[ एनके सिंह ]: देश में पहली बार किए गए राष्ट्रीय पोषण सर्वेक्षण ने शिशुओं और किशोरों के पोषण को लेकर जो रिपोर्ट जारी की है उस पर नीति-नियंताओं के साथ आम जनता को भी ध्यान देना चाहिए, क्योंकि यह कई ऐसे तथ्य प्रकट करते हुए बताती है कि संपन्न और शिक्षित लोग भी बच्चों के पोषण को लेकर सजग नहीं। यह रिपोर्ट एक सर्वेक्षण का हिस्सा है। अपनी किस्म का यह पहला सर्वेक्षण केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय द्वारा 2016-18 काल खंड में किया गया।

राष्ट्रीय पोषण सर्वेक्षण के चौंकाने वाला तथ्य

व्यापक राष्ट्रीय पोषण सर्वेक्षण का सबसे चौंकाने वाला तथ्य यह है कि देश में जन्में दो साल से कम के शिशुओं में मात्र 6.4 प्रतिशत सौभाग्यशाली हैं जिन्हें न्यूनतम स्वीकार्य पोषक आहार मिलता है। इससे भी चौंकाने वाला तथ्य यह है कि इस पैमाने पर जो राज्य सबसे निचले पायदान पर हैं वे आर्थिक, शैक्षिक और विकास के पैमानों पर दशकों से काफी ऊपर हैं। इस कारण समाजशास्त्रियों और सामाजिक-आर्थिक विश्लेषकों के समक्ष यह प्रश्न खड़ा हळ्आ है कि क्या आर्थिक संपन्नता के कारण अभिभावक बच्चों की उचित परवरिश को नजरअंदाज करने लगे हैं?

शिशु पोषण की बेहतर स्थिति पिछड़े राज्यों में है

इस अवधारणा की पुष्टि इस बात से भी होती है कि जिन राज्यों में शिशु पोषण की स्थिति काफी बेहतर है उनमें से अधिकांश अविकसित कहे जाने वाले राज्य जैसे ओडिशा, छत्तीसगढ़ , झारखंड और असम हैं। केवल केरल एक अपवाद है, जबकि दशकों से पिछड़ेपन का दंश झेलने वाल राज्यों में पैदा होने वाले शिशुओं के पोषण की स्थिति राष्ट्रीय औसत से काफी बेहतर पाई गई। ये आंकड़े इसलिए गंभीर परिणाम की और इंगित करते हैं, क्योंकि अगर संपन्न राज्यों में शिशुओं की परवरिश ठीक नहीं है तो यह बच्चों के प्रति सोच, बाजारू ताकतों का खान-पान पर कळ्प्रभाव और अभिभावकों की संपन्नता-जनित व्यस्तता और उसकी वजह से लालन-पालन का काम सेवकों, आयाओं के भरोसे छोड़ने की मजबूरी की तस्वीर पेश करता है।

आंध्र प्रदेश में मात्र 1.3 फीसद शिशुओं को पोषक तत्वों वाला भोजन मिलता है

इसकी भयावहता तब और बढ़ जाती है जब यह सामना आता है कि आंध्र प्रदेश में मात्र 1.3 प्रतिशत शिशु पोषक तत्वों वाला भोजन पाते हैं, जबकि महाराष्ट्र में सिर्फ 2.2, गुजरात, तेलंगाना और कर्नाटक में मात्र 3.8 और तमिलनाडु में 4.2 प्रतिशत। इस पैमाने पर सबसे बेहतर राज्य सिक्किम है जहां 35.2 प्रतिशत शिशु समुचित पोषक तत्वों वाला भोजन पाते हैं, दूसरे नंबर पर केरल (32.6) प्रतिशत है।

देश के हर दसवें बच्चे में मधुमेह के लक्षण मिले

आर्थिक रूप से संपन्न वर्ग का हर आठवां बच्चा स्थूल शरीर का पाया गया, जबकि देश के हर दसवें बच्चे में मधुमेह-पूर्व के लक्षण मिले। इसका मतलब है कि उनमें मधुमेह होने की प्रबल आशंका है। गरीबों में प्रत्येक सौ में से एक बच्चे में मोटापा पाया गया। रिपोर्ट के अनुसार आज भी देश का हर तीसरा बच्चा नाटा (स्टंटेड) है यानी उम्र से कम लंबाई वाला। इसी तरह लगभग हर तीसरा बच्चा उम्र के अनुसार कम वजन का है, जबकि हर छठवां बच्चा दुबले शरीर का यानी लंबाई के हिसाब से कम वजन का होता है।

बच्चों को समुचित और संतुलित आहार की कमी

संयुक्त राष्ट्र संगठन यूनिसेफ और विश्व स्वास्थ्य संगठन की परिभाषा के अनुसार उपरोक्त तीनों लक्षणों का मूल कारण बच्चों को समुचित और संतुलित आहार न देना है। इसकी वजह से बच्चों की बौद्धिक क्षमता कम हो जाती है। विशेषज्ञों की राय में किसी देश के नागरिकों की बौद्धिक-शारीरिक क्षमता कम होने के कारण वहां के सकल घरेलू उत्पाद में गिरावट आती है।

बच्चों में खून की कमी

दुनिया की दूसरी सबसे बड़ी आबादी होने के बावजूद ओलंपिक खेलों में खराब प्रदर्शन से भी इसे समझा जा सकता है। अपने देश में स्कूल जाने की आयु से पूर्व के हर पांच बच्चों में दो, स्कूल जाने वाले हर चार बच्चों में एक और तरुणवय वाले 28 प्रतिशत बच्चों में खून की कमी पाई गई। इन संगठनों के मानदंडों के तहत समुचित और संतुलित पोषण के लिए सात खाद्य पदार्थ रखे गए हैं। इनमें से क्षेत्र विशेष की पसंद के साथ किन्हीं चार को देकर शिशुओं का अच्छा पालन-पोषण कर सकते हैं। इनमें आलू, दाल, अंडा, मांसाहार, फलों का रस, स्थानीय सब्जियां और दूध से बने पदार्थ हैं, लेकिन ऐसा लगता है कि संपन्न और शिक्षित वर्ग शायद विज्ञापनों से भ्रमित होकर इन सहज खाद्य पदार्थों की जगह जंक फूड जैसे चिप्स, नूडल्स, बर्गर देकर अपने अहंकार को संतुष्ट कर लेता है, बगैर यह सोचे कि वह बच्चों का भविष्य बिगाड़ रहा है।

जंक फूड लेने से खून की कमी और बढ़ जाती है

तरुणवय में यानी 13-18 तक की आयु में खून की कमी और बढ़ जाती है, क्योंकि बच्चे जंक फूड की ओर आकर्षित हो रहे हैं। कामकाजी अभिभावकों को भी यह आसान लगता है, क्योंकि खाना-बनाने में व्यय होने वाले समय की बचत हो जाती है। स्वास्थ्य मानदंडों के अनुसार मां का दूध पीने वाले शिशुओं को कम से कम तीन बार अन्य पौष्टिक पदार्थ खिलाना चाहिए जबकि ऊपर का दूध पीने वाले शिशुओं को पांच बार। शायद कामकाजी अभिभावकों के लिए यह सब संभव नहीं होता।

माइक्रो पोषक तत्वों के स्तर का आकलन बड़े पैमाने पर पहली बार

राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य मिशन की ओर से 2015 में जारी पोषण संबंधी रिपोर्ट के बाद यह पहला राष्ट्रीय स्तर का अध्ययन है। अब तक की रिपोर्टों से अलग इस अध्ययन की खास बात यह है कि शरीर की बौद्धिक और भौतिक क्षमता के लिए माइक्रो पोषक तत्वों के स्तर का आकलन इतने बड़े पैमाने पर (1.10 लाख बच्चों पर) पहली बार हुआ है।

बच्चों की स्थिति बेहतर हो रही है

वैसे खुश होने की बात यह है कि धीमी गति से ही सही, बच्चों की स्थिति बेहतर हो रही है और हर साल बच्चों के नाटेपन, दुबलेपन और कम वजन होने के प्रतिशत में एक-दो प्रतिशत की दर से गिरावट आ रही है। इसका श्रेय मोदी सरकार के पोषण अभियान को जाता है।

मोदी सरकार चाहती है 2022 तक कुपोषण से बच्चों को छुटकारा मिले

सरकार चाहती है कि 2022 तक कुपोषण से बच्चों को पूरी तरह छुटकारा दिलाया जाए, लेकिन मौजूदा रफ्तार से यह संभव नहीं लगता। समस्या यह है कि अगर कामकाजी अभिभावक बच्चों को बाजार के प्रभाव में चिप्स, नूडल्स, अन्य फास्ट फूड देंगे या फिर उन्हें घरेलू सेविकाओं के भरोसे छोड़ देंगें तो सरकार चाहकर भी कुछ नहीं कर पाएगी। शायद यही कारण है कि प्रधानमंत्री मोदी मन की बात कार्यक्रम में कई बार देश के अभिभावकों को समुचित और संतुलित आहार देने की वकालत कर चुके हैैं। उचित यह होगा कि गरीब तबके के साथ संपन्न तबका भी पोषण के महत्व को समझे। यह तभी हो सकता है कि जब जंक फूड के हानिकारक प्रभावों के बारे में जानकारी से लैस हुआ जाएगा।

( लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैैं )