प्रेमपाल शर्मा: संघ लोक सेवा आयोग (यूपीएससी) द्वारा आयोजित सिविल सेवा परीक्षा के परिणाम देश के युवाओं में एक हिलोर पैदा कर देते हैं। आखिर यही युवा तो उस ‘स्टील फ्रेम’ का हिस्सा बनते हैं जिस पर भारत जैसे महादेश का शासन-प्रशासन टिका है। 2022 की सिविल सेवा परीक्षा के परिणाम कई शुभ संकेत दे रहे हैं। सबसे पहला संकेत तो यही कि पिछले कई वर्षों की तरह महिलाओं द्वारा इस परीक्षा में बेहतर प्रदर्शन करना।

इस बार पहले चार स्थान महिलाओं के ही रहे और शीर्ष 25 में से 14 पर महिलाएं काबिज हैं। कुल 933 सफल उम्मीदवारों में 320 महिलाएं हैं। लगभग 34 प्रतिशत। पिछले दस वर्षों में देश की इस सर्वोच्च परीक्षा में लगातार महिलाओं की संख्या बढ़ी है तो यह उनकी बढ़ती भागीदारी और सामाजिक बदलाव का भी संकेतक है। आप उन्हें लाख हिजाब, घूंघट, पर्दा और खाप की पहरेदारी में रखें, अपने संघर्ष और मेहनत के बूते उनमें बराबरी का जज्बा आ रहा है।

इस बार एक अन्य महत्वपूर्ण पक्ष रहा एक दशक बाद भारतीय भाषाओं के माध्यम से चुने जाने वाले उम्मीदवारों की संख्या तीन प्रतिशत से बढ़कर लगभग नौ प्रतिशत तक होना। 933 में लगभग 70 उम्मीदवार हिंदी और भारतीय भाषाओं के माध्यम से चुने गए। एक और बदलाव यह दिखा कि महाराष्ट्र, राजस्थान और गुजरात जैसे प्रदेशों के बच्चे भी अपना साक्षात्कार हिंदी में देने को प्राथमिकता देते हैं।

इसका कारण यह है कि गांव में सरकारी स्कूलों में कम सुविधाओं में पढ़ने वाले ज्यादातर बच्चे विदेशी भाषा पर वैसा अधिकार नहीं रखते, जितना अपनी भाषाओं और हिंदी पर। यह सच्चे अर्थों में प्रशासन का लोकतंत्रीकरण है, जिसका स्वप्न गांधी, लोहिया और आगे चलकर कोठारी समिति ने देखा था।

1979 में जब सिविल सेवा परीक्षा में भारतीय भाषाओं की शुरुआत की गई थी तो लगभग 20 वर्षों तक उसके उत्साहजनक परिणाम दिखे, लेकिन उसके बाद का दौर अंधकार का रहा, क्योंकि कुछ अंग्रेजीदां नेताओं ने भारतीय भाषाओं को लगातार दबाने का प्रयास किया। 2014 के बाद यह तस्वीर फिर धीरे-धीरे बदल रही है। इस बार अपेक्षाकृत रिक्तियां भी पिछले वर्षों की तुलना में अधिक रहीं।

रेलवे ने भी पिछले दो वर्ष से प्रशासनिक सेवाओं में भर्ती बंद कर रखी थी, उसे सुधार कर इसमें शामिल कर लिया है। राज्यों में आइएएस और आइपीएस कैडर में कमी बनी हुई है और इसीलिए केंद्र एवं राज्यों के बीच प्रतिनियुक्ति के प्रश्न पर टकराव बढ़ रहा है। उम्मीद है आने वाले दिनों में यह कम हो जाएगा।

बहुत सारी अच्छी बातों के साथ-साथ सिविल सेवा परीक्षा की दरारें भी बहुत स्पष्ट हैं। इस बार की टापर इशिता किशोर पिछले दो बार से तीन चरणों में होने वाली इस परीक्षा के प्रथम चरण यानी प्रारंभिक परीक्षा में फेल होती रही थीं। इस बार और पिछले वर्षों के ज्यादातर टापर्स की ऐसी ही कहानी है कि वे कई-कई बार प्रारंभिक परीक्षा में फेल होते रहे और फिर अचानक उन्होंने यूपीएससी में टाप किया। यह इसे दर्शाता है कि प्रारंभिक परीक्षा में जरूर कुछ खामियां हैं। मुख्य परीक्षा की लिखित परीक्षा में मुश्किल से 50 प्रतिशत से ज्यादा अंक पिछले 10 वर्षों में देखे गए हैं।

क्या सीबीएसई में सौ प्रतिशत अंक लाने वाले और इस परीक्षा में अंक लाने वालों में तालमेल बनता है? आखिर देश तो एक ही है फिर परीक्षा की पद्धतियां ऐसी क्यों है, जो कभी युवाओं की हिम्मत तोड़ दें और कभी ऐसा लगे कि लाटरी निकल आई है? 43 वर्ष पहले जब सिविल सेवा परीक्षा के मौजूदा रूप-स्वरूप की शुरुआत की गई थी तब ऐसा नहीं था। सतीश चंद्र कमेटी ने उसे और बेहतर बनाया तो प्रोफेसर वाईपी अलघ के भी कुछ अच्छे सुझाव शामिल किए गए, लेकिन 2011 में पूरी परीक्षा में सीसैट और अंग्रेजी का बोलबाला होने से बुनियादी रूप से कुछ खामियां आ गईं।

यदि देश की सर्वश्रेष्ठ प्रतिभाओं को आकर्षित करना है तो यूपीएससी परीक्षा की तुरंत समीक्षा करनी होगी। इस परीक्षा के आंकड़े बताते हैं कि लगभग 80 प्रतिशत उम्मीदवार इंजीनियर हैं, लेकिन दस प्रतिशत भी वैकल्पिक विषय में इंजीनियरिंग का विषय नहीं लेते। ज्यादातर एंथ्रोपोलाजी, समाजशास्त्र, राजनीति विज्ञान और भूगोल आदि चुनते हैं। आखिर क्यों? कहीं न कहीं हमारी शिक्षा व्यवस्था और नौकरी की परीक्षा प्रणाली में कुछ गड़बड़ है। आइआइटी और एम्स जैसे संस्थानों से निकले नौजवानों की जिस प्रतिभा का इस्तेमाल उनके अपने क्षेत्र में होना चाहिए, उसका सिविल सेवा की मौजूदा प्रणाली में नहीं हो रहा।

संघ लोक सेवा आयोग को यह विचार करने की जरूरत है कि यदि सामाजिक विज्ञान के विषयों के प्रति झुकाव है तो फिर स्कूल-कालेजों में ही कानून और समाज विज्ञान के इन विषयों को शामिल करते हुए बीए प्रशासन या सिविल सेवा जैसे पाठ्यक्रम क्यों नहीं शुरू किए जाएं? नई शिक्षा नीति में व्यावसायिक पाठ्यक्रम शुरू करने और दूसरी कई नई बातें तो की गई हैं, लेकिन जब तक शासन-प्रशासन और शिक्षा की नीतियों में कोई तालमेल न हो तब तक ऐसा कोई भी सुधार लीपापोती से आगे परिणाम नहीं दे सकता।

इस बार लगभग 11 लाख अभ्यर्थियों ने आवेदन किया और करीब साढ़े पांच लाख ने परीक्षा दी। साक्षात्कार के लिए 2,500 अभ्यर्थियों को बुलाया गया। पिछले कई वर्षों से सुनने में आ रहा है कि सरकार साक्षात्कार तक पहुंचे छात्रों के लिए भी रोजगार का कोई विकल्प देगी, लेकिन अभी तक एक कदम भी नहीं बढ़ा जा सका है। आज रोजगार सिर्फ सरकारी नौकरियों में ही नहीं है। सैकड़ों ऐसे उपक्रम और निजी क्षेत्र हैं, जिनमें इन मेधावी बच्चों की प्रतिभा का इस्तेमाल हो सकता है।

(लेखक भारत सरकार में संयुक्त सचिव रहे हैं)