इस होली भारत-भ्रमण को तैयार महाकवि कालिदास स्वर्गधाम में बड़ी बेचैनी से अपने शिष्य सदानंद की प्रतीक्षा कर रहे थे। उसे उन्होंने भारत की वर्तमान परिस्थितियों का आकलन करने भारत-भूमि भेजा था ताकि उनकी अपनी यात्रा सहज और सुगम हो सके। सदानंद होली के कुछ दिन पहले ही लौट सका। उसके आगमन का समाचार मिलते ही कालिदास ने उसे स्वर्ग धाम के सभागार में उपस्थित होकर भारत भ्रमण का वृत्तांत सुनाने को कहा ताकि सभी इससे अवगत हो सकें कि आज का भारत कैसा है?

यह वृत्तांत कुछ ऐसा था-

सदानंद, ‘गुरुवर, आपको यह आभास तो होगा ही कि वर्तमान भारत पहले से बहुत भिन्न है। इस भिन्नता के बाद भी वहां की यात्रा आपको आनंद

देगी, लेकिन यात्रा में कुछ बाधाएं आ सकती हैं और पहली बाधा तो विमान यात्रा में ही आ सकती है। कोई विदूषक आपसे शास्त्रार्थ करने का हठ कर सकता है। यदि कहीं उसे यह ज्ञात हो गया कि आप साहित्य- संवाद का सृजन करते हैं तो वह आपकी रचनाओं में खोट निकालकर आपको भला-बुरा कह सकता है।’

कालिदास, ‘अच्छा ऐसा! लेकिन यदि मैं मौन धारण किए रहूं तब तो वह हठी विदूषक हतोत्सहित हो जाएगा?’

सदानंद, ‘कुछ कह नहीं सकते गुरुवर। इसका अंदेशा अवश्य है कि वह उन्मत्त होकर आप पर अपशब्दों की बौछार करने लगे।’

कालिदास, ‘क्या अन्य व्यक्ति ऐसे दुराचरण की निंदा करने आगे नहीं आएंगे?’

सदानंद, ‘आएंगे गुरुवर लेकिन कुछ ऐसे भी होंगे जो इसे दुराचरण मानेंगे ही नहीं और उलटे यह कहकर उसका उत्साहवर्धन करेंगे कि उसने बड़ा ही उत्तम कार्य किया।’

कालिदास, ‘क्या ये भी विदूषक होंगे?’

सदानंद, ‘नहीं-नहीं गुरुवर। ये तो वे होंगे जो स्वयं को ज्ञानवान, बुद्धिमान कहते हैं और यह मानते हैं कि किसी को कुछ भी कहने के उनके अधिकार की हर हाल में रक्षा होनी चाहिए, अन्यथा सहिष्णुता में कमी आ जाती है। इसमें कोई कमी न आए, इसके लिए वे मय-समय पर अपने उन पुरस्कारों को लौटाने के लिए मचल उठते हैं जो उन्हें कभी मिले ही नहीं होते।’

कालिदास, ‘ओह हो.. कैसी बहकी-बहकी बातें कर रहे हो। चलो ठीक है... और कोई बाधा तो नहीं?’ सदानंद, ‘नहीं गुरुवर! भारत भ्रमण इतना सरल भी नहीं। आपको एक स्थान से दूसरे स्थान पर जाने से पहले इसकी चिंता करनी होगी कि कहीं मार्ग अवरुद्ध तो नहीं है! मैं जब दिल्ली नगर से निकटवर्ती प्रांत जा रहा था तो वह मार्ग अवरुद्ध था। वहां एकत्रित जन समुदाय उन्हें ही निकलने दे रहे थे जो या तो विद्यार्थी थे या चलने-फिरने में असमर्थ रोगी या फिर मृतक। वे शव यात्राओं को भी सहर्ष निकलने दे रहे थे। मैं भी एक शव यात्रा की ओट लेकर वहां से निकल पाया था।’

कालिदास, ‘अरे! क्या कह रहे हो? कौन थे वे और क्या चाहते थे? क्या वे भी विदूषक थे? तुमने उनसे वार्तालाप क्यों नहीं किया?’

सदानंद, ‘धैर्य धारण करिए गुरुवर। सब प्रश्नों का उत्तर देता हूं। पहली बात तो वे विदूषक नहीं थे। वे स्वयं को सामान्य नर-नारी बता रहे थे। वे उस नागरिकता विधान से कुपित थे जो उनके लिए है ही नहीं। मैंने उनसे यह जानने का खूब प्रयत्न किया कि वे ऐसे किसी विधान से क्षुब्ध कैसे हो सकते हैं जो उनके लिए है ही नहीं! इस पर वे आवेश में आ गए और मुझे भक्त कहने लगे। मैंने आपका नाम लेकर कहा कि मैं उनका ही भक्त हूं तो वे कहने लगे कि तू कालि का नहीं किसी और का दास जान पड़ता है। मैं पिटते-पिटते बचा। संयोग से उसी क्षण न्यायाधिपति की ओर से भेजे गए दूत आ गए और वे सब उनसे संवाद करने लगे।’

कालिदास, ‘अच्छा तो फिर न्यायाधिपति ने क्या निर्णय दिया?’

सदानंद, ‘गुरुवर उन्होंने यह तो स्वीकार किया कि ऐसे राह रोककर बैठना अनुचित व्यवहार है लेकिन, चूंकि, हालांकि, किंतु, परंतु...कदाचित..!’ कालिदास, ‘अरे भाई, यह बताओ.. निर्णय क्या सुनाया?’

सदानंद, ‘मेरे भारत प्रवास तक तो कोई निर्णय नहीं हो पाया था गुरुवर। रास्ता रोकने वालों से मैंने भी जानना चाहा कि भाई कब तक आसीन रहोगे लेकिन वे उनसे ही वार्ता को तैयार थे जो उन्हें परम शांतिप्रिय नागरिक कहे और अपना पहचान पत्र प्रदर्शित कर उनके मंच से ‘कागज नहीं दिखाएंगे..’ का ऊंचे स्वर में पाठ करे।’

कालिदास, ‘अरे, ‘यह कागज नहीं दिखाएंगे ’ क्या है?’

सदानंद, ‘क्षमा करें गुरुवर! यह किसी विदूषक की ही रचना है लेकिन भारत भ्रमण के समय मैंने इसे कई स्थानों पर सुना। मुझे कंठस्थ हो गई है। क्या मैं सुनाऊं?’

कालिदास, ‘नहीं-नहीं। यह अनर्गल प्रलाप बंद करो और यह बताओ मेरे अपने राज्य की क्या दशा है?’

सदानंद, ‘अवश्य गुरुवर। संयोग कहिए या दुर्योग कि जिस दिन मैं वहां गया वहां के विधानमंडल के शासक उसी नागरिकता विधान के विरुद्ध यह जानते हुए भी एक प्रस्ताव पारित कर रहे थे कि उन्हें ऐसा करने का अधिकार नहीं और वह नीति-नियम के प्रतिकूल भी है।’ कालिदास, ‘क्या मेरी उज्जैयनी में विदूषक शासन करने लगे?’

सदानंद, ‘नहीं गुरुदेव। अब आपके प्रांत को मध्य प्रदेश के नाम से जाना जाता है और उज्जैयनी को उज्जैन पुकारते हैं। अब शासन भी उज्जैन से नहीं, भोपाल से संचालित होता है और जिन्हें आप विदूषक समझ रहे हैं वे तो प्रजा द्वारा चुने गए शासकीय प्रतिनिधि थे।’

कालिदास, ‘बस करो, अब यह और नहीं सुनना... यह बताओ कि क्या तुम किसी गुरुकुल गए? वहां अवश्य तुम्हें सुखद अनुभव हुआ होगा।’

सदानंद, ‘जी, मैं गया था। एक गुरुकुल के विद्यार्थी ‘छीन के लेंगे आजादी’ गीत गा और अध्यापन के लिए उत्सुक शिक्षकों को कक्षाओं से दूर भगा रहे थे। वे कह रहे थे कि यही तो वास्तविक स्वतंत्र विद्यार्थी जीवन है। इसके उपरांत मैं दूसरे गुरुकुल गया। वहां के विद्यार्थी पुस्तकालय में मुख पर वस्त्र बांधकर और हाथ में पत्थर के टुकड़े लेकर अध्ययन में लीन थे। वहां कुछ सुरक्षा प्रहरी और सूचना प्रहरी उपस्थित थे। सूचना प्रहरी अपने गले पर उलट न्यूज, पलट न्यूज, चल न्यूज, मचल न्यूज, कुचल न्यूज और इसी तरह की पट्टिकाएं डाले थे। उनमें से एक ने बताया कि मुख पर वस्त्र बांधने से प्रदूषित वायु शरीर के अंदर नहीं जाती और इन विद्यार्थियों को अध्ययन करते समय जब निद्रा आने लगती है तो वे उसे भगाने के लिए पत्थर के टुकड़ों से अपने मस्तिष्क पर आघात करते हैं। गुरुवर, अब आप ही निश्चित करिए कि मेरे इस अनुभव को आप सुखद कहेंगे या दुखद?’

सदानंद के इस प्रश्न के साथ ही सभागार कालिदास की ओर निहारने लगा। वे कुछ क्षण तो मौन रहे, फिर जोर-जोर से हंसने लगे। सभागार में बैठे सभी जन विस्मित होकर उन्हें देखने लगे, क्योंकि वे हंसी से लोट-पोट हुए जा रहे थे। जब उनकी हंसी थमी तो सभी दिशाओं से यही प्रश्न गूंजा, ‘अरे गुरुवर, आप हंस क्यों रहे हैं?’

कालिदास, ‘सदानंद का पूरा वृत्तांत सुनकर मुझे अपनी नादानी के दिन याद आ गए और एक क्षण के लिए मुझे ऐसा प्रतीत हुआ कि मैं भारत प्रवास पर हूं और वहां के नर-नारी मुझे देखते ही झट से समीप के किसी वृक्ष पर चढ़कर उन्हीं डालियों को काटने का जतन कर रहे हैं जिन पर वे बैठे हैं। इस कल्पना ने ही मुझे आनंद से भर दिया। अब मैं दुविधा में हूं कि भारत भ्रमण के लिए निकलूं या यहीं सदानंद से भारत-भूमि के बारे में कुछ और वृत्तांत सुनकर होली मनाऊं?’