नई दिल्ली, [अनंत विजय]। आज पूरे देश के शहरी इलाकों में ऑक्सीजन को लेकर त्राहिमाम है। अदालतें ऑक्सीजन की सप्लाई को लेकर सरकार पर सख्ती बरत रही हैं, सरकारें ऑक्सीजन के उत्पादन और वितरण में रात दिन लगी हुई हैं। अस्पतालों में ऑक्सीजन के संयत्र लगाए जा रहे हैं, ऑक्सीजन वितरण के लिए विदेशों से टैंकर मंगाए जा रहे हैं। ऑक्सीजन के छोटे सिलिंडरों की कालाबाजारी हो रही हैं। विदेशों से ऑक्सीजन कंसंट्रेटर मगंवाए जा रहे हैं। समाजसेवी संस्थाएं और सक्षम लोग इन ऑक्सीजन कंसंट्रेटर का वितरण कर रहे हैं।

ऐसा प्रतीत हो रहा है कि कोरोना जैसी महामारी से निबटने के लिए ऑक्सीजन बेहद आवश्यक है। है भी। लेकिन क्या हमने कभी सोचा कि हमने प्रकृति के साथ अबतक क्या किया और अब इन कंसंट्रेटर के माध्यम से क्या करने जा रहे हैं। क्या हमारे वायुमंडल में मौजूद ऑक्सीजन की मात्रा पर इन कंसंट्रेटर का असर नहीं पड़ेगा? गर्मी के बढ़ने के साथ एरकंडीशनर का उपयोग बढ़ेगा और कार्बन उत्सर्जन में बढ़ोतरी होगी। याद करिए अमेरिका में कोरोना की पहली लहर का कितना भयानक असर हुआ था और उसने कैसी तबाही मचाई थी। वो तब था जब अमेरिका दुनिया का सबसे अधिक विकसित देश है और वहां स्वास्थ्य सेवाएं बहुत अच्छी हैं।

दरअसल हम तथाकथित आधुनिकता की अंधी दौड़ में इस कदर शामिल हो गए कि अपने भारतीय मूल्यों को लगातार बिसरते चले गए। हमारे देश में प्रकृति को लेकर एक अनुराग प्राचीन काल से रहा है। प्रकृति और पेड़ों को तो हमारे यहां भगवान मानकर पूजने की परंपरा रही है। हमारे पौराणिक ग्रंथों में वृक्षों और पौधों को लेकर कई तरह की मान्यताओं की बात कही गई है। पीपल, वट, तुलसी आदि की तो पूजा तक की जाती रही है। इन वृक्षों और पौधों को लेकर लोक में जो मान्यता है वो उनको धर्म से भी जोड़ती हैं।

महाभारत के आदिपर्व में एक श्लोक में घने वृक्षों की महिमा का वर्णन है। कहा गया है कि किसी भी गांव में घुसते ही जब आपको कोई वृक्ष दिखाई देता है जो पत्तों से छतनार हो और फलों से लदा हुआ हो तो वो अपने विशिष्ट लक्षणों के कारण प्रसिद्ध होता है। आसपास के लोग उस वृक्ष की पूजा करते हैं। वैदिक साहित्य में भी वृक्ष की महिमा का विस्तार से उल्लेख मिलता है। हिंदू धर्म के अलावा बौद्ध और जैन धर्म में भी वृक्षों की पूजा की एक सुदीर्घ परंपरा रही है। यह अनायास नहीं है कि बुद्ध और तीर्थंकर के नाम के साथ एक पवित्र वृक्ष भी जुड़ा हुआ है जिसे बोधिवृक्ष कहते हैं। हिंदू धर्म में भी कल्पवृक्ष की मान्यता है जो लोक में व्याप्त है।

मान्यता ये है कि देवता और असुरों के समुद्र मंथन के समय ही कल्पवृक्ष का जन्म हुआ जिसको स्वर्ग में इंद्र देवता के नंदनवन में लगा दिया गया। लोक में इस कल्पवृक्ष की मान्यता के अलावा इसका उल्लेख कई ग्रंथों में मिलता है। उन ग्रंथों में इस वृक्ष को उत्तरकुरू देश का वृक्ष माना गया है। महाभारत में भी उत्तरकुरु देश में सिद्ध पुरुषों के रहने का वर्णन मिलता है और उस वर्णन के दौरान ऐसे वृक्ष का उल्लेख मिलता है जो हमेशा फलता फूलता रहता है। हमेशा हरा भरा रहता है। कुछ इसी तरह का वर्णन रामायण में भी मिलता है। सुग्रीव जब सीता को खोजने के लिए अपनी वानर सेना को उत्तर दिशा की ओर भेज रहा होता है तब वो अपनी सेना से कहते हैं कि इस दिशा के अंत में उत्तरकुरु प्रदेश है। उस प्रदेश की पहचान ये है कि वहां वहां वैसे वृक्ष मिलेंगे जो सदा फलते-फूलते रहते हैं। उन वृक्षों से ही उस प्रदेश की पहचान है।

इसके अलावा भी अगर हम अपनी परंपराओं पर विचार करें तो हमारे यहां उद्यानों की बहुत पुरानी परंपरा दिखाई देती है। आज जिसे किचन गार्डन कहकर महिमा मंडित किया जाता है उसकी जड़े हमारे पौराणिक समय में ही देखी जा सकती हैं। काव्यादर्श में तो स्पष्ट कहा गया है कि ‘महाकाव्य का स्वरूप तबतक पूरा नहीं समझा जा सकता है जबतक उसमें उद्यान क्रीड़ा या सलिल क्रीडा का वर्णन न हो।‘ मुगल काल में भी इसी परंपरा को बढ़ाते हुए गृह-उद्यान की परंपरा को अपनाया गया और उसको नजरबाग कहा गया। शासकों और राजाओं के उद्यान लीला का वर्णन साहित्यिक रचनाओं में भी मिलता है। उन उद्यानों में पेड़ों की कतार और उसके बीच छोटे छोटे तालाब या जलकुंड का उल्लेख मिलता है। धर्म से लेकर लोक तक में प्रकृति के साथ जो संबंध थे वो कालांतर में बाधित होते चले गए। जिसका असर हमारे जीवन पर पड़ा।

आधुनिकता और शहरीकरण के अंधानुकरण के दबाव में हमने खुद को प्रकृति के दूर करना आरंभ किया। विकास के नाम पर प्रकृति से खिलवाड़ का खेल खतरनाक स्तर पर पहुंच गया। पेड़ों की जगह गगनचुंबी इमारतों ने ले ली। हाइवे और फ्लाइओवर के चक्कर में हजारों पेड़ काटे गए। ये ठीक है कि विकास होगा तो हमें इन चीजों की जरूरत पड़ेंगी लेकिन विकास और प्रकृति के बीच संतुलन बनाना भी तो हमारा ही काम है।

अगर हम पेड़ों को काट रहे हैं तो क्या उस अनुपात में पेड़ लगा रहे हैं। हमने नीम, पीपल और बरगद के पेड़ हटाकर फैशनेबल पेड़ लगाने आरंभ कर दिए थे, बगैर ये सोचे समझे कि इसका पर्यावरण और प्रकृति पर क्या असर पड़ेगा। आज जब ऑक्सीजन को लेकर हाहाकार मचा है तो हमें फिर से नीम और पीपल के पेड़ों की याद आ रही है। आज मरीज की जान बचाने के लिए कंसंट्रेटर का उपयोग जरूरी है पर उतना ही जरूरी है उसके उपयोग को लेकर एक संतुलित नीति बनाने की भी।

आज हम कोरोना की महामारी से लड़ रहे हैं, ये दौर भी निकल जाएगा। हम इस महामारी के प्रकोप से उबर भी जाएंगे लेकिन प्रकृति को जो नुकसान हमने पहुंचा दिया है उसको जल्द पाटना मुश्किल होगा। कोरोना की महामारी ने हमें एक बार इस बात की याद दिलाई है कि हम भारत के लोग अपनी जड़ों की ओर लौटें, हमारी जो परंपरा रही है, हमारे पूर्वजों ने जो विधियां अपनाई थीं, उसको अपनाएं। हम पेड़ों से फिर से रागात्मक संबंध स्थापित करें, उनको अपने जीवन का हिस्सा बनाएं।