नई दिल्ली, अनंत विजय। साहित्य अकादमी ने हिंदी कवयित्री अनामिका को उनके कविता संग्रह ‘टोकरी में दिगंत, थेरीगाथा’ पर पुरस्कार देने की घोषणा की है। इसी तरह अंग्रेजी कवयित्री अरुंधति सुब्रहमण्यम को भी साहित्य अकादमी सम्मान की घोषणा की गई है। हिंदी कविता में तो स्त्री स्वर को पहली बार साहित्य अकादमी ने सम्मानित किया है।

अनामिका और अरुंधति का नाम जब पुरस्कृत होने वाले रचनाकारों की सूची में देखा तो मेरा ध्यान अकादमी की उस आलोचना की ओर चला गया जिसमें बार बार ये कहा जाता है कि अकादमी अब कृति को ध्यान में रखकर नहीं बल्कि लेखकों की उम्र को ध्यान में रखकर पुरस्कृत करती है। पिछले कई वर्ष के पुरस्कारों पर लिखते हुए ऐसा लगा भी था। उन्नीस सौ तिरासी में जब गुजराती के लेखक सुरेश जोशी को उनकी पुस्तक ‘चिंतयामि मनसा’ के लिए पुरस्कार देने की गोषणा की गई तो उन्होंने पुरस्कार लेने से इंकार कर दिया था।

सुरेश जोशी का कहना था कि उनकी किताब में छिटपुट लेख हैं, जो पुरस्कार के लायक नहीं हैं। उन्होंने ये भी कहा था कि अकादमी सामान्यतया उन्हीं लोगों को पुरस्कृत करती है जो ‘चुके हुए लेखक’ हैं। तब इसका प्रतिवाद अकादमी के अध्यक्ष गोकाक ने किया था। उन्होंने कहा था कि ‘यह पता लगाना दिलचस्प होगा कि एक लेखक अपनी रचनात्मक शक्तियों के शिखर पर कब कार्यरत होता है। कब वह बिना चुकी हुई शक्ति होता है? यह कहना मुश्किल होगा।

आयु वर्ग को ध्यान में रखते हुए, हम नहीं कह सकते कि मनुष्य तीसवें वर्ष में, चालीसवें वर्ष में, पचासवें या साठवें में अपने लेखन के प्रखर रूप में होता है। हो सकता है कि कुछ अद्भुत ‘लड़के’ चट्टान की तरह हों या थोड़ा उम्रदराज शेली या किट्स की तरह हों। वर्ड्सवर्थ की प्रतिभा का उम्र बढ़ने के साथ ह्रास हुआ लेकिन रवीन्द्रनाथ जैसे लेखक भी थे जिनकी रचनात्मक ऊर्जा सत्तर पार भी अक्षुण्ण रही। उम्र के आधार पर इस तरह प्रतिभा का सामान्यीकरण नहीं किया जा सकता।

हम अकादमी से यह भी उम्मीद नहीं कर सकते कि लोगों को वह पता लगाने के लिए तैयार करें कब कोई साहित्यिक शक्ति नीचे की ओर जाए और उसे ऊंचाई पर पकड़ ले। साल दर साल पैनल बदलता रहता है और उन्हें उन्हीं साहित्यिक कृतियों को चुनना पड़ता है जो उस खास वर्ष में प्रकाशित पुस्तकों में उत्कृष्ट होती है।‘ अनामिका और अरुंधति को पुरस्कार ‘चुके हुए लेखकों’ को पुरस्कृत करने की धारणा का निषेध करते हैं।

अनामिका साठ साल की हैं और अरुंधति तो और भी युवा हैं। अगर हम सिर्फ हिंदी की कृतियों को देखें जिनको पुरस्कृत करने पर विचार हुआ तो स्थिति और साफ होती है। इस वर्ष पुष्पा भारती की कृति यादें, यादें और यादें, सूर्यबाला की कौन देस को वासी: वेणु की डायरी, ममता कालिया की कल्चर वल्चर, श्रीप्रकाश मिश्र की कि जैसे होना-एक खतरनाक संकेत, केंद्रीय शिक्षा मंत्री की पुस्तक भारतीय संस्कृति, सभ्यता और परंपरा, ज्ञान चतुर्वेदी का उपन्यास पागलखाना. पंकज चतुर्वेदी का कविता संग्रह रक्तचाप और अन्य कविताएं, दया प्रकाश सिन्हा का नाटक सम्राट अशोक, जानकी प्रसाद शर्मा की आलोचनात्मक कृति उर्दू अदब के सरोकार, नीरजा माधव की पुस्तक देनपा:तिब्बत की डायरी, विजय बहादुर सिंह का कविता संग्रह अर्धसत्य का संगीत, मदन कश्यप का कविता संग्रह अपना ही देश और अनामिका के कविता संग्रह पर जूरी के सदस्यों ने विचार किया।

बताया जा रहा है कि इस बार जूरी के सदस्यों के बीच लंबे समय तक मंथन होता रहा। खासतौर पर अनामिका और दयाप्रकाश सिन्हा की कृतियों की उत्कृष्टता को लेकर लंबा विमर्श हुआ। अंतत: जूरी ने सर्वसम्मति से अनामिका की कृति को पुरस्कृत करने का फैसला लिया। वर्ष दो हजार बीस की सूची को देखकर ऐसा लगता है कि इसमें हर उम्र के लेखकों की अपेक्षाकृत बेहतर कृतियां हैं, एक दो को छोड़कर। इस वजह से इस बार साहित्य अकादमी पुरस्कार को लेकर विवाद नहीं उठा है।

पूर्व में साहित्य अकादमी पुरस्कारों को लेकर जिस तरह के प्रसंग उसके इतिहास में दर्ज हैं उससे तो लगता है कि विवाद सही ही उठते रहे हैं। हिंदी के लिए साहित्य अकादमी पुरस्कार में अपने-अपनों को उपकृत करने के कई उदाहरण हैं। सबसे बड़ा तो यही है कि उन्नीस सौ इकहत्तर में नामवर सिंह को उनकी कृति ‘कविता के नए प्रतिमान’ के लिए जब पुरस्कार दिया गया तो उनके गुरू हजारी प्रसाद द्विवेदी हिंदी भाषा के संयोजक थे। दो साल बात जब उन्नीस सौ तिहत्तर में हजारी प्रसाद द्विवेदी को उनके निबंध संग्रह ‘आलोक पर्व’ के लिए पुरस्कृत किया गया तो नामवर सिंह हिंदी भाषा के संयोजक थे।

गुरू शिष्य परंपरा का शानदार उदाहरण है। इसी तरह से अशोक वाजपेयी को जब उनके कविता संग्रह ‘कहीं नहीं वहीं’ पर पुरस्कृत किया गया तो वो संस्कृति मंत्रालय में संयुक्त सचिव थे। साहित्य अकादमी संस्कृति मंत्रालय से ही संबद्ध स्वायत्त संस्था है। तब इसको लेकर काफी विवाद हुआ था और वामपंथियों ने भी खूब हो हल्ला मचाया था। उस वक्त अशोक वाजपेयी वामपंथियों पर लगातार हमले करते रहते थे और वामपंथी भी उनको घेरने का कोई मौका नहीं छोड़ते थे।

जब भी वामपंथियों का साहित्य अकादमी में दबदबा रहा, जो कि बहुत लंबे समय तक रहा, तब उन्होंने अपनी विचारधारा के औसत लेखकों को पुरस्कृत किया। इन सबके पीछे हिंदी भाषा के उस वक्त के संयोजकों की प्रमुख भूमिका रहती थी। यह अकारण नहीं है कि हिंदी के शीर्ष कवि सूर्यकांत त्रिपाठी निराला को, मैथिलीशरण गुप्त को, महादेवी वर्मा को अकादमी ने पुरस्कार योग्य नहीं समझा।

और तो और हिंदी कहानी को अपनी लेखनी से एक नई दिशा देनेवाले कथाशिल्पी फणीश्वरनाथ रेणु को भी साहित्य अकादमी ने पुरस्कृत नहीं किया। वीरेन डंगवाल, उदय प्रकाश, राजेश जोशी आदि को दिए गए पुरस्कार किसी न किसी वजह से विवादित हुए। साहित्य अकादमी पुरस्कारों को लेकर इतने विवाद उठे हैं कि उसपर एक पुस्तक लिखी जा सकती है। अब अगर पिछले कुछ सालों से अकादमी के पुरस्कारों को लेकर विवाद नहीं उठ रहे हैं तो ये अच्छा संकेत है और अकादमी की साख को गाढ़ा भी करता है।