सरकार को ग्रामीण क्षेत्रीय बैंकों की तर्ज पर सहकारी बैंकों के पुनर्गठन की दिशा में कदम बढ़ाने चाहिए

[ डॉ. अजय खेमरिया ]: केंद्र सरकार ने 24 जून को देश के सभी सहकारी बैंकों को भारतीय रिजर्व बैंक यानी आरबीआइ के नियंत्रण में लाने वाले एक महत्वपूर्ण अध्यादेश को मंजूरी दे दी है। ज्ञात हो कि पिछले महीने ही सुप्रीम कोर्ट ने भी इन बैंकों के फंसे हुए कर्ज को सरफेसी एक्ट के तहत वसूलने के आदेश दिए थे। पीएमसी यानी पंजाब एवं महाराष्ट्र बैंक में हुए घोटाले के बाद सहकारी क्षेत्र के र्बैंंकग सेक्टर में बहुप्रतीक्षित सुधार की दिशा में ये दोनों निर्णय बेहद परिणामोन्मुखी साबित हो सकते हैं। देश के करीब 8.6 करोड़ लोगों की 5 लाख करोड़ रुपये से ज्यादा की धनराशि 1482 शहरी सहकारी और 58 बहु-राज्यीय सहकारी बैंकों में जमा है।

राजनीतिक नियंत्रण में संचालित सहकारी बैंकों का कोई मानक व्यवस्था नहीं है

मूलत: राजनीतिक नियंत्रण में संचालित सहकारी बैंकों के एकल नियंत्रण की फिलहाल कोई मानक व्यवस्था नहीं है। रिजर्व बैंक के लगभग प्रत्येक गवर्नर ने सहकारी और खासकर शहरी बैंकों को भारत के र्बैंंकग सेक्टर के लिए खतरा ही बताया है। नोटबंदी के दौरान इनमें से कुछ बैंकों की संदिग्ध गतिविधियों ने सरकार की विवशता को उजागर करने का काम किया था। पीएमसी बैंक में घोटाले के बाद तो भारत सरकार और रिजर्व बैंक, दोनों के सामने इनके एकीकृत नियंत्रण के अलावा कोई विकल्प नहीं रह गया था।

मुंबई और ठाणे जिलों में सीकेपी सहकारी बैंक का लाइसेंस रिजर्व बैंक ने  किया रद

इस बीच मुंबई और ठाणे जिलों में कार्यरत सीकेपी सहकारी बैंक में भी तालाबंदी की स्थिति देख रिजर्व बैंक ने उसका लाइसेंस पिछले महीने ही रद किया। सीकेपी सहकारी बैंक में 11,500 खाताधारकों के 485 करोड़ रुपये अटक गए हैं। इसी साल जनवरी में राघवेंद्र सहकारी बैंक बेंगलुरु में भी ऐसी ही परिस्थिति र्नििमत हो चुकी है। जाहिर है कि नया प्रस्तावित कानून देश भर में फैले सहकारी बैंकों के नियमन और नियंत्रण की दिशा में काम करेगा।

भारत में फिलहाल तीन तरह के सहकारी बैंक कार्यरत हैं

भारत में फिलहाल तीन तरह के सहकारी बैंक कार्यरत हैं जिनमें 58 राज्य सहकारी बैंक, 370 जिला सहकारी बैंक एवं 1482 अर्बन कॉपरेटिव बैंक हैं। इन बैंकों को लाइसेंस तो बैंकिंग रेगुलेशन एक्ट 1949 के तहत आरबीआइ ही देता है, लेकिन इनकी कार्य प्रणाली एवं नियंत्रण राज्यों की रजिस्ट्रार कोऑपरेटिव सोसायटी के पास रहता है। आम तौर पर स्थानीय राजनीति में सक्रिय लोगों के बीच से चुनकर आया एक संचालक मंडल इन्हें प्रशासित करता है। यही इस बड़े र्बैंंकग सेक्टर की सबसे बड़ी कमजोरी है।

सहकारी बैंकों को नियंत्रित करने के लिए कोई तंत्र नहीं है

रिजर्व बैंक के पास इन्हें नियंत्रित करने के लिए कॉमर्शियल बैंकों की तरह कोई तंत्र नहीं है। देश के सभी कॉमर्शियल बैंकों की समग्र रिपोर्ट हर सप्ताह आरबीआइ के पास जाती है और कई मामलों में तो यह प्रतिदिन तक जाती है। सहकारी बैंकों के मामलों में ठीक उलट स्थिति है। साल में एक बार रिजर्व बैंक इनका निरीक्षण कराता है और वह केवल कुछ बुनियादी र्आिथक मामलों तक सीमित रहता है। नतीजतन इन बैंकों में बड़े पैमाने पर हेराफेरी होती है।

संचालक मंडल के दबाब में कार्मिकों की भर्तियां और ब्याज दरें निर्धारित होती हैं

संचालक मंडल के कतिपय दबाब में कार्मिकों की भर्तियां और ब्याज दरें निर्धारित होती है। कर्ज की स्वीकृति में भी बैंकिंग रेगुलेशन की सीमाओं को दरकिनार कर दिया जाता है, जैसा कि पीएमसी, सीकेपी, राघवेंद्र बैंक के मामलों में देखने को मिला। रिजर्व बैंक की 2017 की वार्षिक रिपोर्ट में बैंकिंग जालसाजी के करीब 2000 से अधिक मामले सामने आ चुके हैं। इन बैंकों के लेखा परीक्षण में भी पारदर्शिता का अभाव रहता है। कई बार नेटवर्थ और सीआरआर के गलत आंकड़े दे दिए जाते हैं। संचालक मंडल स्थानीय राजनीतिक लाभ के नजरिये से इन बैंकों की कार्यप्रणाली को सीधे प्रभावित करते हैं। इसीलिए नोटबंदी के दौरान महाराष्ट्र, गुजरात, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश आदि में गंभीर शिकायत सामने आई थीं।

अर्बन बैंक सहकारिता के उद्देश्य से भटक चुके हैं

असल में अर्बन कॉपरेटिव बैंक 1990 के बाद छोटे कारोबारियों के लिए स्थानीय जरूरतों के हिसाब से आरंभ किए गए थे। अधिकतर अर्बन बैंक सहकारिता के पवित्र उद्देश्य से भटक चुके हैं। छोटे कारोबारियों के लिए आर्थिक समावेशी सोच के उलट इन बैंकों में समाज के वे लोग ज्यादा धन जमा करते हैं जो कम समय मे अधिक ब्याज की चाह रखते हैं। ऋण वितरण के लिए जो मानक रिजर्व बैंक तय करता है उनकी प्राय: अनदेखी कर चिन्हित खास लोगों को उपकृत किया जाता है।

सहकारिता बैंकों का दायरा छोटा होने से केंद्रीकृत निगरानी नहीं हो पाती

चूंकि इनका कार्यक्षेत्र एक शहर या जिला रहता है इसलिए इनकी गतिविधियों पर कोई विशिष्ट केंद्रीकृत निगरानी नहीं हो पाती। एक दूसरा पक्ष रजिस्ट्रार कोऑपरेटिव सोसायटी के हस्तक्षेप और नियंत्रण का है। इस पद पर आइएएस पदस्थ रहते हैं जिन्हें बैंकिंग या वित्तीय क्षेत्र में कोई विशेषज्ञता हासिल नहीं रहती। रजिस्ट्रार अन्य सरकारी महकमों की तरह ही इन बैंकों के मामलों को डील करते हैं। राजनीतिक दबाब में अपने यहां प्रस्तुत प्रकरणों को लंबित रखते हैं या फिर बैंक हित के प्रतिकूल निर्णय भी देते हैं।

मोदी सरकार ने बैंकिंग सेक्टर की विसंगतियों को दूर करने के लिए अध्यादेश को दी मंजूरी

मोदी सरकार ने पिछले बजट सत्र में ही इस सेक्टर की विसंगतियों को ध्यान में रखते हुए कानून का मसौदा तैयार किया था। उसके तहत ही यह अध्यादेश लाया गया है। इस बड़े बैंकिंग नेटवर्क को समावेशी बनाने के लिए सरकार आरआरबी यानी ग्रामीण क्षेत्रीय बैंक की तर्ज पर इनके पुनर्गठन का एक कदम और उठा सकती है। क्षेत्रीय ग्रामीण बैंकों की कार्यविधि भी एक लंबे समय तक बुरी तरह गड़बड़ियों का शिकार थी और देश भर में उनका भी सही तरह से कोई नियमन नहीं था।

ग्रामीण क्षेत्रीय बैंक आज बेहतर ढंग से काम कर रहे हैं

बाद में सरकार ने सभी बैंकों का विलय कर 45 क्षेत्रीय बैंक बना दिए। बड़े कॉमर्शियल बैंकों को इनके मालिकाना हक देकर मानक परिचालन उपविधियों का निर्माण किया गया। ग्रामीण क्षेत्रीय बैंक आज बेहतर ढंग से काम कर सरकार के वित्तीय समावेशन के लक्ष्य में अपना महत्वपूर्ण योगदान दे रहे हैं। अर्बन सहकारी बैंकों के मामले में भी ऐसा ही किया जा सकता है। बेहतर होगा राज्य सरकारें भी इन बैंकों के नियंत्रण का राजनीतिक मोह त्याग दें, क्योंकि उनके पास बैंकिंग क्षेत्र के जानकार नहीं हैं।

( लेखक अर्बन सहकारी बैंक के पूर्व अध्यक्ष हैं )