अभिषेक कुमार सिंह। विश्व के नंबर एक टेनिस खिलाड़ी नोवाक जोकोविच एक टूर्नामेंट में हिस्सा लेने के लिए आस्ट्रेलिया पहुंचे थे। जोकोविच ने कोरोना का टीका नहीं लगवाया है। वह इसे व्यक्तिगत चुनाव का मसला बताते रहे। वह टीकाकरण की मुहिम का विरोध भी करते रहे हैं। हालांकि जोकोविच के बारे में यह जानकारी होने के बावजूद टूर्नामेंट के आयोजकों और आस्ट्रेलियाई सरकार ने उनके आस्ट्रेलिया पहुंचने तक यह नहीं कहा कि उनके आने से वहां कोरोना संक्रमण का खतरा पैदा हो सकता है। लेकिन मेलबर्न पहुंचने पर जोकोविच का वीजा रद कर दिया गया। वीजा रद करने का आधार यह बनाया गया कि टीकाकरण के बिना आने वाले आगंतुकों के लिए आस्ट्रेलिया के नियमों के अनुसार जोकोविच को चिकित्सा छूट नहीं मिली है।

हालांकि जोकोविच के वकीलों ने इस फैसले के खिलाफ आस्ट्रेलिया के 'फेडरल सर्किट एवं फैमिली कोर्टÓ में अपील दायर की गई, जहां से मामला फेडरल कोर्ट में भेज दिया गया। लेकिन फेडरल कोर्ट में घंटों चली सुनवाई के बाद भी जोकोविच को राहत नहीं मिली और उन्हें आस्ट्रेलिया छोडऩे का आदेश दिया गया। इस फैसले से जोकोविच और उनके समर्थकों के अलावा उनके मूल देश सर्बिया के राष्ट्रपति एलेक्सांद्र वुसिच भी खफा दिखे। एलेक्सांद्र वुसिच ने साफ कहा कि अगर आस्ट्रेलिया पहले ही यह बात स्पष्ट कर देता कि वैक्सीन नहीं लेने वाले खिलाड़ी को वहां प्रवेश का अधिकार नहीं है तो नोवाक या तो आते ही नहीं या फिर वैक्सीन लगा लेते।

एक विश्वविख्यात खिलाड़ी के प्रति आस्ट्रेलिया के रवैये की चर्चा भविष्य में भी होती रहेगी। उसकी वैक्सीन नीति की समीक्षा करते हुए समर्थन में खड़े लोग आस्ट्रेलिया की सख्ती की तारीफ भी करेंगे, लेकिन इस पूरे प्रकरण से उठे कुछ सवालों की समीक्षा की जरूरत भी पैदा होगी। जैसे यह पूछा जाएगा कि आखिर दुनिया में कुछ लोग, संगठन, समाज या तबके किसी विज्ञान-सम्मत कहलाने वाली मुहिम के खिलाफ क्यों खड़े हो जाते हैं? मामला केवल जोकोविच का नहीं है। दुनिया के कई देशों में लोग वैक्सीनेशन विरोधी आंदोलन चला रहे हैं। इसे लेकर उनके अलग-अलग तर्क हैं।

सवाल टीकों की विश्वसनीयता का : हालांकि आज की तारीख में दुनिया में करीब पौने पांच अरब लोग कोविड वैक्सीन ले चुके हैं। इससे कोरोना वायरस के खात्मे की उम्मीद जगी है। हालांकि कोरोना के नए वायरस ओमिक्रोन के बढ़ते प्रसार से टीकाकरण की मुहिम और टीकों की विश्वसनीयता दोनों ही संकट में हैं, लेकिन मोटे तौर पर कोविड वैक्सीन लेने वाले खुद को इस वायरस से सुरक्षित मान सकते हैं। यही वजह है कि विज्ञान की समझ रखने वाले और आधुनिक चिकित्सा के समर्थक कोरोना के टीकों का विरोध नहीं कर रहे हैं। परंतु इसी दुनिया में एक तबका ऐसा भी है जो कोरोना वायरस की रोकथाम में टीकों और दवाओं को फिजूल बता रहा है। वह टीकाकरण को फार्मा इंडस्ट्री की चाल, सरकारों के अनुचित दबाव और जनता की निजता व व्यक्तिगत निर्णय की प्रक्रिया में दखलंदाजी बता रहा है।

हमारे देश में भी ऐसे असंख्य मामले सामने आ चुके हैं, जहां गांव-देहात के लोगों के साथ-साथ पढ़े-लिखे लोग भी टीकों की यह कहकर मुखालफत करते दिखे हैं कि इसके पीछे सरकार या दवा उद्योग की कोई चाल है। पिछले दिनों हमारे देश में इंटरनेट मीडिया पर एक वीडियो सामने आया था जिसमें एक ग्रामीण मुफ्त में कोरोना टीका लगाने आई टीम से यह कहते हुए दूर भागता नजर आया कि वह बाद में कभी टीका लगवाएगा। हालांकि ऐसा कहने और टीकों का विरोध करने वालों के साथ हुए हादसे साबित कर रहे हैं कि उनका यह विरोध अंतत: उन्हीं लोगों पर भारी पड़ रहा है। जैसे, हाल में चेक गणराज्य की मशहूर लोकगायिका हाना होरका की कोविड से मौत हो गई। हाना वैक्सीनेशन विरोधी आंदोलन से प्रेरित थीं और उन्होंने खुद को जान-बूझकर कोरोना संक्रमित कर लिया था। हाना और जोकोविच जैसे उदाहरण कई हैं। इस सूची में हालीवुड अभिनेत्री जेसिका बील, अभिनेता राबर्ट डी नीरो, चार्ली शीन, माइम ब्यालिक से लेकर भारत में भी कई नाम गिनाए जा सकते हैं। ये सभी लोग कोरोना की वैक्सीन ही नहीं, बल्कि एलोपैथी और माडर्न मेडिकल साइंस तक पर सवाल उठाते रहे हैं।

टीका विरोधियों के तर्क : दो साल पहले जब कोरोना महामारी की शुरुआत के साथ इससे बचाव के टीकों की निर्माण प्रक्रिया आरंभ हुई थी, तो उन्हें लेकर अविश्वास जताने वालों का तर्क था कि जल्दबाजी में बनाए जा रहे टीके शायद ही कोविड के खिलाफ पूरी तरह कारगर हों। इसके पीछे यह धारणा काम करती रही है कि दुनिया अभी एड्स का टीका नहीं बना पाई है। इसके अलावा टीकाकरण के लंबे अभियानों के बावजूद पोलियो का सौ प्रतिशत सफाया संदिग्ध माना जाता है, तो भला वे कोविड वैक्सीनें महामारी कैसे रोक पाएंगी जो कम समय में बनाई गई हैं। यही नहीं, दुनिया में ऐसा यकीन रखने वालों का भी एक तबका है जो कहता है कि ये टीके लगवाने वाले जल्द ही इनके रिएक्शन के कारण मौत के मुंह में समा जाएंगे। इन्हीं में से बहुत से लोग ऐसे भी हैं जिन्होंने टीकाकरण चला रही सरकारों के दबाव में और आलोचना होने पर अपने बयान यह कहकर वापस लिए कि वे वैक्सीन-विरोधी नहीं हैं, बल्कि उनका मकसद सुरक्षित टीकों की मांग है।

भारत में राजनीतिक कारणों से भी वैक्सीन का विरोध हुआ है। हालांकि टीकों को भाजपा की साजिश बताने-कहने वाले ऐसे विरोधियों ने खुद वैक्सीन लेने की अक्लमंदी दिखाई। राजनीतिक या धार्मिक नजरिए से भी टीकों का विरोध होता रहा है, लेकिन जोकोविच के मामले के तहत कहा जा रहा है कि यह एक मशहूर हस्ती की ओर से आम लोगों में वैक्सीन से ज्यादा विज्ञान-विरोधी सोच डालने का मामला बनता है। यह जानते हुए भी कि वैक्सीन का विरोध करना या उसे नहीं लेने का एक मतलब जिंदगी को खतरे में डालना हो सकता है, अमेरिका और जर्मनी जैसे विकसित देशों में भी एक बड़ा तबका इसकी जरूरत को सवालों के घेरे में खड़ा कर रहा है। अतीत में भारत-पाकिस्तान आदि देशों में देखा गया है कि पोलियो की वैक्सीन को लेकर जनता में एक मजहबी संदेह पैदा किया गया। दावा किया गया कि इससे एक मजहब विशेष की आबादी को नियंत्रित करने का प्रयास हो रहा है। हमारे देश में यह संदेह कोविड वैक्सीन को लेकर भी पैदा किया गया। पर अमेरिका तक में आज अगर वैक्सीनों का विरोध हो रहा है, तो इस मामले को विज्ञान के विरोध या धार्मिक नजरिए से पार जाकर देखने की कोशिश करनी होगी।

यहां अगर पूछा जाए कि नोवाक जोकोविच या उन्हीं की तरह कुछ लोग टीकों का विरोध क्यों कर रहे हैं या उन्होंने आज तक यह क्यों नहीं बताया कि उन्होंने कोरोना की वैक्सीन ली है या नहीं, तो इस बारे में कई लोगों का तर्क है कि वे किसी दबाव या पाबंदी के खिलाफ हैं। जोकोविच कोरोना के टीके वजूद में आने से पहले ही कह चुके हैं कि वह न तो वैक्सीन-विशेषज्ञ हैं और न ही बंद-दिमाग। यानी इसका फैसला करने का हक उन्हें मिलना चाहिए कि उनके शरीर के लिए क्या चीज अच्छी है या बुरी। लेकिन यहां अहम सवाल यह है कि जोकोविच जैसी शख्सियतें अपने ऐसे व्यवहार से सैकड़ों अन्य लोगों को विज्ञान के विरोध के लिए प्रेरित कर देते हैं। यही नहीं, जाने-अनजाने यदि वे कोरोना संक्रमण की चपेट में आ जाते हैं और दूसरे लोगों तक यह वायरस पहुंचा देते हैं, तो इसे आखिर एक अपराध क्यों न माना जाए। खुद के लिए न सही, लेकिन मानवता की रक्षा के लिए अपनी धारणाओं और विश्वासों को परे रखकर वैक्सीन लगवाना ज्यादा समझदारी भरा फैसला हो सकता है।

भय के परिवेश में षड्यंत्र को हवा % लोगों को कोविड वैक्सीन या विज्ञान विरोधियों की पांत में लेकर जाकर खड़ा करने वाली कुछ और बातें भी हैं। जैसे जब लोगों को यह शंका होती है कि वैक्सीन लेने के लिए पहचान के कागजों की जरूरत है या सरकार उनका निजी डेटा लेकर ट्रैकिंग-ट्रेसिंग जैसे काम कर रही है, तो वे झट से इस पूरी मुहिम के ही विरोधी बन जाते हैं। इसी तरह कोरोना के प्रसार को थामने के लिए लगाए जाने वाले प्रतिबंधों से रोजगार प्रभावित होता है, तब भी लोग इसका विरोध करने वालों की कतार में शामिल हो जाते हैं। फिलहाल जर्मनी जैसा विकसित देश इन सभी समस्याओं का एक बड़ा उदाहरण बना हुआ है जहां लोग सरकार के कोविड कांटैक्ट ट्रेसिंग एप और पाबंदियों के धुर विरोधी बने हुए हैं। ऐसे पांच-छह कारण गिनाए जा सकते हैं, जिनके चलते लोग टीके या विज्ञान के खिलाफ कोई रुख अपना लेते हैं। इनमें पहले नंबर पर हैं सामाजिक, धार्मिक या राजनीतिक विचारधाराओं के प्रभाव। इनसे ही लोगों में किसी चीज के प्रति भरोसा या अविश्वास पैदा होता है।

दूसरा है लोगों का स्वहित- मोबाइल, कंप्यूटर, तमाम दवाओं और तकनीक को अपनाने के पीछे प्रेरणा जगाने वाला मूल तत्व यह है कि जनता को समझ में आ जाए कि इस चीज के बिना जिंदगी अधूरी है। तीसरी धारणा हर नई चीज के प्रति किसी षड्यंत्र को देखना। जनता में डर या किसी किस्म के फोबिया की मौजूदगी अक्सर रहती है। जैसे इस वक्त दुनिया की एक बड़ी आबादी मानती है कि कोरोना वायरस या तो चीन की लैब से निकला है या फिर यह फार्मा कंपनियों की शरारत है जो अपने फायदे के लिए इसे खत्म नहीं होने दे रही हैं। एक कारण कुछ लोगों द्वारा समाज में खुद को बहिष्कृत या अस्वीकृत व्यक्ति के रूप में देखने से संबंधित है। ऐसे लोग अक्सर किसी विपदा के दौर में दुनिया के सामने यह जाहिर करने का प्रयत्न करते हैं कि उन्हें इस विपदा या समस्या की असली वजह पता है और दुनिया को उनके जरिये उस कारण को जानना चाहिए। विपदाओं या आशंकाओं के दौर में ऐसे लोग अपने प्रशंसकों का बड़ा दायरा इसलिए बना लेते हैं, क्योंकि उस दौर में दुनिया पहले से भयभीत होती है। इंटरनेट मीडिया के व्यापक प्रसार वाले इस युग में साजिशों की थ्योरी को हवा देना चूंकि आसान हो गया, इसलिए विज्ञान का रास्ता और मुश्किल होता जा रहा है।

( लेखक आइएफएस ग्लोबल से संबद्ध हैं )