नई दिल्ली [अनंत विजय]। आज उपन्यास सम्राट प्रेमचंद(Novel Emporer Premchand) की जयंती(Jayanti) है। 1880 में आज के ही दिन प्रेमचंद का जन्म हुआ था। आज एक बार फिर मार्क्सवादी लेखक और मार्क्सवाद में आस्था रखने वाले प्रेमचंद(Premchand) को कम्युनिस्ट और प्रगतिशील और जाने किन विशेषणों से विभूषित करेंगे। इस तरह की प्रवृति बहुत लंबे समय से हिंदी साहित्य में चल रही है।

प्रेमचंद के लेखन का मूल्यांकन करते समय मार्क्सवादी आलोचकों ने समग्रता में उनके कृतित्व को ध्यान में नहीं रखा। प्रेमचंद की उन कृतियों को या उन कार्यों को जानबूझकर ओझल कर दिया गया जिससे उनकी एक अलग ही छवि बनती है। प्रेमचंद को जबरन मार्क्सवादी बताने का ये खेल हिंदी साहित्य में लंबे समय तक चलता रहा।

स्कूल और कालेज की पुस्तकों में प्रेमचंद की रचनाओं की व्याख्या इस तरह से की जाती रही कि उनकी आस्था मार्क्सवाद (Marxism) में थी और उनकी रचनाओं में ये प्रतिबंबित होती थी। विश्वविद्यालयों के हिंदी विभागों में मार्क्सवादियों का बोलबाला रहा है जिसकी वजह से छात्रों के मानस पर प्रेमचंद की मार्क्सवादी लेखक की छवि अंकित करवाने में उनको अधिक परेशानी नहीं हुई।

जिस भी लेखक ने प्रेमचंद की रचनाओं को समग्रता में सामने लाने का प्रयत्न किया उनको हाशिए पर रखने का उपक्रम मार्क्सवादियों (Marxism) ने चलाया, खासतौर पर विश्वविद्यालयों में। परिणाम ये हुआ कि लंबे कालखंड तक प्रेमचंद की रचनाओं का मूल्यांकन एकतरफा होता रहा। छात्र भी प्रेमचंद के लेखकीय व्यक्तित्व के एक ही रूप से परिचित होते रहे।

ये सिर्फ प्रेमचंद के साथ ही नहीं किया गया बल्कि हिंदी के तमाम लेखकों के साथ ऐसा किया गया। निराला के उन लेखों को साहित्य जगत में सामने ही नहीं आने दिया गया जो उन्होंने कल्याण पत्रिका में लिखे थे। निराला ने कल्याण पत्रिका के अलग अलग अंकों में कई लेख लिखे थे लेकिन उसपर हिंदी में चर्चा नहीं हुई।

प्रेमचंद की रचनाओं में हिंदू संस्कृति को लेकर कितना कुछ लिखा गया है या उनकी कहानियों में हिंदू संस्कृति किस तरह से मुखर हुई है इसपर प्रेमचंद साहित्य के विद्वान कमलकिशोर गोयनका(Kamal Kishor Goenka) ने काफी लिखा है। गोयनका को विचारधारा विशेष के विरुद्ध जाकर लिखने की कीमत भी चुकानी पड़ी। अपमान झेलना पड़ा। साहित्यिक मंच पर सरेआम धमकियां दी गईं। लेकिन कहते हैं न कि सत्य को बहुत दिनों तक रोका नहीं जा सकता है।

अब प्रेमचंद के अनेक रूप उपस्थित हो रहे हैं। पिछले दिनों विश्वविद्यालय प्रकाशन, काशी ने प्रेमचंद के संपादन में 1933 में प्रकाशित हंस पत्रिका(Hans Magazine) के काशी अंक का पुनर्प्रकाशन किया। अक्तूबर-नवंबर 1933 में प्रकाशित पत्रिका के इस अंक के लेखों को देखकर संपादक प्रेमचंद(Editor Premchand) की रुचि का पता चलता है। प्रेमचंद के संपादन में निकली इस पत्रिका में एक लेख प्रकाशित है, काशी: हिंदू संस्कृति का केंद्र। इसमें लेखक ने लिखा है- ‘मध्य युग में देश पर बाहरवालों के कितने ही हमले हुए। उत्तर भारत का कोई भी प्रसिद्ध नगर उनके विनाशकारी प्रभाव से नहीं बचा।

काशी पर भी सुल्तान नियाल्तगीन, कुतबुद्दीन इबुक के, तथा मुगल-काल में भी कितने ही हमले हुए, परंतु काशी(Kashi) की महिमा का मुख्य आधार व्यापारिक अथवा राजनीतिक महत्ता कभी नहीं रहा, उसका अटूट संबंध तो धर्म और संस्कृति से था। यदि कोई विजयी शासक नगर में लूटपाट मचा देता, मंदिर या मूर्तियों को विध्वंस्त करवा देता, अथवा लोगों का दमन करने लगता तो यह अवश्य था कि काशी कुछ दिनों के लिए श्रीविहीन हो जाती परंतु उसपर कोई वास्तविक प्रभाव न पड़ता था।

हर साल फिर ग्रहण पड़ते, अमावस्या और एकादशी आतीं और उनके साथ ही साथ आता- स्त्री-पुरुषों का विशाल जनसमूह जो काशी की गलियों, घाटों और मंदिरों में समा जाता। फिर सदा की भांति प्रात: और संध्या आरती, काशी नगरी में घंटे और शंख के गंभीर निनाद के साथ भक्तों की कंठ ध्वनि मिलकर फिर वही अपूर्व समां बांध देती, मानो कुछ हुआ ही न हो।‘ इस उद्धरण से कई बातें स्पष्ट रूप से सामने आती हैं।

पहला ये कि बाहर से कई हमले काशी पर हुए, मुगलों ने भी किए। मंदिर और मूर्तियां नियमित अंतराल पर तोड़ गए, लेकिन हिंदू संस्कृति में वो ताकत है कि वो इन हमलों को न केवल झेल गई बल्कि वापस उठ खड़ी हुई। प्रेमचंद अपने संपादन में इस तरह के लेख प्रकाशित करके उस वक्त अपना सोच देश के सामने रख रहे थे।

हंस पत्रिका के इसी अंक में प्रेमचंद ने काशी विश्वनाथ मंदिर(Kashi Viswanath temple) पर भी एक लेख प्रकाशित किया। इस लेख का एक महत्वपूर्ण अंश देखा जाना चाहिए, ‘काशी के श्रीविश्वनाथ मंदिर में स्वयंजात ज्योति:स्वरूप लिंग हैं, इनके ही दर्शन और अर्चन से भक्त लोग अपनी समस्त कामनाओं की पूर्ति के साथ-साथ मोक्ष जैसा अलभ्य प्राप्त करने काशी आते हैं। स्वर्गीय महारानी अहित्याबाई(Maharani Ahilyabai) ने पंच मंडप-संयुक्त एक विशाल मंदिर बनवा दिया। 51 फीट ऊंचा यह वर्तमान मंदिर कीमती लाल पत्थरों से बना है।

इसके बाद ही सन् 1839 ई. में सिख जाति के मुकुटमणि पंजाब केशरी स्वर्गीय महाराजा रणजीत सिंह ने मंदिर के ऊपरी हिस्से को स्वर्ण मंडित करके उसकी सौगुनी शोभा बढ़ा दी।‘ इस लेख की ही कुछ और पंक्तियां, मुसलमान शासकों ने प्राचीन मंदिर को तोड़ा था, उन्हीं ने वर्तमान मंदिर के सिंहद्वार के सामने एक नौबतखाना बनवा दिया, जहां अबतक नौबत बजती है, जिसके ऊपर से विजातीय लोग दर्शन किया करते हैं।

केवल दर्शन ही नहीं अंग्रेज लोग पूजोपहार और दक्षिणा भी दे जाते हैं। सम्राट पंचम जार्ज से लेकर प्रत्येक वायसराय विश्वनाथ-दर्शन कर चुके हैं। अभी हाल ही में जब लार्ड इरविन आए थे तब श्रद्धा के साथ चांदी के पूजा-पात्र उपहारस्वरूप भेंट कर गए थे। इस तरह विश्वनाथ इस समय समस्त जातियों द्वारा सम्मानित और पूजित होकर काशी में सुख से विराज रहे हैं।‘

उपरोक्त दोनों उद्धरणों में एक बात जो समान है कि मुस्लिम आक्रांताओं ने काशी में मंदिर और मूर्तियां तोड़ीं। इस पत्रिका के कई अन्य लेखों में भी मंदिरों के तोड़े जाने का प्रसंग आया है। एक और लेख है काशी का इतिहास उसमें भी लेखक ने विस्तार से काशी पर हुए अनके हमलों का उल्लेख किया है। इसमें इस बात का जिक्र भी है कि शाहजहां ने भी काशी में मंदिर तुड़वाए थे। धर्मांध औरंजगजेब ने यहां के मंदिर तुड़वाने की आज्ञा प्रचलित की जिनके चिन्ह स्वरूप ज्ञानवापी और बेनीमाधन की मस्जिदें अभी तक मौजूद हैं।

औरंगजेब ने तो काशी का नाम बदलकर मुहम्मदाबाद रखा था पर वो प्रचलित नहीं हो पाया। लेकिन मुगलकाल में काशी की जो टकसाल थी वहां के कुछ सिक्कों और कागजों में ये नाम मिलता है। मंदिरों और मूर्तियों को तोड़े जाने के अलावा प्रेमचंद के संपादन में निकले इस अंक से एक और ध्वनि निकलती है वो है हिंदू धर्म और संस्कृति की ।

इस अंक से प्रेमचंद की हिंदू धर्म और संस्कृति में आस्था का पता चलता है। बार बार मंदिरों के तोड़े जाने का उल्लेख इस बात की ओर संकेत करता है कि संपादक इससे आहत था। उसको अपनी पत्रिका के माध्यम से आमजन तक पहुंचाना भी चाहता था क्योंकि अगर इन लेखों में प्रयुक्त वक्तव्यों, उद्धरणों और घटनाओं के आवरण को हटाकर भीतर छिपी मूल भावनाओं को देखें आपको प्रेमचंद का हिंदू मन दिखाई देगा।

वो हिंदू मन जो अपने मंदिरों के तोड़े जाने से आहत है, वो हिंदू मन जो अपनी संस्कृति पर हुए हमलों से दुखी है, वो हिंदू मन जो सनातन संस्कृति की शक्ति को जानता है, वो हिंदू मन जो अपनी परंपरा से विद्रोह का खोखला नारा नहीं लगता बल्कि अपनी परंपरा को अपनी लेखनी से समृद्ध करता है। जो मार्क्सवादी लेखक विचारधारा की शिलाखंड पर बैठकर प्रेमचंद (Premchand)के साम्यवादी होने का शोर मचाते हैं उनको प्रेमचंद के संपादन में प्रकाशित पत्रिकाओं के अंक देखने चाहिए।