[ पवन दुग्गल ]: आधार पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले से आखिरकार ऊहापोह का एक लंबा दौर खत्म हुआ। शीर्ष अदालत के फैसले ने राष्ट्रीय पहचान से जुड़े इस दस्तावेज को लेकर कई बातें स्पष्ट कर दी हैं। सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय के बाद यह मानने के अच्छे-भले कारण हैं कि आधार भारतीय जनजीवन का केंद्र बिंदु बन गया है। अब आधार को विधिक मान्यता मिल गई है। कुछ अपवादों को छोड़कर सुप्रीम कोर्ट ने आधार अधिनियम को संवैधानिक मान्यता प्रदान कर दी। इसे सरकार और आम लोगों, दोनों के लिए ही राहत भरा कहा जा सकता है। जहां सरकार को कल्याणकारी योजनाओं के वितरण में आधार की अनिवार्यता की मंजूरी मिल गई तो वहीं आम लोगों को तमाम सेवाओं के लिए निजी कंपनियों को आधार की जानकारी साझा करने की बाध्यता से मुक्ति मिल गई। इसके लिए अदालत ने धारा 57 को गैरकानूनी घोषित किया। हालांकि इस फैसले ने आधार को संवैधानिक आवरण मुहैया करा दिया, लेकिन उसकी चुनौतियां कम नहीं हुई हैं।

सरकार इस पर भले ही अपनी पीठ थपथपा ले, पंरतु अब आधार को लेकर उसका रुख-रवैया ही भविष्य में उसकी सफलता और सुरक्षा की दशा-दिशा तय करेगा। इसे इस तरह कहा जा सकता है कि आधार को लेकर अदालत ने तो अपने कर्तव्य की इतिश्री कर ली, लेकिन सरकार का असल काम अभी शेष है।

यह किसी से छिपा नहीं कि आधार को लेकर सबसे ज्यादा बवाल उससे जुड़ी जानकारियों के लीक होने के मसले पर हुआ। इसमें कई निजी कंपनियों की भूमिका संदिग्ध मानी गई। आधार के नियमन का जिम्मा संभालने वाले भारतीय विशिष्ट पहचान प्राधिकरण यानी यूआइडीएआइ ने पिछले साल आधार की सूचनाओं के चलते साइबर सुरक्षा को पैदा हुए खतरे के मामले में 50 से ज्यादा एफआइआर दर्ज कराई थीं। इस लिहाज से मोबाइल सिम से लेकर अन्य सेवाओं-सुविधाओंके लिए आधार की अनिवार्यता खत्म करने से लोगों को निश्चित रूप से राहत मिलेगी और उनकी जानकारियों के दुरुपयोग की आशंका घटेगी। यह वर्तमान और भविष्य के लिहाज से तो ठीक है, लेकिन इससे अतीत में दी गई जानकारियों को लेकर निश्चिंत नहीं हुआ जा सकता।

ऐसे में सरकार के समक्ष सबसे बड़ी चुनौती यह होगी कि निजी कंपनियों के पास आधार से जुड़ी जो जानकारियां हैं उन्हें कैसे नष्ट किया जाए या वापस लाया जाए। सरकार को यह भी सुनिश्चित करना होगा कि उन जानकारियों का कोई दुरुपयोग भी न हो। यह एक तरह से जिन्न को वापस बोतल में बंद करने जैसा काम होगा।

सरकार के समक्ष दो स्तर पर चुनौतियां हैं- एक कानूनी स्तर है और दूसरा तकनीकी। मौजूदा आधार अधिनियम में जानकारियां लीक होने की सूरत में कड़े प्रावधानों का अभाव है तो सरकार को कानून में आवश्यक संशोधनों के माध्यम से कुछ सख्त कदम उठाने होंगे। जल्दबाजी में कानून को पारित कराने के फेर में सरकार इसे पूरी तरह चुस्त-दुरुस्त नहीं बना पाई। दूसरे यानी तकनीकी मोर्चे पर सरकार को सुनिश्चित करना होगा कि इस डिजिटल जानकारी के महासागर में कोई हैकर सेंधमारी न कर सके।

इस मामले में सरकार की ओर से दलील दी गई है कि आधार डाटा 64 बिट फॉर्मेट में इनक्रिप्ट किया गया है जो पूरी तरह सुरक्षित है, लेकिन मौजूदा दौर में ईजाद किए जा चुके शक्तिशाली क्वांटम कंप्यूटरों के माध्यम से इसके अलॉगरिदम में सेंध की आशंका समाप्त नहीं हो जाती। इस संदर्भ में यह तर्क भी गले नहीं उतरता कि आधार की जानकारी 13 फीट ऊंची दीवारों के दायरे में महफूज है, क्योंकि हैकरों को दीवार लांघने की दरकार नहीं होती और वे सात समंदर पार से भी अपने काम को अंजाम दे सकते हैं।

इसमें कोई संदेह नहीं कि राष्ट्रीय पहचान एक बेहद गतिशील और निरंतर आकार लेने वाली कवायद है। इसकी अपनी जटिलताएं हैं जिनसे विकसित देशों को भी पार पाने में मुश्किल पेश आती है। शायद यही वजह है कि ब्रिटेन दस साल पहले ही अपने राष्ट्रीय पहचान अभियान पर विराम लगा चुका और ऑस्टे्रलिया ने अभी हाल में ऐसा किया है। भारत भी इन समस्याओं से अछूता नहीं रहा है।

आधार की शुरुआत से ही उसमें कई खामियां व्याप्त थीं। आरंभ में इसे राष्ट्रीय पहचान के प्रमाणन के रूप में ही देखा गया और इसकी साइबर सुरक्षा के जोखिमों की अनदेखी की गई। इसी वजह से समय के साथ इससे विवाद भी जुड़ते गए। आधार को एक सख्त डाटा सुरक्षा कानून के साथ जोड़ने की जरूरत है। हालांकि सरकार श्रीकृष्णा समिति की सिफारिशों के आधार पर एक सामान्य डाटा सुरक्षा कानून बनाने पर विचार कर रही है, लेकिन आधार की व्यापकता को देखते हुए उसके लिए एक विशेष कानून की आवश्यकता महसूस होती है। तभी आधार की साइबर सुरक्षा सुनिश्चित होगी और वह प्रभावी सिद्ध होगा और आसन्न खतरों को लेकर उसमें प्रतिरोधक क्षमता विकसित हो पाएगी।

समय के साथ आधार का दायरा जितना विस्तृत हुआ उसके साथ चुनौतियां भी उसी अनुपात में बढ़ती गई हैं। शुरुआत में इसे राशन कार्ड जैसे पहचान पत्र की तरह ही लिया गया और लोग इसकी बायोमीट्रिक पहचान को हल्के में लेते रहे जिसका उन्हें खामियाजा भी भुगतना पड़ा। परिणामस्वरूप आए दिन लोगों की जानकारियां लीक होने की सूचनाएं आने लगीं। इसका अर्थ यह था कि आधार से जुड़ा हमारा तंत्र जिम्मेदार और जवाबदेह नहीं रहा। एक ऐसे वक्त जब आधार एक महत्वपूर्ण सूचना ढांचे का रूप ले चुका है तब उसे लेकर सतर्कता और बढ़ानी होगी। इसके माध्यम से देश के लोगों की इतनी जानकारियां जुटाई जा चुकी हैं कि कोई दुश्मन देश साइबर हमले के माध्यम से हमारी व्यवस्था की बुनियाद हिला सकता है। इससे देश की संप्रभुता भी खतरे में पड़ सकती है।

सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बावजूद आधार की राह में खतरे कम नहीं हुए हैं। अब इन खतरों से निपटने की जरूरत है। आधार में सरकार एक सेवाप्रदाता या प्रोत्साहक की भूमिका में है जहां हम सभी अंशधारक हैं। ऐसे में इस तंत्र से जुड़े सभी पक्षों को उचित रूप से परिभाषित किया जाना चाहिए। सरकार द्वारा आधार के विषय में लोगों को जागरूक करना भी जरूरी है ताकि वे अनावश्यक रूप से आधार संबंधित जानकारी साझा न करें। लोगों को भी यह समझना होगा कि यह केवल एक संख्या या पहचान मात्र नहीं, बल्कि उनकी तमाम महत्वपूर्ण जानकारियों का पुलिंदा है जिसका गट्ठर खुलने में उन्हें ही सबसे ज्यादा नुकसान हो सकता है।

आधार पर आए फैसले ने सरकार के समक्ष यह चुनौती बढ़ा दी है कि वह इस पहचान पत्र की हर मोर्चे पर बेहतर तरीके से किलेबंदी करे। साथ ही एक नागरिक और समुदाय के स्तर पर हमें भी अपनी जिम्मेदारी महसूस कर उसका उचित रूप से निर्वहन करना होगा। आधार भारत को सशक्त बनाने का एक महत्वपूर्ण उपकरण साबित हो सकता है। यदि हमने इन सभी बातों पर ध्यान दिया तो निश्चित रूप से आधार हमारी सामाजिक एवं आर्थिक प्रगति का आधार बनने की क्षमता रखता है।

[ लेखक सुप्रीम कोर्ट में अधिवक्ता, साइबर सुरक्षा के विशेषज्ञ एवं इंटरनेशनल कमीशन ऑन साइबर सिक्योरिटी लॉ के चेयरमैन हैं ]