प्रो. संजीव कुमार शर्मा। भारतवर्ष अकल्पनीय विविधताओं से सुसज्जित देश है। हमारा यह वैविध्य अत्यंत प्राचीन है और सनातन है। इस विविधता से पृथकता का भाव कदापि नहीं निकलता, अपितु अद्भुत एकत्व का संचार होता रहता है। वेशभूषा, आहार, व्यवहार, उपासना, बोली, भाषा, उत्सव, तीर्थ, लोकाचार आदि की विभिन्नता कभी भी राष्ट्रीय चिंता का विषय नहीं बनी। कतिपय संक्षिप्त कालखंडों में कुछ विचार-अनुयायियों द्वारा इस विविधता को राष्ट्र की एकता में बाधा भी बताया गया।

कुछ राजनीतिक विचारधाराओं ने इन विविध रूपों में पारस्परिक शत्रुता खोजने और अकारण संघर्ष आरोपित करने के कुटिल प्रयास भी किए। परंतु भारत की सनातन सांस्कृतिक अक्षुण्णता के तंतु हमारे लोक जीवन में इतने गहरे बैठे हैं कि प्रत्येक संस्था, समुदाय और समाज में वर्ग संघर्ष को अनिवार्य बताने के हठी अपनी कुंठाओं के गह्वर में निमग्न हो गए और राजनीतिक तथा सामाजिक दृष्टि में अप्रासंगिक हो गए।

यह भी रोचक तथ्य है कि भारत की भाषाई विविधता को जिन्होंने राजनीतिक और प्रशासनिक विभाजन का आधार बनाया तथा स्वातंत्र्योत्तर भारत के अनेक विवादों और संघर्षो का कारण बना डाला, उसी विचारधारा के लोग ही आजकल राष्ट्रीय शिक्षा नीति के भाषा संबंधी प्रावधानों में दोष खोज रहे हैं। संस्कृत के बहाने तमिल और अन्य दक्षिण भारतीय भाषाओं को स्थान-च्युत कर हिंदी थोपने का प्रयास बताकर जो राजनेता शिक्षा नीति के विरोध में अंग्रेजी समाचार पत्रों में लेख लिख रहे हैं, वे सचमुच में विघ्नसंतोषी हैं। सामान्य लोगों में भाषाई वैमनस्य बढ़ाने की यह दुष्प्रवृत्ति भारतीय भाषाओं की चिर-शत्रु है। दुख की बात यह है कि हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओं के बारे में राष्ट्रीय शिक्षा नीति के प्रावधानों को लेकर सुनियोजित रीति से कुछ शरारती तत्व भ्रम फैला रहे हैं।

वस्तुत: राष्ट्रीय शिक्षा नीति समान रूप से सभी भारतीय भाषाओं की चिंता करती है। हमारी सभ्यतामूलक दृष्टि अनेक भाषाओं और बोलियों में विद्यमान लोक साहित्य, लोक नृत्य, लोक कला, लोक संगीत, लोक कथा आदि से समृद्ध हुई है। हमारी दंतकथाएं, लोकोक्तियां, पर्व, तीर्थ आदि सभी क्षेत्रीय बंधनों से परे देखने में हमेशा समर्थ रहे हैं। अपने से इतर भाषा-भाषी सर्वदा हमारे कौतूहल, उत्कंठा और सहज सम्मान का पात्र बनता है। इसीलिए हमारे सारे इतिहास व संस्कार में भारत एकात्म स्वरूप में विद्यमान है। राष्ट्रीय शिक्षा नीति इस विचार को अग्रसारित करती दिखती है।

शिक्षा नीति आठवीं अनुसूची की सभी 22 भाषाओं में पृथक अकादमी की स्थापना का प्रस्ताव करती है। यह प्रस्ताव भारतीय भाषाओं में गुणवत्तापूर्वक पाठ्य सामग्री के निर्माण तथा शोध की संभावनाओं के अगणित द्वार अनावृत्त करेगा। अनुवाद तथा व्याख्या हेतु एक राष्ट्रीय संस्थान का संकल्प भी इस नीति का एक महत्वपूर्ण पक्ष है। देशभर में कुशल भाषा शिक्षकों, अनुवादकों, भारतीय भाषाओं में पाठ्य वस्तु का निर्माण करने में सक्षम विद्वानों आदि नवीन रोजगार के अवसर भी इससे सृजित होंगे। सृजनात्मक साहित्य लेखन को पुरस्कार दिए जाने का विचार भी रचनात्मकता, मौलिकता और प्रतिभा को प्रोत्साहित करेगा। साथ ही बहुभाषिकता एक विशिष्ट योग्यता बन जाएगी। एक से अधिक भारतीय भाषाओं का अधिकार रखने वाले व्यक्तियों की मांग सर्वत्र बढ़ जाएगी। सभी क्षेत्रीय भाषाओं में पुस्तकों की रचना और प्रकाशन द्रुतगति से बढ़ेगा।

संस्कृत के विषय में राष्ट्रीय शिक्षा नीति एक विशिष्ट दृष्टि रखती है। संस्कृत भाषा को मुख्यधारा में लाने के उद्देश्य से इसे त्रि-भाषा सूत्र में एक विकल्प के रूप में रखने का निर्णय अनूठा और प्रशंसनीय है। साथ ही शिक्षा नीति संस्कृत ज्ञान व्यवस्था को बहुविषयक तथा अंतरविषयी बनाने पर बल देती है। सत्य यह है कि कई कारण से भारतवर्ष के अकादमिक समुदाय ने अनेक वर्षो से संस्कृत भाषा की सायास उपेक्षा की है। इसका एक परिणाम यह हुआ है कि हमारा शिक्षित समाज या तो अपनी सांस्कृतिक परंपरा से सर्वथा अनभिज्ञ है या उसे आधुनिकता के सापेक्ष हेय दृष्टि से देखता है।

कैसी विडंबना है कि सहस्नों वर्षो तक ज्ञान-विज्ञान, अध्यात्म, दर्शन, चिकित्सा, आयुर्वेद, साहित्य, प्रशासन, चिंतन, खगोलशास्त्र, तर्कशास्त्र, नीति आदि की विपुल संपदा का निर्बाध निर्वहन करनी वाली संस्कृत को आधुनिक भारत के कुछ अल्पशिक्षित मातृभाषा कहने का दुस्साहस कर लेते हैं। भारत के सांस्कृतिक वैभव का वैश्विक दिग्दर्शन कराने वाली संस्कृत का अज्ञान भारतीयता का अज्ञान है। राष्ट्रीय शिक्षा नीति इस महत्वपूर्ण प्रश्न को सकारात्मक रूप में संबोधित करती है। पांडुलिपियों का एकत्रीकरण तथा संरक्षण सभी शिक्षण संस्थाओं के शोधकर्ताओं के लिए सहायक सिद्ध होगा। संस्कृत शिक्षकों को व्यावसायिक शिक्षा प्रदान करने का प्रस्ताव इस अपेक्षाकृत विपन्न समुदाय को संजीवनी प्रदान करेगा।

इस प्रस्तावित कार्ययोजना में आठवीं अनुसूची की सभी भाषाओं की पृथक अकादमी की स्थापना, भाषाओं के शब्दकोशों का अद्यतनीकरण और इस हेतु कार्यदलों का गठन, प्रयोजनमूलक भाषा कार्यक्रमों का विश्वविद्यालयों में प्रोत्साहन, मानकीकृत पारिभाषिक शब्दावली के अधिकाधिक प्रयोग को प्रोत्साहित करने की योजना का निर्माण, विश्वविद्यालयों में भारतीय भाषाओं के माध्यम से अध्यापन, समाज विज्ञानों तथा भौतिक विज्ञानों में भारतीय भाषाओं में दक्ष एवं वर्तमान में कार्यरत शिक्षकों को चिह्न्ति करना, बहुभाषी शिक्षकों को अनुवाद कार्य योजना में संलग्न किया जाना, भारतीय भाषाओं की श्रेष्ठतम रचनाओं के अन्यान्य भाषाओं में अनुवाद तथा उनकी पुस्तकालयों में उपलब्धता सुनिश्चित कराना, विश्वविद्यालयों में संस्कृत तथा क्षेत्र विशेष से इतर भारतीय भाषा में रचनात्मक प्रतिभा प्रदर्शन को पुरस्कृत किया जाना, कार्यालयी प्रयोग में हिंदी के प्रयोग पर विशेष बल दिया जाना आदि प्रमुख हैं।

समग्र रूप से राष्ट्रीय शिक्षा नीति भारतीय भाषाओं के प्रति संवेदनशील है। इसके मंतव्यों के क्रियान्वयन की योजना तेजी से बनाई जानी चाहिए, जिससे भ्रांतियां फैलाने वालों की दुराशाएं फलवती न हो और देश के सांस्कृतिक एकीकरण की सनातन परंपरा अक्षुण्ण बनी रहे।

[कुलपति, महात्मा गांधी केंद्रीय विश्वविद्यालय, मोतिहारी, बिहार]