पटना, आलोक मिश्र। Bihar Politics कहते हैं कि राजनीतिक रिश्तों की असली पहचान चुनाव में होती है। ज्यादातर रिश्ते इसी समय बनते और बिगड़ते हैं। अब बिहार में लोक जनशक्ति पार्टी व जनता दल यूनाइटेड के रिश्ते को ही ले लीजिए, इनकी दोस्ती, दोस्ती होकर भी दोस्ती जैसी नहीं लग रही। जबकि लोजपा महागठबंधन की विरोधी होकर भी दोस्त बनी दिखाई दे रही है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और मुख्यमंत्री नीतीश कुमार अपने उद्घाटनों व भाषणों से जो माहौल बनाते हैं, चिराग के बयान उसे पलीता लगाने में देर नहीं लगाते। रघुवंश बाबू (अब नहीं रहे) की तीन दिन की चिट्ठियों से बैकफुट पर आए राजद को एनडीए में चौड़ी होती दरार से अपने मंसूबे झांकते दिख रहे हैं। हालांकि एनडीए को अभी भी उम्मीद है कि घर के चिराग से लगी आग जल्दी ही बुझेगी और उलझन, सुलझ जाएगी।

अभी गत शनिवार को भाजपा अध्यक्ष जेपी नड्डा की मुख्यमंत्री नीतीश कुमार से मुलाकात के तुरंत बाद चिराग पासवान का बयान सामने आया था कि उन्हें न तो नीतीश से कोई दिक्कत है और न ही सीटों को लेकर कोई समस्या है। भाजपा को नीतीश पर विश्वास है। रिश्तों को लेकर उठते सवाल इस बयान के बाद बैठते नजर आए, लेकिन बस चार दिन। मंगलवार की रात चिराग पासवान जेपी नड्डा से मिले और बुधवार को संसदीय दल की बैठक में लोजपा फिर 143 सीटों पर लड़ने को खड़ी हो गई। सुलझते रिश्ते लोजपा की इस बैठक के बाद फिर उलङो-उलङो नजर आए। सियासी गलियारे में इसे लेकर तरह-तरह की चर्चा जारी है। कोई कह रहा है कि सीटों की मोलतोल के लिए लोजपा की यह गीदड़भभकी है, तो कोई इसे उसकी सुनियोजित चाल बता रहा है। तर्क यह कि पिछले विधानसभा चुनाव में दो सीटें पाई लोजपा के पास खोने को कुछ नहीं है, ऐसे में तालमेल कर 24-25 सीटों पर लड़ने से भी उसे कोई फायदा नहीं होने वाला। लंबे समय तक नीतीश विरोध के कारण जदयू का वोट भी उसे नहीं मिलने वाला। ऐसे में 100 सीटें भाजपा के लिए छोड़ अकेले 143 पर लड़ना उसके लिए अगले चुनाव की जमीन तैयार करने वाला साबित होगा। अगर ठीक-ठाक सीटें हासिल होती हैं तो चुनाव बाद सत्ता की चाबी उसके पास रह सकती है। बहरहाल लोजपा की चाल फिलहाल पहेली ही बनी हुई है।

महागठबंधन अपने घाव से परेशान है। चिट्ठी पर चिट्ठी लिख राजद की कार्यशैली पर सवाल उठाने वाले रघुवंश बाबू अब नहीं हैं। लालू से चालीस साल का उनका संबंध जीवन के आखिरी तीन दिनों में लिखी गई चिट्ठियों पर न्योछावर हो गया। अंतिम संस्कार के समय भी चिट्ठियां मुद्दा बनी रहीं। महागठबंधन इसे फर्जी करार देता रहा, जबकि एनडीए इसके जरिये राजद की बखिया उधेड़ने में लगा रहा। रघुवंश बाबू की चिट्ठियों से बैकफुट पर आए महागठबंधन को चिराग के तेवर संजीवनी दिए हुए हैं। एनडीए में चौड़ी होती दरार उसे अपने लिए फायदेमंद दिखाई दे रही है।

महागठबंधन मानकर चल रहा है कि अगर एनडीए में ऊपरी तौर पर सब ठीक भी हो जाए तो निचले स्तर पर अब उनका वोट ट्रांसफर मुश्किल होगा और यह महागठबंधन के लिए मुफीद होगा, बिना कुछ करे-धरे। भ्रष्टाचार और बेरोजगारी का उसका मुद्दा धीरे-धीरे पटरी पर आ रहा है। राजद के बेरोजगार पोर्टल पर लगभग 15 लाख युवा जुड़ भी गए हैं। ऐसे में चिराग के तेवर उसे सूद सरीखे दिख रहे हैं। इन राजनीतिक गुणा-भाग के बीच उद्घाटन-शिलान्यास के बहाने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की वर्चुअल रैलियां जारी हैं। पुल, पुलिया, सड़क, रेल, गैस, कृषि आदि क्षेत्रों के कायाकल्प की घोषणाएं सुíखयां बनी हैं। समय चुनाव का है, इसलिए भाषण में जितना खुद की वाहवाही के लिए समय निर्धारित है, उससे ज्यादा विपक्ष की खाल उधेड़ने में बंटा है।

मोदी-नीतीश की इन वर्चुअल रैली में विकास की बातें तो खूब हो रही हैं, लेकिन दिक्कत आम आदमी को लेकर है कि वह कितना समझ रहा है? वर्चुअल रैली के भाषण भी उसे वर्चुअल लग रहे हैं। युवा इसमें जुट नहीं रहे, आम सभाओं के आदी स्क्रीन पर टिक नहीं रहे और लाइक व अनलाइक का खटराग अलग है। अब वर्चुअल रैली में भाषण की शैली को लेकर शोध जारी है। वीडियो की टाइमिंग को लेकर माथापच्ची हो रही है कि कितने मिनट का बनाया जाए। बातों को आम वोटर तक पहुंचाने के तरीके तलाशे जा रहे हैं। कोरोना को दरकिनार कर गांव-गांव तक शक्ल दिखाने की होड़ शुरू है। देखना दिलचस्प होगा कि कोरोना के कारण इस बदले महासमर में वोटरों तक कौन कितना अपनी बात पहुंचा पाता है?

[स्थानीय संपादक, बिहार]