नई दिल्ली, [अनंत विजय]। कोरोना की दूसरी लहर की वजह से लोगों ने फिर से अपने-अपने घरों से निकलना कम कर दिया है। स्थितियां इस तरह की बनने लगी हैं कि पिछले साल की घटनाएं और स्थितियां याद आने लगी हैं। एक बार फिर से इलेक्ट्रानिक या ई-फॉर्मेट में प्राचीन पुस्तकों का आदान-प्रदान शुरू हो गया है। कुछ ऐसी पुस्तकें भी इस दौरान देखने को मिल रही हैं जो अब अप्राप्य हैं या जिनका प्रकाशन अब नहीं हो रहा है।
पिछले साल जब कोरोना का कहर था तब भी एक ऐसी ही दुर्लभ पुस्तक ई फॉर्मेट में प्राप्त हुई थी। पुस्तक का नाम था ‘सनातन धर्म, एन एलिमेंट्री टेक्स्टबुक ऑफ हिंदी रिलीजन एंड एथिक्स’। इस पुस्तक के लेखक का नाम नहीं था लेकिन इसके कवर पर प्रकाशन वर्ष उन्नीस सौ सोलह और प्रकाशक के तौर पर सेंट्रल हिंदू कॉलेज बनारस के मैनेजिंग कमेटी का उल्लेख था। पिछले साल ये पुस्तक काफी उपयोगी मानी गई थी। अभी एक ऐसी ही महत्वपूर्ण पुस्तक प्राप्त हुई है जिसका नाम है ‘जन जनक जानकी’ जिसके संपादक है सच्चिदानंद वात्स्यायन। वात्स्यायन जी को ज्यादातर लोग अज्ञेय के नाम से जानते हैं। इस पुस्तक के प्रकाशन वर्ष का उल्लेख नहीं है लेकिन ये उन्नीस सौ तिरासी के एक या दो वर्षों के बाद प्रकाशित हुई थी। ये पुस्तक इस अर्थ में भी महत्वपूर्ण है कि इसमें हिंदी के सत्रह महत्वपूर्ण लेखकों के विचार हैं जो एक यात्रा के दौरान उपजे थे।
दरअसल उन्नीस सौ तिरासी में अज्ञेय जी की अगुवाई में लेखकों के एक दल ने बाइस जनवरी से लेकर अठारह मार्च तक दो चरणों में यात्रा की थी। इस यात्रा को ‘जानकी जीवन यात्रा’ का नाम दिया गया था और यात्रा के रूट को ‘सीयराममय पथ’ कहा गया था। पहले चरण में जनकनंदिनी के जन्मस्थान बिहार के सीतामढ़ी से लेकर श्रीराम प्रभु के जन्मस्थान अयोध्या तक और फिर दूसरे चरण में अयोध्या से लेकर चित्रकूट तक की यात्रा की गई थी। इस पुस्तक की भूमिका में इस यात्रा का उद्देश्य भी स्पष्ट किया गया है, ‘यह यात्रा केवल राम-जानकी की कथा से जुड़े स्थलों को देखने के लिए नहीं की गई थी, न ही उसका उद्देश्य रामायण की कथा के भौगोलिक विस्तार के प्रमाण को खोजने के लिए की गई थी। रामायण की, राम-जानकी की कथा का, भारत के जन जीवन में जो महत्वपूर्ण स्थान है, लोक चित्त जिस प्रकार उस कथा से जुड़कर ही अपनी सांस्कृतिक अस्मिता की पहचान बनाता है उसको रेखांकित करने का प्रयास था।‘
जब अज्ञेय जी ने इस यात्रा की योजना बनाई थी तब वो वामपंथ का दौर था और वामपंथी इतिहासकार भारतीय पौराणिक चरित्रों को लगातार मिथक कहकर प्रचारित और स्थापित कर रहे थे। वैसे समय में अज्ञेय ने ‘जानकी जीवन यात्रा’ का आयोजन करके वामपंथियों को सांस्कृतिक मोर्चे पर चुनौती दी थी। यात्रा के पहले अज्ञेय ने पटना में आयोजित पत्रकार वार्ता में कहा भी था कि, ‘महाकाव्य-चेतना राष्ट्र एवं मनुष्य मात्र की भावनात्मक एकता को सार्थक और गतिशील बनाती है। लोकजीवन की प्रेरणा हमेशा से शाश्वत काव्य की उदगम भूमि रही है, आज भी राष्ट्र और मनुष्य मात्र की भावनात्मक एकता को शाश्वत सांस्कृतिक धरातल पर प्रतिष्ठित करने के लिए महाकाव्य-चेतना की अंतर्निहित शक्ति की पुन: खोज करनी पड़ेगी। ‘सीयराममय पथ’ पर अग्रसर होने का सामूहिक संकल्प इसी दिशा में प्रगति का एक संकल्प है।‘
एक लेख में जितेन्द्र सिंह ने लिखा था- ‘आजकल प्राचीन भारतीय इतिहास के विख्यात विद्वान इस विषय पर तीखी बहस चला रहे हैं कि क्या वाल्मीकि रामायण या तुलसीकृत रामचरितमानस में वर्णित मूल कथा अधिक ऐतिहासिक और पुरातन है अथवा वेदव्यास रचित महाभारत की कथा?’ इसके अलावा इस बात पर भी चर्चा हो रही थी कि क्या साहित्य से या पौराणिक ग्रंथों से इतिहास के संकेत मिलते हैं? अज्ञेय इन प्रश्ऩों से सीधे तो नहीं टकरा रहे थे लेकिन परोक्ष रूप से वो ये संकेत करना चाहते थे कि ‘हमारे रचनाकार इतिहास के घटनाचक्र और उसके अनुक्रम से अधिक महत्व माहाकाव्यों के गाथाओं में गुंफित लोकजीवन के शाश्वत सत्य को मानते हैं।‘
‘जानकी जीवन यात्रा’ को ज्यादा समय नहीं बीता है। अड़तीस साल पहले की गई इस महत्वपूर्ण यात्रा और उस यात्रा के बाद लिखे गए लेखों पर आधारित पुस्तक का उपलब्ध ना होना भी कई प्रश्न खड़े करता है। यह प्रश्न स्वाभाविक तौर पर उठता है कि क्या साहित्य के इतिहास की इस महत्वपूर्ण घटना को हाशिए पर डालकर उसको विस्मृत करने का षडयंत्र तो नहीं रचा गया। यह अनायस नहीं है कि सूर्यकांत त्रिपाठी निराला के ‘कल्याण’ पत्रिका में छपे लेखों पर चर्चा नहीं होती, उसका कहीं उल्लेख नहीं मिलता। निराला को वामपंथी साबित करने के लिए उनकी कविताओं की तमाम तरह की व्याख्या हमारे सामने है लेकिन ‘कल्याण’ के ‘कृष्ण भक्ति अंक’ में लिखा उनका लेख नहीं मिलता।
दो साल पहले पटना पुस्तक मेला के दौरान हिंदी के वरिष्ठ कवि लीलाधर जगूड़ी ने एक अनौपचारिक बातचीत में बताया था कि वासुदेव शरण अग्रवाल ने ‘श्रृंगार हाट’ नाम से एक पुस्तक लिखी थी। उस पुस्तक में पौराणिक काल में स्त्रियों के श्रृंगार की विधियों का वर्णन है। ये पुस्तक भी उपलब्ध नहीं है। इस तरह के कई और उदाहरण हैं जहां हिंदी के पूर्वज लेखकों की उन रचनाओं को दरकिनार करने की कोशिश की गई जिसमें भारतीयता और हिंदू धर्म प्रतीकों के बारे में बात की गई हो। हमारे देश के विश्वविद्यालयों के हिंदी विभागों पर वामपंथियों का लंबे समय से कब्जा है लिहाजा इन विषयों पर शोध कार्य भी नहीं हो सका।
नतीजा यह हुआ कि जो पुस्तकें वामपंथी विचारधारा का पोषण नहीं करती थीं और जिनमें भारतीयता और यहां के लोक-तत्व मिलते थे वो ओझल होते चले गए। देश के लेखन की विरासत से पीढ़ियों को दूर करने का या उसके बारे में उनको अंधेरे में रखने का जो अपराध पूर्व में हुआ है, उसके लिए किसी को दंडित तो नहीं किया जा सकता है। उसका प्रायश्चित तो किया ही जा सकता है। प्रायश्चित इस रूप में कि उन अनुपलब्ध पुस्तकों को आधुनिक रूप में प्रकाशित करके युवा पीढ़ी तक पहुंचाने का उपक्रम हो । सरकार की सांस्कृतिक संस्थाओं को पहल करनी चाहिए और इस संकट के समय में जितनी पौराणिक पुस्तकें लोगों के पास पहुंच रही हैं उसको जमा कर, उसकी प्रामाणिकता जांचने के बाद उसको प्रकाशित करने की दिशा में प्रयास किया जाना चाहिए।