[शिवानंद द्विवेदी]। नागरिकता संशोधन कानून यानी सीएए के विरोध को लेकर दिल्ली के शाहीन बाग से शुरू हुई आंच ने 24-25 फरवरी को दिल्ली के उत्तर-पूर्वी हिस्से में दावानल की शक्ल ले ली। दुखद यह है कि जिस आक्रोश की सुलगती आग पर दंगाइयों ने अपने मंसूबों को अंजाम दिया, उस आक्रोश की कोई वाजिब वजह ही नहीं है। सीएए से भारत के किसी भी नागरिक, चाहे वो किसी भी धर्म का हो, उसकी नागरिकता नहीं जा रही, इस बात को कहना भी दोहराव लगता है। कहावत है कि गहरी नींद में सोने वाले को तो एक झटके में जगाया जा सकता है, किंतु सोने का स्वांग रचने वाले को जगाने में कठिनाई होती है, क्योंकि उसका जागना भी एक स्वांग ही है।

जिस अकारण आक्रोश की बुनियाद पर इस सुनियोजित जैसे हिंसक फसाद को जन्म दिया गया, उस आक्रोश को हवा देने वाले राजनीतिक दलों की भूमिका पर सवाल उठने स्वाभाविक हैं। हालांकि जब ऐसे सवाल उठते हैं तो अक्सर इतिहास की मिसालों के सहारे आरोप-प्रत्यारोप शुरू हो जाता है। अमूमन कांग्रेस पार्टी भाजपा पर सांप्रदायिकता का आरोप लगाकर सेक्युलरिज्म की सीढ़ियां चढ़ने लगती है। भारतीय राजनीति में ‘सांप्रदायिकता बनाम सेक्युलरिज्म’ की राजनीति का भी एक अनोखा चरित्र रहा है। सांप्रदायिकता का हवाला देकर सरकार बनाने और गिराने से लेकर अनैतिक राजनीति की अनेक मिसाल मौजूद हैं।

मानो ‘सांप्रदायिकता’ से जंग के नाम पर कुछ भी करने की स्वतंत्रता उन्हें मिली है। जिस भ्रम की नींव पर यह आक्रोश पैदा किया गया, उस नींव की पहली ईंट कांग्रेस पार्टी की अध्यक्ष द्वारा ‘आर या पार के लिए सड़क पर उतरने की उकसाऊ’ अपील के रूप में रखी गई। अब जब उनके बयानों से उपजे आक्रोश ने दिल्ली को हिंसा की आग में झोंक दिया, तब वे फिर सांप्रदायिकता की बहस में भाजपा को घेरने की कोशिश कर रहे हैं। किंतु कांग्रेस के नेता यह भूल रहे हैं कि दंगों का इतिहास उनके ही दामन को दागदार करने वाला है।

इतिहास के बारे में अनोखी बात यह है कि हम जहां से इसे पढ़ना शुरू करते हैं, उससे पहले का भी कुछ न कुछ इतिहास होता है, जो उस इतिहास के लिए जिम्मेदार होता है, जिसे हम पढ़ रहे होते हैं। देश के सात दशकों के लोकतांत्रिक इतिहास में सैकड़ों छोटे-बड़े दंगे हुए हैं। यह भी अपना-अपना चयन है कि हम दंगों का इतिहास कहां से पढ़ना चाहते हैं। आप स्वतंत्र हैं कि आजाद भारत के दंगों का इतिहास गुजरात- 2002 से पढ़ना शुरू करें या 1992 के अयोध्या प्रकरण से या आप चाहें तो 1989, 1984, 1964 या फिर 1947 से भी शुरू कर सकते हैं।

आजाद भारत की राजनीतिक परिस्थितियां कुछ ऐसी तैयार की गई हैं कि हम दंगों का इतिहास गढ़ते भी अपनी सुविधानुसार हैं और उसे पढ़ते भी अपनी सुविधानुसार ही हैं। चुनावों के दौरान दंगों के इतिहास को बहस के केंद्र में लाने में कांग्रेस के नेता खुद ऐसे विषयों को घसीटकर चुनाव के अखाड़े में लाना चाहते हैं। दंगों का राजनीति से संबंध इतना गहरा है कि खुद को पारंपरिक राजनीति से इतर बताने वाले अरविंद केजरीवाल भी इसी दलदल में कूद-नहा रहे हैं। दंगों के मामले में सेक्युलरिज्म के झंडाबरदारों का इतिहास दर्शन बेहद चयनात्मक है। वे दंगों का इतिहास गुजरात-2002 से पढ़ना पसंद करते हैं।

इतिहास पर अगर संक्षिप्त नजर डालें तो 1964 में राउरकेला में दंगा हुआ, जबकि 1967 में रांची में दंगा और 1969 में अहमदाबाद में दंगा हुआ था। दंगों की कड़ी यहीं नहीं रुकती, बल्कि बढ़ती जाती है। 1970 में भिवंडी दंगा, 1979 में जमशेदपुर दंगा, 1980 में मुरादाबाद दंगा, 1983 में असम के नेल्ली में दंगा हुआ। सांप्रदायिक नरसंहार का एक सबसे कुरूप चेहरा दिल्ली में 1984 का सिख विरोधी दंगा है जिसमें तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की हत्या के बाद संगठित ताकतों द्वारा सिखों को बेरहमी से मारा गया था। गुजरात में 2002 से पहले भी दो या तीन बड़े दंगे हो चुके थे और वह भी तब, जब भाजपा का राजनीति में वजूद ही नहीं था और कांग्रेस देश में सबसे बड़ी पार्टी हुआ करती थी। लेकिन दंगों के इस पूरे इतिहास पर जिस ढंग से पर्दा डालकर धर्मनिरपेक्षता बनाम सांप्रदायिकता की राजनीति करने का प्रयास किया गया है, वह इस बात की तस्दीक करता है कि कांग्रेस इस कुंद पड़ चुके राजनीतिक हथकंडे से उबर नहीं पा रही है।

यह इस देश की राजनीति में एक अचूक हथियार बन चुका है कि अपनी नाकामी पर पर्दा डालने व सत्ता के गठजोड़ को कायम करने के लिए सांप्रदायिकता बनाम धर्मनिरपेक्षता का मुद्दा उछाल दिया जाए। गत तीन दशकों में उभरी जातिवाद की राजनीति ने हिंदू मतदाताओं को जाति की दीवारों में बांटने का काम किया, परिणामस्वरूप तुष्टिकरण की राजनीति को कांग्रेस जैसे दलों ने मुस्लिम वोटबैंक को हथियाने का साधन बनाया। वर्ष 2014 में देश की राजनीति में हुए परिवर्तन ने जातिवाद की दीवार को दरका कर जातिवादी राजनीति को कमजोर किया। नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में भाजपा ने सभी वर्गों के बीच स्वीकार्यता बढ़ाई।

जैसे जैसे जातिवादी राजनीति कमजोर हुई, वैसे वैसे तुष्टिकरण का हथियार असरहीन होता गया। अत: तुष्टिकरण की राजनीति के भरोसे सत्ता का सपना देखने वाले अस्थिरता और फसाद को हवा देने में सक्रिय हो रहे हैं। खैर देश में दंगों के इतिहास में जितना भीतर जाएंगे, उतने ही गहरे जवाब मिलेंगे। अत: दंगों की राजनीति कहां से शुरू होती है और कौन किस तरह की सांप्रदायिकता के लिए जिम्मेदार है, इसका सही जवाब तो इतिहास ही दे सकता है।

[सीनियर रिसर्च फेलो, डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी रिसर्च फाउंडेशन]