विजय कपूर। पांच राज्यों में विधानसभा चुनाव की मतदान तिथियां घोषित होते ही नेताओं के लिए दल-बदल का सीजन भी आरंभ हो गया है। पंजाब, उत्तराखंड, उत्तर प्रदेश, मणिपुर व गोवा में नेता इतनी तेजी से इधर उधर हुए हैं (और हो रहे हैं) कि हिसाब रख पाना कठिन हो गया है। बहरहाल, इस सियासी सर्कस से कुछ महत्वपूर्ण प्रश्न अवश्य उठे हैं। आखिर यह भगदड़ क्यों मची हुई है? इस दल-बदल का चुनाव परिणामों या राजनीतिक पार्टियों की संभावनाओं पर क्या प्रभाव पड़ेगा? राजनीतिक पार्टियों के पुराने, कर्मठ व वफादार कार्यकर्ताओं की इस दल-बदल पर क्या प्रतिक्रिया है, विशेषकर जब उनकी अपनी सियासी महत्वाकांक्षाएं टूटने के कगार पर हों? इन दल-बदलुओं से बार बार छली जाने वाली आम जनता क्या इस बार इन्हें कोई सबक सिखाएगी?

ऐसे अनेक उदाहरण सामने आए हैं जिनसे यह आसानी से समझा जा सकता है कि अधिकांश नेताओं की किसी राजनीतिक पार्टी व उसकी विचारधारा में आस्था व निष्ठा नहीं है, उन्हें तो केवल इस बात से मतलब है कि नए चुनाव में कैसे सदन का सदस्य बना जाए ताकि मंत्री बनने की संभावना बनी रहे। उत्तर प्रदेश में दो कैबिनेट मंत्रियों- स्वामी प्रसाद मौर्य व दारा सिंह चौहान तथा कुछ विधायकों ने भाजपा की सदस्यता से इस्तीफा दे दिया है। इनमें से अधिकतर ने सपा में शामिल होने के संकेत दिए हैं और कुछ सपा में शामिल हो भी गए हैं। दूसरी ओर सपा के विधायक हरिओम यादव, जो मुलायम सिंह यादव के रिश्तेदार भी हैं, भाजपा में शामिल हो गए हैं। बसपा व कांग्रेस के भी कुछ विधायक भाजपा में शामिल हुए हैं। इस दल-बदल प्रक्रिया को सभी पार्टियां खूब प्रचारित कर रही हैं और ऐसा करने की एक खास वजह भी है।

'डूबते जहाज को चूहे पहले छोड़कर भागते हैं, यह कहावत तो आपने सुनी होगी। सियासी दल चुनाव में अपनी हवा बनाने के लिए इस कहावत पर ही अमल करते हैं यानी दल-बदल कराकर वह यह दिखाना चाहते हैं कि उनके विरोधी दल डूबती हुई नैया हैं। लेकिन कई बार यह तकनीक उल्टी भी पड़ जाती है। वैसे भाजपा छोड़ते हुए मौर्या और चौहान ने लगभग समान कारण दिए कि पिछड़ों व दलितों की अनदेखी की जा रही थी और डा. आंबेडकर के संविधान को छोड़कर नागपुर का एजेंडा थोपने का प्रयास था। कमाल है, यह बात इन नेताओं को लगभग पांच वर्षों तक सत्ता सुख भोगने के बाद समझ में आई। इसलिए दल-बदल के इस कारण को स्वीकार करना तो कठिन है।

एक राजनीतिज्ञ एक जादूगर की तरह होता है जो हमारा ध्यान उस चीज से हटा देता है जो वह वास्तव में कर रहा होता है यानी उसकी निगाहें कहीं और होती हैं और निशाना कहीं और होता है। इस सियासी जादूगरी को समझने के लिए यह बाद ध्यान में रखना आवश्यक है कि भारत में चुनाव शिक्षा, रोजगार, स्वास्थ्य, महंगाई आदि महत्वपूर्ण मुद्दों पर नहीं होते हैं, बल्कि उनका आधार जातिगत समीकरण होता है। भाजपा के हिंदुत्व आवरण की तह में भी यही जातिगत समीकरण या सोशल इंजीनियरिंग है, जो उसने अति पिछड़ा वर्ग (एमबीसी), गैर-यादव ओबीसी, गैर-जाटव दलित और सवर्ण जातियों को साथ लेकर तैयार किया था, जिसके लिए उसने छोटी छोटी जातिगत क्षेत्रीय पार्टियों से गठजोड़ भी किया था। अखिलेश यादव भाजपा के इसी 'सोशल गठजोड़ में सेंध लगा रहे हैं, विशेषकर इसलिए कि उन्हें अपनी यादव-मुस्लिम आधार वोट की सीमाओं का अहसास हो गया है।

यह 'सेंध कुछ हद तक इसलिए भी सफल हुई है, क्योंकि भाजपा ने हिंदुत्व पर आवश्यकता से अधिक फोकस किया है जिससे पिछड़ों व अति पिछड़ों और दलितों को लगा है कि कहीं वह संविधान से प्राप्त अधिकारों से वंचित न हो जाएं। अपने वोट बेस में पनप रही इस (सही या गलत) भावना को मौर्य या चौहान जैसे नेता अनदेखा तो नहीं कर सकते थे, आखिर इसी बेस के दम पर तो उनकी सियासत है। अखिलेश यादव इस समय एकदम नई योजना बनाए हुए हैं। जब ओपी राजभर को योगी कैबिनेट से निकाला गया तो अखिलेश ने उनसे हाथ मिला लिया और फिर कृषि कानून विरोधी आंदोलन के चलते जाट-बहुल रालोद को भी साथ लिया।

भाजपा भी खामोश नहीं बैठी है। जब अखिलेश ने जातिगत जनगणना की मांग की तो भाजपा ने केंद्रीय कैबिनेट में ओबीसी से 27 और 12 दलित नेताओं को स्थान दिया, नीट के अखिल भारतीय कोटा में ओबीसी आरक्षण का विस्तार किया। कहने का अर्थ यह है कि इस महामारी के दौर में भी स्वास्थ्य, रोजगार व विकास की बजाय चुनावों में सोशल इंजीनियरिंग का ही महत्व है। इसलिए यह आश्चर्य नहीं है कि मौर्य जैसे नेता बसपा से भाजपा और फिर सपा में कूदकर अपना राजनीतिक करियर बना लेते हैं।

बहरहाल, इन दल-बदलुओं की वजह से राजनीतिक दलों के वफादार कार्यकर्ताओं को बहुत तकलीफ होती है, क्योंकि टिकट पाने की उनकी उम्मीदों पर पानी फिर जाता है। लेकिन लाचारी यह है कि उनके पास केवल तीन विकल्प रहते हैं। कुंठित होकर अपनी ही पार्टी में घुटते हुए अपने समय की प्रतीक्षा करते रहें, दल-बदल कर लें या अपनी ही पार्टी के प्रत्याशी को हरा दें। इन वफादार कार्यकर्ताओं को मैनेज करना पार्टी आलाकमान के लिए बड़ी चुनौती होती है। हालांकि दल-बदल से तंग आकर अब कम से कम गोवा में जनता सुनिश्चित करना चाहती है कि प्रत्याशी जीतने के बाद दल-बदल नहीं करेगा, लेकिन अधिकतर जगहों पर राजनीति जाति के आधार पर होती है, इसलिए नेता के दल बदलने से अक्सर उसके जाति समर्थकों पर कोई असर नहीं पड़ता है, वह भी अपने नेता के साथ दल बदल लेते हैं।

(वरिष्ठ पत्रकार)