[ प्रदीप सिंह ]: चुनावी साल होने के नाते नए साल में राजनीतिक मोर्चे पर काफी कुछ बदलाव अपेक्षित है। बदलाव की अपेक्षा इसलिए भी है, क्योंकि चुनौती भाजपा के समक्ष भी है और कांग्रेस के समक्ष भी। इस अपेक्षा के बावजूद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के प्रशंसकों की मानेंं तो सब कुछ ठीक है और छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश और राजस्थान के चुनाव नतीजों से कुछ खास नहीं बदला है और कांग्रेस का कुछ नहीं होने वाला। जो राहुल गांधी के मुरीद हैैं उनकी सुनें तो लगेगा कि सब बदल गया है और भाजपा बस जाने को है, बल्कि गई समझिए और राहुल गांधी की ताजपोशी का समय आ रहा है। जाहिर है दोनों बातें सच नहीं हो सकतीं। तो फिर सच क्या है? सचाई इन दोनों के बीच कहीं है।

राहुल गांधी के लिए दिल्ली अभी इतनी भी पास नहीं है। लोगों का भरोसा अभी राहुल पर जमा नहीं है और मोदी अभी लोगों के दिल से उतरे नहीं हैं, परंतु शिकायतें तो हैं। मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ में सरकार गंवाने का 2019 के लोकसभा चुनाव की संभावनाओं पर कितना असर पड़ेगा, इस बारे में यकीन के साथ कुछ भी कहना कठिन है। एक बात जरूर यकीन के साथ कही जा सकती है कि भाजपा को विमर्श बदलने की सख्त जरूरत है। प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार बनने के बाद से नरेंद्र मोदी ही देश का एजेंडा सेट कर रहे थे। पिछले छह महीने या कहें कि गुजरात और कर्नाटक विधानसभा चुनाव के बाद से विमर्श बदलने लगा है। कांग्रेस दोनों प्रांतों में हार गई, परंतु माहौल ऐसा बना मानो भाजपा की हार और कांग्रेस की जीत हुई है। बात सिर्फ इतनी नहीं कि राहुल गांधी को लोगों ने गंभीरता से लेना शुरू कर दिया है।

हाल के विधानसभा चुनावों पर गौर करें तो कांग्रेस की तस्वीर वैसी नहीं जैसा विमर्श बन रहा है। मिजोरम में दस साल बाद कांग्रेस सत्ता से बाहर ही नहीं हुई, बुरी तरह हारी। वैसे ही जैसे छत्तीसगढ़ में भाजपा हारी। तेलंगाना जहां 2014 के चुनाव के समय कांग्रेस सत्ता में थी, उसका सूपड़ा साफ हो गया। पांच साल सत्ता से बाहर रहने के बाद भी तेलंगाना का मतदाता कांग्रेस की ओर देखने को तैयार नहीं हुआ। मध्य प्रदेश में 15 साल की सत्ता विरोधी हवा के बावजूद कांग्रेस को बहुमत नहीं मिला, बल्कि भाजपा से कम वोट मिले। राजस्थान में भी दोनों दलों के बीच एक फीसदी वोट का अंतर है। इन तथ्यों के बावजूद विमर्श यह बन रहा है कि भाजपा जा रही है और कांग्रेस आ रही है।

सच यह है कि ब्रैंड मोदी को कोई बड़ा नुकसान नहीं हुआ है। बस उसमें एक ठहराव, थकावट सी आ गई है। जरूरत है इस ब्रैंड के पुनर्युवीकरण की। लोग सातत्य के साथ बदलाव भी चाहते हैं। मनुष्य की नएपन की चाह में कभी ठहराव नहीं आता। यह चाहत निरंतर और सनातन है। मोदी को अपने भाषणों और कथ्य में नएपन की जरूरत है। किसी भी वक्ता और खासतौर से जब वह राजनेता हो तो पे्रडिक्टेबल होना अच्छा नहीं होता। उससे नीरसता आती है। यह बात जब पार्टी के लोग भी महसूस करने लगें तो इसका मतलब है कि कुछ नया करने का वक्त आ गया है। मोदी को अब कुछ नई बातें नए ढंग से लोगों के सामने रखने की जरूरत है।

भाजपा के रणनीतिकारों को यह भी समझना चाहिए कि आक्रामक होने और नकारात्मक होने में फर्क है। नकारात्मकता और आक्रामकता एक सीमा के बाद नुकसान करने लगती हैं। दूसरी बात, अतीत पर एक सीमा से ज्यादा निर्भरता के फायदे समय के साथ तेजी से घटने लगते हैं। केंद्रीय मंत्री नितिन गडकरी के पिछले कुछ दिनों के बयान, बिहार में सीटों के बंटवारे में जो हुआ और दूसरे सहयोगी दलों का रुख, इसका संकेत है कि भाजपा में 160-क्लब फिर से सक्रिय हो गया है। इस बार इस क्लब की अगुआई नितिन गडकरी करते दिख रहे हैं। यह दीगर बात है कि इस क्लब की उम्मीदें 2014 की ही तरह अल्पजीवी होंगी। यह बात आज की परिस्थिति के आधार पर तो कही ही जा सकती है, क्योंकि भाजपा और मोदी से असंतोष, नाराजगी के बावजूद लोग मोदी को एक और मौका देना चाहते हैं। यही जनभावना पार्टी और प्रधानमंत्री की सबसे बड़ी ताकत बनेगी।

भाजपा एक और समस्या का सामना कर रही है और उसे इसका बहुत जल्दी कोई समाधान निकालना पड़ेगा। मोदी ने पिछले साढ़े चार साल में भाजपा का सामाजिक जनाधार बदल दिया है। एक समय जिस पार्टी को ब्राह्मण, बनिया और शहरी मध्यवर्ग की पार्टी माना जाता था वह अब समाज के सबसे गरीब तबके की पार्टी बन गई है। केंद्रीय योजनाओं के लाभार्थियों और पार्टी संगठन की इसमें बड़ी भूमिका है, पर दिक्कत यह है कि पार्टी अपने नए और पुराने जनाधार में सामंजस्य नहीं बिठा पा रही है। कर्नाटक, मध्य प्रदेश और राजस्थान में शहरी वोटर और व्यापारी समुदाय की नाराजगी/उदासीनता उसकी हार का सबब बनी। पार्टी को जल्द से जल्द इस संतुलन को साधना होगा।

साढ़े चार साल के मोदी राज में भ्रष्टाचार, महंगाई और नीतिगत लकवे जैसे मुद्दे मतदाता की नजर में मुद्दे ही नहीं रह गए हैं। राफेल के मुद्दे का वही हश्र होने वाला है जो 2009 में लाल कृष्ण आडवाणी के मनमोहन सिंह को सबसे कमजोर प्रधानमंत्री बताने का हुआ था। भ्रष्टाचार और महंगाई जैसे मुद्दों के विमर्श से बाहर चले जाने से किसानों और बेरोजगारी की समस्या राष्ट्रीय विमर्श के केंद्र में आ गई है।

किसानों की समस्या चाहे जितनी पुरानी हो, यदि मोदी सरकार ने दबाव में आकर कर्ज माफी जैसी मांग को माना तो देश की अर्थव्यवस्था के लिए इससे ज्यादा घातक कुछ नहीं होगा। इससे कोई इन्कार नहीं कर सकता कि किसानों को मदद की जरूरत है। उनकी हर संभव मदद होनी भी चाहिए, पर कर्ज माफी इस मर्ज की दवा नहीं है। इस मुद्दे को कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने इतना खींच दिया है कि अब दूसरे वर्गों के लोग किसानों के खिलाफ बोलने लगे हैं। वे भी अपने लिए कर्ज की माफी की मांग करने लगे हैं। यह गैर जिम्मेदाराना राजनीति राहुल गांधी और कांग्रेस के गले की हड्डी बनने वाली है।

तीन राज्यों में जीत के बावजूद राहुल गांधी के पास कर्ज माफी और मुफ्त-मुफ्त की पुकार लगाने के अलावा कोई मुद्दा नहीं है। भाजपा और मोदी से नाराज मतदाता के लिए भी राहुल गांधी को विकल्प के रूप में चुनना बहुत कठिन होगा। पांच साल बाद मतदाता 2014 के मोदी से 2019 के मोदी में कुछ अलग देखना चाहता है। कंप्यूटर की भाषा में कहें तो नए साल में देश को मोदी वर्जन टू चाहिए। जिसकी पिछली खूबियां तो हों पर कुछ नया भी हो। समय कम है, लेकिन काम मुश्किल नहीं है।

[ लेखक राजनीतिक विश्लेषक एवं वरिष्ठ स्तंभकार हैैं ]