद्यालयों का दर्जा प्राप्त होगा। संस्कृत के वैज्ञानिक अध्ययन के लिए केंद्रीय संस्कृत विश्वविद्यालय स्थापित किया जाना आवश्यक है। अंतरराष्ट्रीय स्तर के ऐसे केंद्र की वास्तव में जरूरत है, जहां न केवल भारतीय अपितु बाहर से भी आकर लोग संस्कृत पढ़ सकें, सीख सकें। इससे संस्कृत की पारंपरिक पढ़ाई को विशेष तरीके से आगे बढ़ाया जा सके।

पारंपरिक संस्कृत अध्ययन आधुनिक शिक्षा के साथ उन्नत किया जा सके। पुरातन ग्रंथों पर आधुनिक पद्धति से शोध किया जा सके। वेदादि-शास्त्रों के अध्ययन के साथ ही गणित, विज्ञान, वाणिज्य और प्रबंधन की पढ़ाई की जा सके। ऐसे में ये विश्वविद्यालय देश-विदेश के संस्कृत शोधार्थियों के लिए महत्वपूर्ण शिक्षण केंद्र बनेंगे, जिससे भारतीय ज्ञान-विज्ञान पूरी दुनिया के सामने रखे जा सकेगा। देश की आजादी के बाद 1956 में पंडित जवाहरलाल नेहरू ने पहला संस्कृत आयोग बनाया, जिसके अध्यक्ष जाने-माने भाषाविज्ञानी डॉ. सुनीति कुमार चटर्जी थे।

इस आयोग की सिफारिश पर केंद्र सरकार ने तीन संस्कृत शिक्षण संस्थान स्थापित किए। परंपरागत संस्कृत शिक्षा की व्यवस्था को बनाए रखने के लिए राष्ट्रीय संस्कृत विद्यापीठ, तिरुपति में 1961 में, श्री लाल बहादुर शास्त्री राष्ट्रीय संस्कृत विद्यापीठ, नई दिल्ली में 1962 में और राष्ट्रीय संस्कृत संस्थान, नई दिल्ली में 1970 में स्थापित किए गए। अब इन तीनों संस्थानों को केंद्रीय विश्वविद्यालय का दर्जा दिया जा रहा है।

भारतीय संस्कृति की स्नेतभाषा संस्कृत देश को भाषाई तथा सामाजिक एकता में पिरोने का मजबूत सूत्र है। यह सिर्फ पूजा-पाठ और कर्मकांड तक ही सीमित नहीं है, बल्कि इसमें आयुर्वेद, गणितीय प्रणाली, संगीत, शिल्प शास्त्र, वास्तु शास्त्र, कृषि शास्त्र, अर्थशास्त्र, खगोल विज्ञान, चिकित्सा एवं योग समेत कई विधाएं हैं, जो मानव समाज के लिए बहुत उपयोगी हैं। इसमें दर्शन, अध्यात्म और मानवतावादी साहित्य का खजाना है। भारत में जितनी संस्कृतियां जन्मीं और पलीं-बढ़ीं, संस्कृत उनकी आधार भाषा है। संस्कृत का दायरा किसी पंथ, परंपरा या विधान का अनुगामी नहीं है, यह सार्वभौम तथा सार्वकालिक है। इसी नाते ‘सत्यमेव जयते’ और ‘अहिंसा परमो धर्म’ जैसे अमर वाक्य का सिद्धांत सारे धर्मो, पंथों और परंपराओं को स्वीकृत है।

वेद-पुराण और रामायण-महाभारत के श्लोक सनातन परंपरा के वाहक हैं। पर क्या इस नई शुरुआत से संस्कृत के दिन फिरेंगे? चारों ओर यह सवाल उठाया जा रहा है। इस सवाल का संबंध संस्कृत के मौजूदा हालातों से हैं। साल 2011 की जनगणना के हिसाब से मात्र 24,821 लोगों ने संस्कृत को अपनी मातृभाषा बताया है। हालांकि ये आंकड़ा भी पिछली जनगणना से बढ़ा है। साल 2001 में मात्र 14,135 लोगों ने संस्कृत को मातृभाषा बताया था। भारत में मातृभाषा के रूप में दर्ज 22 भाषाओं में संस्कृत सबसे आखिरी पायदान पर है। क्या इससे माना जा सकता है कि संस्कृत आम बोलचाल की भाषा के रूप में लोकप्रिय नहीं है?

आज संस्कृत के शिक्षण संस्थान अच्छे दौर में नहीं हैं। केंद्रीय और राज्यों के संस्कृत विश्वविद्यालयों में विद्यार्थियों की संख्या लगातार घट रही है। शिक्षकों के हजारों पद खाली हैं। शोध और लेखन की गति बहुत धीमी है। आधुनिकता से ताल मिलाने में इन संस्थानों को कई कठिनाइयां हैं। ऐसे में क्या केंद्रीय संस्कृत विश्वविद्यालय की स्थापना प्रभावी होगी? इसका उत्तर किसी के पास नहीं है। अभी संस्कृत अपने अस्तित्व को बचाए रखने के लिए जूझ रही है। क्या संस्कृत का अस्तित्व बना रहना जरूरी है? इस सवाल का जवाब हां और ना में नहीं हो सकता। पर यह सच है कि हिंदी समेत सारी भारतीय भाषाओं के बचे और बने रहने के लिए संस्कृत जरूरी है।

संविधान के अनुच्छेद 351 में लिखा है, राष्ट्रभाषा हिंदी की शब्दावली मुख्य रूप से संस्कृत से ली जाएगी। वस्तुत: जब संस्कृत का हिमालय द्रवित होता है तभी भारतीय भाषाई नदियों में पानी आता है। पर अभी खुद संस्कृत को सहारे की जरूरत है। यह सहारा समाज और सरकार, दोनों को देना होगा। उसे ऐसे आधुनिक शिक्षण केंद्र भी चाहिए, जहां अंतरराष्ट्रीय स्तर पर संस्कृत के अध्ययन एवं शोध का माहौल बनाया जा सके।

आज संस्कृत के पठन-पाठन का क्षेत्र संकीर्ण होता जा रहा है। अर्थागम का कोई समुचित प्रबंध न होने से संस्कृत विद्यालयों में पढ़ने वालों की संख्या बराबर गिरती जा रही है। जो लोग संस्कृत के महत्व को समझते हैं, उनको इस ओर ध्यान देना चाहिए और केंद्रीय तथा प्रादेशिक शासनों पर दबाव डालना चाहिए कि इन बातों के लिए समुचित प्रबंध करें, नहीं तो संस्कृत कहीं मृत भाषा होकर ही न रह जाए। यदि ऐसा होता है तो इसका एक भयंकर परिणाम यह होगा कि आने वाली पीढ़ियों का अपनी संस्कृति के भंडार और उद्गम स्नेत से संबंध टूट जाएगा, जो केवल भारत की ही नहीं समूचे मानव जगत की क्षति होगी।

(लेखक राजस्थान संस्कृत विश्वविद्यालय में असिस्टेंट प्रोफेसर हैं)