डॉ. अरुण कुमार। बहुप्रतीक्षित राष्ट्रीय शिक्षा नीति में हिंदी भाषा को विकसित करने एवं उसे अध्ययन-अध्यापन के माध्यम के रूप में बढ़ावा देने का सुझाव दिया गया है। यह सुझाव शिक्षा नीति के निर्माताओं की उस चिंता का प्रतिफल है जो उन्हें शिक्षण संस्थानों में हिंदी की स्थिति देखकर हुई थी। वर्तमान में हिंदी के विकास को लेकर तमाम तरह के दावे किए जा रहे हैं। एक दावा यह है कि विश्व में सबसे तेज गति से विकसित होने वाली भाषा हिंदी है। दावे तो यह भी हैं कि हिंदी के विकास की गति कई देशों में उनकी अपनी भाषा के विकास की गति से अधिक है। मूल रूप से ये दावे उन संगठनों द्वारा किए जाते हैं जो कथित तौर पर हिंदी भाषा के विकास पर काम कर रहे हैं। ऊपर से देखने पर इन दावों का एक रूप सच के काफी करीब है तो दूसरे रूप का सच से दूर-दूर तक कोई संबंध नहीं है।

हिंदी के विकास और संवर्धन पर बात करें तो हम देखते हैं कि दूसरे देशों में हिंदी की स्थिति निरंतर ठीक हो रही है। भारत में भी मीडिया, सिनेमा और विज्ञापन के जो क्षेत्र हैं, उनमें भी हिंदी भाषा का प्रयोग निरंतर बढ़ रहा है। इन क्षेत्रों में हिंदी भाषा के विकास में मीडिया और सिनेमा ने महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह किया है और कर भी रहे हैं। दूसरी तरफ भाषाओं का जहां से वास्तविक और टिकाऊ विकास होता है यानी शिक्षण संस्थान, वहां हिंदी की स्थिति संतोषजनक नहीं है। शिक्षण संस्थानों में प्रशासनिक और नीतिगत स्तर पर कई खामियां हैं जिनके कारण विदेशों में बढ़ रही हिंदी यहां कम हो रही है।

प्राथमिक शिक्षा की बात करें तो निजी शिक्षण संस्थानों ने तो हिंदी को एक तरह से तिलांजलि ही दे दी है। ये निजी शिक्षण संस्थान खुद को अंग्रेजी माध्यम का संस्थान के रूप में प्रचारित करने में गर्व की अनुभूति करते हैं। कई शिक्षण संस्थानों ने तो अपने यहां हिंदी बोलने पर पाबंदी तक लगा रखी है। कई निजी शिक्षण संस्थानों में हिंदीबोलने पर विद्यार्थियों को दंडित करने का भी नियम है। अभिभावकों ने भी अपने बच्चों का अंग्रेजी माध्यम के स्कूल में नामांकन कराने को प्रतिष्ठा का विषय बना लिया है। विद्यालय प्रशासन और अभिभावक दोनों को अच्छी तरह पता है कि बच्चे अपनी मातृभाषा में अधिक सहजता से सीखते हैं, इसके बावजूद वे अंग्रेजी के पीछे पड़े हैं। इसमें परीक्षा प्रणाली का भी दोष कम नहीं है। दरअसल परीक्षा प्रणाली अंग्रेजी केंद्रित हो गई है और शिक्षा प्राप्तांक आधारित, इसलिए विद्यार्थी रट कर अत्यधिक अंक प्राप्त करने को ही शिक्षा मान बैठे हैं।

प्राथमिक शिक्षा में हिंदी की दुर्दशा के लिए केंद्रीय माध्यमिक शिक्षा बोर्ड (सीबीएससी) की नीतियों और कार्यो का भी दोष है। सीबीएससी ने प्राथमिक और माध्यमिक स्तर के विद्यार्थियों को हिंदी पढ़ने से छूट दे रखी है। ऐसे देश में जहां हिंदी राष्ट्रभाषा के समान समझी जाती है और जिसे बोलने वालों की संख्या सबसे अधिक है, वहां विद्यालय स्तर पर हिंदी पढ़ने या न पढ़ने की छूट देना कहां तक उचित है, यह समझ से परे है। ऐसा नहीं है कि सीबीएससी ने यह छूट संसद की अनुशंसा पर दी है। यह कैसे हुआ कोई नहीं कह सकता। सीबीएससी ने हिंदी भाषा को पढ़ने या न पढ़ने को लेकर तीन स्तरों पर छूट दी है। विद्यार्थी चाहें तो आठवीं के बाद, दसवीं के बाद या फिर बारहवीं के बाद हिंदी पढ़ना छोड़ सकते हैं। इस छूट से मौका पाकर लाखों विद्यार्थी आठवीं के बाद ही हिंदी पढ़ना छोड़ देते हैं, फिर वे जीवनभर हंिदूी नहीं पढ़ पाते। उनके मन में हिंदी के प्रति एक हीनताबोध जन्म ले लेता है।

उच्च शिक्षण संस्थानों में तो हिंदी की स्थिति और अधिक बुरी है। स्नातक के विद्यार्थियों को हिंदी पढ़ने से छूट दे दी गई है। स्नातक में एक या दो सत्र तक कुछ विशेष विषय के विद्यार्थी ही हिंदी पढ़ते हैं, जबकि सभी सत्रों में हिंदी पढ़ने की अनिवार्यता होनी चाहिए थी। विश्वविद्यालयों के नीति निर्माण में हिंदी के प्राध्यापकों को बहुत कम शामिल किया जाता है। विश्वविद्यालय अपनी स्वायत्तता के नाम पर तमाम तरह के हिंदी विरोधी कानून बनाते हैं, जिनके कारण हिंदी विभाग लगातार सिकुड़ रहे हैं। पूरे भारत में कोई भी ऐसा विश्वविद्यालय नहीं है, जहां हिंदी विभाग में प्राध्यापकों की संख्या बढ़ रही हो। इस संदर्भ में दिल्ली विश्वविद्यालय की तो स्थिति और भी बुरी है। यह भी देखा जाता है कि विद्यार्थियों की समान संख्या होने के बावजूद दूसरे विषयों की तुलना में हिंदी में प्राध्यापक कम नियुक्त होते हैं। उच्च शिक्षण संस्थानों में हिंदी की दुर्दशा का एक अन्य कारण इसका पाठ्यक्रम है। हिंदी का पाठ्यक्रम विचारधारा और गुरु-शिष्य परंपरा केंद्रित है।

राष्ट्रीय शिक्षा नीति ने हिंदी भाषा के विकास और संवर्धन की दिशा में जो सुझाव दिए हैं, यदि उन पर अमल किया जाए तो शिक्षण संस्थानों में स्थिति सुधर सकती है। इसके लिए सरकार को सुझावों से आगे बढ़कर कुछ आदेशात्मक और आवश्यकता पड़ी तो दंडात्मक उपाय करने होंगे। पहली बार भारत का शिक्षा मंत्री एक ऐसे व्यक्ति को बनाया गया है जिसकी पृष्ठभूमि हिंदी साहित्य है। इससे सरकार की हिंदी के विकास के प्रति गंभीरता भी प्रकट होती है। पूरे विश्व में हिंदी का विकास हो यह आवश्यक है, लेकिन उसके टिकाऊ विकास के लिए आवश्यक है कि शिक्षण संस्थानों में हिंदी का विकास हो। जब विद्यार्थी हिंदी सीखेंगे, हिंदी में सीखेंगे तो वे अपने साथ साथ हिंदी का भी विकास कर पाएंगे। हिंदी के विकास की हमारी नीति इसी आधार पर आगे बढ़नी चाहिए।

[असिस्टेंट प्रोफेसर, दिल्ली विश्वविद्यालय]