नई दिल्ली, [अनंत विजय]। कोरोना संक्रमण के दौरान पूरे देश में कलाकारों के सामने बड़ा संकट उत्पन्न हो गया है। ये संकट आर्थिक है लेकिन इसका असर उनके मानस पर भी पड़ने लगा है। कोरोना की पहली लहर के दौरान भी कलाकारों के सामने आयोजन बंद होने से जीविकोपार्जन का संकट आ गया था। तब संस्कृति मंत्रालय की तरफ से ये आश्वासन दिया गया था कि क्षेत्रीय सांस्कृतिक केंद्रों के माध्यम से कलाकारों की एक सूची तैयार की जाएगी और उस सूची के आधार पर उनकी मदद की जाएगी।

क्षेत्रीय सांस्कृतिक केंद्रों के माध्यम से किन कलाकारों की मदद की गई या कितने कलाकारों को आर्थिक मदद दी गई ये ज्ञात नहीं हो पाया है। अगर सरकार ने इन केंद्रों के माध्यम से कलाकारों की मदद की है तो उस योजना का प्रचार कला जगत के लोगों के बीच इस तरह से किया जाना चाहिए कि ज्यादातर लोग उसका फायदा उठा सकें। ये इस वजह से क्योंकि सबसे अधिक परेशानी में वो कलाकार हैं जो बड़े कलाकारों के साथ संगत करते हैं।

बड़े गायकों के साथ तबले से लेकर अन्य वाद्य यंत्रों पर परफॉर्म करनेवाले कलाकारों के सामने आर्थिक समस्या विकराल है क्योंकि उनकी नियमित आय बंद हो गई है। नाटक में भी यही स्थिति है। बड़ा कालाकर तो अपनी आय से जीवन चला रहा है लेकिन जो तकनीशियन हैं, जो लाइटमैन हैं, जो साउंड के कर्मचारी हैं या इसी तरह से नेपथ्य में रहकर काम कर रहे हैं वो परेशान हैं। अनुमान ये है कि नाटक से जुड़े वैसे कलाकार जो आर्थिक रूप से संपन्न हैं उनकी संख्या दो फीसदी है जबकि बाकी अट्ठानवे फीसदी लोग नाटकों के मंचन से होनेवाली नियमित आय पर निर्भर रहते हैं। सरकार प्रोडक्शन और रिपर्टरी ग्रांट तो दे रही है लेकिन नेशनल प्रजेंस वाली संस्थाएं अभी तक मदद की आस में हैं।

अभी कुछ दिनों पहले संस्कार भारती ने कलाकारों की मदद के उपायों पर विचार के एक गोष्ठी का आयोजन किया था, जिसमें देशभर के कला और संस्कृति से जुड़े लोगों ने भाग लिया था। उस बैठक का स्वर भी यही था कि कलाकारों को अपेक्षित मदद नहीं मिल पा रही है, लिहाजा संस्कार भारती को पिछले वर्ष की तरह इस वर्ष भी आगे आना चाहिए। इसी तरह से अन्य संस्थाएं भी कलाकारों की मदद कर रही हैं पर ये नाकाफी है। संस्कृति मंत्रालय को संकट के समय संकट से निबटनेवाली योजनाएं बनानी चाहिए और जरूरत पड़ने पर नीतिगत बदलाव भी किए जाने चाहिए ताकि कोई नियम मदद में बाधा न बन सके।

संस्कृति मंत्रालय के 2001-22 के बजट को देखें तो उसमें चार सौ पचपन करोड़ रुपए कला संस्कृति विकास योजना, संग्रहालय के विकास, जन्म शताब्दियों के आयोजन आदि के लिए आवंटित किए गए हैं। इसके अलावा पूर्वोत्तर में संस्कृति से जुड़ी विभिन्न योजनाओं के लिए एक सौ दो करोड़ आवंटित किए गए हैं। इन दोनों राशियों को मिलाकर देखें तो करीब साढे पांच सौ करोड़ से अधिक की राशि संस्कृति मंत्रालय के पास है जिसको प्रशासनिक फैसलों से कलाकारों की मदद की तरफ मोड़ा जा सकता है। इस आवंटन के तहत मंत्रालय को कोई ऐसी योजना बनानी चाहिए जिससे कि देशभर के विभिन्न हिस्सों में फैले रूपकंर कला के कलाकारों को मदद मिल सके।

संस्कृति मंत्रालय के अधीन राष्ट्रीय स्तर पर काम करनेवाली जो अकादमियां हैं उनको भी आगे आकर मदद की पहल करनी चाहिए। संगीत नाटक अकादमी, ललित कला अकादमी, साहित्य अकादमी, राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय आदि जैसी संस्थाओं को एक साथ आकर समन्वय बनाकर कलाकारों और लेखकों की मदद करने के लिए कार्ययोजना बनाकर काम करना चाहिए। इन अकादमियों ने पूर्व में भी आकस्मिक परिस्थितियों में कलाकारों की आर्थिक मदद की है। जब चेन्नई में बाढ़ आई थी और कई कलाकारों के वाद्य यंत्र आदि पानी से नष्ट हो गए थे, उस वक्त संगीत नाटक अकादमी के चेयरमैन शेखर सेन ने अपनी पहल पर उनकी मदद की थी। इस वक्त कोरोना काल में इन अकादमियों की गतिविधियां भी लगभग ठप हैं। उनका व्यय भी न्यूनतम हो रहा है। बचे हुए धन को कलाकारों की मदद में उपयोग में लाया जा सकता है।

इस काम में एक ही बाधा आ सकती है कि वो ये कि इन अकादमियों में से ज्यादातर में शीर्ष पद खाली हैं। संगीत नाटक अकादमी के चेयरमैन शेखर सेन का कार्यकाल 27 जनवरी 2020 को समाप्त हो गया लेकिन अबतक उस पद पर नियुक्ति नहीं हो सकी है। इसका असर काम काज पर पड़ता ही है। संगीत नाटक अकादमी के प्रतिष्ठित पुरस्कार 2018 के बाद घोषित नहीं हो सके हैं। 2018 का पुरस्कार 2019 में घोषित हुआ था जो अबतक कलाकारों को प्रदान नहीं किए जा सके हैं। ललित कला अकादमी के चेयरमैन उत्तम पचारणे का कार्यकाल पिछले महीने की 21 तारीख को समाप्त हो गया। तीन साल का उनका कार्यकाल काफी विवादित रहा। उनके कार्यकाल के समाप्त होने के पहले नियुक्ति की प्रक्रिया आरंभ हो जानी चाहिए थी जो हो नहीं सकी।

राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय की वेब साइट के मुताबिक इसके निदेशक वामन केंद्रे का कार्यकाल सितंबर 2018 में समाप्त हो गया और उसके बाद कार्यकारी निदेशक सुरेश शर्मा संस्थान चला रहे हैं। यहां पिछले साल चेयरमैन के पद पर परेश रावल की नियुक्ति हुई लेकिन निदेशक का पद विज्ञापित होने के बाद भी अबतक भरा नहीं जा सका। इन पदों के खाली रहने का बड़ा नुकसान ये है कि बड़े फैसले नहीं हो पाते हैं क्योंकि उसके लिए शीर्ष स्तर की मंजूरी आवश्यक होती है।

कोरोना संक्रमण के इस दौर में देश के सांस्कृतिक परिदृश्य पर जो संकट दिखता है उसको दूर करने के लिए दीर्घकालीन योजनाएं बनानी होंगी। यह ठीक बात है कि इस वक्त देश की प्राथमिकता अपने नागरिकों की जान की रक्षा करना, वायरस को फैलने से रोकने के उपाय करना और आसन्न खतरे से निबटने की योजना बना है। अब संक्रमण की दर कम होने लगी है, टीकाकरण की रफ्तार तेज हो रही है और स्थितियां सामान्य होती दिख रही हैं तो केंद्र सरकार को ज्यादातर कलाकारों की चरमरा गई आर्थिक स्थिति की ओर ध्यान देने की नीति पर काम करना चाहिए। स्थितियां इस कदर बिगड़ चुकी हैं कि इसमें प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को दखल देकर एक ऐसी नीति निर्माण की दिशा में पहल करनी होगी जिससे कोरोना जैसे संकट में कलाकारों के सामने जीवन जीने का संकट पैदा नहीं हो सके।