नई दिल्ली [अनंत विजय]। कोरोना की तीसरी लहर के आरंभ होने के पहले एक बड़ी हिंदी फिल्म रिलीज हुई, जिसका नाम है 83। रणवीर सिंह और दीपिका पादुकोण जैसे बड़े सितारों और कबीर खान जैसे निर्देशक के होने के बावजूद यह फिल्म बुरी तरह असफल रही। इतनी बड़ी स्टार कास्ट के बावजूद फिल्म की लागत भी नहीं निकाल पाना कई सवाल खड़े करता है। फिल्म समीक्षकों ने इस फिल्म को चार या उससे अधिक स्टार दिए थे, लेकिन ये फिल्म नहीं चली। समीक्षा को फिल्म की सफलता से नहीं जोड़ा जा सकता है। मुझे याद है मैं बहुत छोटा था तब फिल्म शोले रिलीज हुई थी। उसकी प्रकाशित समीक्षा का शीर्षक अबतक याद है। शीर्षक था, शोले जो भड़क न सका। शोले ऐसा भड़का कि उसने सफलता के सारे कीर्तिमान ध्वस्त कर दिए थे।

फिल्म 83 को समीक्षकों ने सर पर चढ़ाया लेकिन दर्शकों पर जादू नहीं चल सका। कुछ लोगों का तर्क है कि फिल्म 83, जो कि 1983 में भारत के क्रिकेट विश्व कप जीतने पर आधारित है, का क्लाइमैक्स दर्शकों को मालूम है इस वजह से फिल्म नहीं चली। इस तरह के तर्क देने वालों के सामने रामलीलाओं के मंचन का उदाहरण है। रामलीला का क्लाइमैक्स सभी को पता है। बावजूद इसके रामलीला में भारी भीड़ उमड़ती है। इसलिए यह तर्क सही प्रतीत नहीं होता है कि क्लाइमैक्स पता होने की वजह से फिल्म नहीं चली। कुछ लोगों का तर्क है कि लोग क्रिकेट देखने सिनेमा हाल में नहीं जाते हैं और निर्देशक ने फिल्म में क्रिकेट बहुत अधिक दिखाई है। अलग अलग लोग अलग अलग तर्क। पर मुझे लगता है कि इस पर भी विचार किया जाना चाहिए कि क्या दिल्ली के जवाहलाल नेहरू विश्वविद्यालय के प्रदर्शनकारियों के साथ खड़ी दीपिका की तस्वीर अब भी दर्शकों के मन पर अंकित है?

2020 के जनवरी में दीपिका की फिल्म छपाक आई थी तब वो अपने फिल्म के प्रमोशन को ध्यान में रखते हुए दीपिका जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के प्रदर्शनकारी छात्रों के साथ जाकर खड़ी हो गई थी। तब उनकी फिल्म छपाक पिट गई थी। अब एक बार फिर 83 में दीपिका की उपस्थिति और फिल्म का असफल होना, कहीं कोई संकेत तो नहीं है? अगर ये संकेत सही है तो फिल्मी दुनिया के कलाकारों को सावधान हो जाना चाहिए। उनको ये बात समझ में आ जानी चाहिए कि फिल्म और राजनीति दोनों अलग अलग हैं। दोनों का घालमेल नुकसान पहुंचा सकता है।

इसी समय एक दूसरी फिल्म आई पुष्पा, जो मूलरूप से तेलुगू में बनी है। इस फिल्म को हिंदी में डब करके रिलीज किया गया। इस फिल्म को दर्शकों ने खूब पसंद किया। इसके नायक अल्लू अर्जुन हैं। फिल्म भले ही एक्शन ड्रामा है लेकिन पूरा परिवेश दक्षिण भारतीय है, फिर भी हिंदी के दर्शकों को भाया। इस फिल्म को दर्शकों ने 83 से अधिक पसंद किया। कमाई भी अधिक रही। वजह है फिल्म की कहानी और उसको कहने का अंदाज। पुष्पा फिल्म के निर्देशक सुकुमार ने फिल्म 83 के निर्देशक कबीर खान से बेहतर तरीके से अपनी कहानी को दर्शकों के सामने रखी।

दर्शकों ने उसको पसंद किया। कबीर खान फिल्म 83 को भव्य और ग्लैमरस बनाने के चक्कर में कहानी को यथार्थ से दूर ले गए। नतीजा यह हुआ कि दर्शकों ने फिल्म को नकार दिया। दंगल हो या फिर सुल्तान दोनों फिल्में भव्य भी थीं, ग्लैमर भी था लेकिन निर्देशक ने यथार्थ की डोर नहीं छोड़ी। दूसरी एक बात जो फिल्म 83 को अति साधारण फिल्म बना देती है वो यह कि इस फिल्म से दर्शकों की भावनाएं नहीं जुड़ पाई। 1983 की विश्व कप जीत के बाद पैदा और जवान हुई पीढ़ी खुद को इस फिल्म के साथ आईडेंटिफाई नहीं कर पाई। निर्देशक इसमें चूक गए। फिल्म चक दे इंडिया के निर्देशक शमित अमीन अपनी फिल्म को दर्शकों की संवेदना से जोड़ने में सफल रहे थे। फिल्म भी सुपरहिट रही थी।

फिल्म 83 के फ्लॉप होने को दर्शकों की बदलती पसंद से जोड़कर भी देखा जा सकता है। ओवर द टाप (ओटीटी) प्लेटफार्म के लोकप्रिय होने के बाद से फिल्मी सितारों से अधिक लोग कहानी को पसंद करने लगे हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि अगर इसी तरह चलता रहा तो वो दिन दूर नहीं जब हिंदी फिल्मों से स्टार और सुपरस्टार वाली व्यवस्था खत्म हो जाएगी । दरअसल ओटीटी ने दर्शकों की रुचि का विस्तार किया है। अब हिंदी भाषी दर्शक अन्य भारतीय भाषाओं की फिल्में अपेक्षाकृत अधिक देखने लगे हैं। ओटीटी के पहले ये विकल्प मौजूद नहीं था। पहले होता ये था कि तमिल भाषा की फिल्म सिर्फ तमिलनाडु या पडुचेरी में दिखाई जाती थी। अन्य प्रदेशों में उसको दिखाने के लिए उस प्रदेश की भाषा में डब करना पड़ता था।

एक दौर में टीवी पर दक्षिण भारतीय भाषाओं की हिंदी में डब की गई फिल्में खूब दिखाई जाती थीं। ओटीटी के प्रचलन में आने के बाद से अब दर्शक मूल भाषा में फिल्में देखना पसंद करने लगे हैं। अभी पिछले दिनों एक रिपोर्ट आई थी जिसमें ये बताया गया था कि मलयालम में बनी फिल्म को केरल के बाहर के दर्शकों ने अधिक देखा। अब मलयालम या मराठी फिल्मों को गैर मलयाली और गैर मराठी दर्शक भी देख रहे हैं। जिनको पहले क्षेत्रीय फिल्में कहा जाता था आज वो मुख्यधारा की फिल्में बन रही हैं। अल्लू अर्जुन की फिल्म पुष्पा हो या मलयाली फिल्म कुरुथी हो या फिर तमिल फिल्म सरपता परमबराई हो। इन सबकी सफलता ने ये साबित किया है कि क्षेत्रीय फिल्में अपनी भौगोलिक सीमा से बाहर निकलकर दूसरी भाषा के लोगों को भी पसंद आ रही हैं।

अमेजन प्राइम वीडियो के एक अधिकारी का बयान प्रकाशित हुआ था कि तमिल, तेलुगु, मलयालम और कन्नड़ फिल्म के पाचस प्रतिशत दर्शक उनके अपने प्रदेशों के बाहर के होते हैं। भाषाई फिल्मों की व्याप्ति बढ़ने से जो सबसे महत्वपूर्ण घटित हो रहा है वो ये कि भारतीय भाषाओं के बीच वैमनस्यता कम हो रही है। हिंदी को लेकर अन्य भारतीय भाषा के कुछ लोगों के मन में जो दुर्भाव था वो कम हो रहा है। जब इस तरह के लोग ये जानते पढ़ते हैं कि हिंदी भाषी लोग अन्य भारतीय भाषाओं की फिल्मों को उनसे अधिक संख्या में देख रहे हैं तो उनके मन से हिंदी प्रति दुर्भावना कम या खत्म हो रही है। इस तरह से अगर हम देखें तो भाषाई वैमनस्यता दूर करने में फिल्में अब बड़ी भूमिका निभा रही हैं।ये बहुत बड़ी बात है।

अपनी तमाम कमियों और राजनीतिक एजेंडा के बावजूद ओटीटी पर दिखाई जाने वाले कंटेट ने मनोरंजन की दुनिया को पहले से अधिक समावेशी बनाया है। अब फिल्मों में पहले की अपेक्षा अधिक प्रयोग हो रहे हैं। एक और बात जो रेखांकित की जानी चाहिए वो ये कि ओटीटटी पर भारतीय फिल्मों को वैश्विक दर्शक भी मिलने लगे हैं। इसके भी कई फायदे हैं। अब वैश्विक मंचों पर भारतीय फिल्मों की चर्चा होने लगी है।

पूरी दुनिया का ध्यान भारतीय भाषाओं में बनने वाली फिल्मों की ओर जाने लगा है। भारत कहानियों का देश है, कथावाचकों का देश है। कहानियां भी हैं और कहने का अलग अलग अंदाज भी है। कहने के विविध अंदाज को भी वैश्विक दर्शक मिले हैं। कोरोना के संकट ने एक बार फिर से सिनेमा हाल के जरिए फिल्म के व्यवसाय को बाधित किया है। फिर से फिल्मों के ओटीटी पर दिखाने का दौर आरंभ होगा। ओटीटी पर आने वाली फिल्मों के निर्माता और निर्देशकों को भारतीय दर्शकों की रुचियों में आ रहे बदलाव का ध्यान रखना होगा। कहानी को यथार्थ के रास्ते पर चलाकर ही प्रयोग करने होंगे। सफलता की कुंजी वहीं हैं।