[ मनमोहन वैद्य ]: प्रसिद्ध सोमनाथ मंदिर के पुनर्निर्माण हेतु ज्योतिर्लिंग की प्राण-प्रतिष्ठा के लिए प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के विरोध के बावजूद स्वतंत्र भारत के प्रथम राष्ट्रपति डॉ. राजेंद्र प्रसाद ने अपनी स्वीकृति दी थी और वह 11 मई, 1951 को वहां गए भी। भारत के स्वतंत्र होने के साथ ही भारत के सांस्कृतिक गौरव चिन्हों को पुनस्र्थापित करना और करोड़ों लोगों की श्रद्धा के ऐसे सांस्कृतिक प्रतीकों को लेकर राष्ट्रीय दृष्टि कैसी होनी चाहिए, इसका एक उत्कृष्ट उदाहरण डॉ. राजेंद्र प्रसाद का उक्त अवसर पर दिया गया भाषण है। महात्मा गांधी जी के ‘रामराज्य’ का स्वप्न जिन राजा रामचंद्र के कारण था उनकी जन्मस्थली पर उनके मंदिर को ध्वस्त करने के अपमान को निरस्त कर उनका भव्य मंदिर वहीं बनाने के संकल्प को राष्ट्रीय दृष्टि से कैसे देखना चाहिए, यह भी उनके भाषण से स्पष्ट होता है।

राष्ट्रपति राजेंद्र प्रसाद का भाषण इस प्रकार था- ‘हमारे शास्त्र में श्री सोमनाथ जी को 12 ज्योतिर्लिंगों में से एक माना गया है और इसलिए पुरातन काल में भारत की समृद्धि, श्रद्धा और संस्कति का प्रतीक भगवान सोमनाथ का यह मंदिर था। दूर-दूर तक और देश-देश में इसके अतुलनीय वैभव की ख्याति फैली हुई थी, किंतु जातीय श्रद्धा का बाह्य प्रतीक चाहे विध्वंस किया जा सके पर उसका स्नोत तो कभी नहीं टूट सकता। यही कारण है कि सब विपत्तियां पड़ने पर भी भारत के लोगों के हृदय में भगवान सोमनाथ के इस मंदिर के प्रति श्रद्धा बनी रही और उनका यह स्वप्न बराबर रहा कि वे इस मंदिर की प्राण-प्रतिष्ठा पुन: कर दें। समय-समय पर वे ऐसा करते भी रहे और आज ऐतिहासिक मंदिर के जीर्णोद्धार के पश्चात इसके प्रांगण में भारत के कोने-कोने से आए हुए अनेक नर-नारियों का कलरव फिर सुनवाई दे रहा है।

...सोमनाथ का यह मंदिर आज फिर अपना मस्तक ऊंचा कर संसार के सामने यह घोषित कर रहा है कि जिसे जनता प्यार करती है, जिसके लिए जनता के हृदय में अक्षय श्रद्धा और स्नेह है उसे संसार में कोई भी मिटा नहीं सकता। आज इस मंदिर की प्राण-प्रतिष्ठा पुन: हो रही है और जब तक इसका आधार जनता के हृदय में बना रहेगा तब तक यह मंदिर अमर रहेगा।

... इस पुनीत, पावन, ऐतिहासिक अवसर पर हम सबके लिए यह उचित है कि हम धर्म के इस महान तत्व को समझ लें कि भगवान की सत्य की झांकी पाने के लिए कोई एक ही मार्ग मनुष्य के लिए अनिवार्य नहीं है। दुर्भाग्यवश धर्म और जीवन के इस तथ्य को विभिन्न युगों और विभिन्न जातियों में ठीक-ठीक नहीं अपनाया गया और इसी कारण धर्म के नाम पर संसार के विभिन्न देशों और विभिन्न जातियों में अत्यंत विनाशकारी और वीभत्स संघर्ष और युद्ध हुए।

धार्मिक असहिष्णुता से सिवाय विद्वेष और अनाचार बढ़ने के अतिरिक्त और कोई फल नहीं होता। यही इतिहास की शिक्षा है और इसे हम सबको गांठ बांध रखना चाहिए। इस बात की आज विशेष आवश्यकता है कि हममें से प्रत्येक यह समझ ले कि हमारे देश में जितने संप्रदाय और समुदाय हैैं उन सबके प्रति हमें समता और आदर का व्यवहार करना है। ऐसा करने में ही हमारी सारी जाति और देश का तथा प्रत्येक व्यक्ति का कल्याण निहित है। इसी विश्वास और श्रद्धा के कारण हमारे भारतीय संघ ने धर्मनिरपेक्षता की नीति अपनाई है और इसका आश्वासन दिया है कि देश में बसने वाले प्रत्येक संप्रदाय के लोगों को राज्य की ओर से एक समान सुविधाएं प्राप्त होंगी।

...इस पुनीत अवसर पर हम सबके लिए यह उचित है कि हम आज इस बात का व्रत लें कि जिस प्रकार हमने आज अपनी ऐतिहासिक श्रद्धा के इस प्रतीक में फिर से प्राण-प्रतिष्ठा की है उसी प्रकार हम देश के जन साधारण के उस समृद्ध मंदिर में भी प्राण-प्रतिष्ठा पूरी लगन से करेंगे जिसका एक चिन्ह सोमनाथ का पुरातन मंदिर था। उस ऐतिहासिक काल में हमारा देश जगत का औद्योगिक केंद्र था। यहां के बने हुए माल से लदे कारवां दूर-दूर देशों को जाते थे और संसार का चांदी-सोना इस देश में अत्यधिक मात्रा में खिंचा चला आता था। हमारा निर्यात उस युग में बहुत था और आयात बहुत कम। इसलिए भारत उस युग में स्वर्ण और चांदी का भंडार बना हुआ था। आज जिस प्रकार समृद्ध देशों के तहखाने में संसार का स्वर्ण पर्याप्त मात्रा में पड़ा रहता है उसी प्रकार शताब्दियों पूर्व देश में संसार के स्वर्ण का अधिक भाग हमारे देवस्थानों में होता था।

मैं समझता हूं कि भगवान सोमनाथ के मंदिर का पुनर्निर्माण उसी दिन पूरा होगा जिस दिन न केवल इस प्रस्तर की बुनियाद पर भव्य भवन खड़ा हो गया होगा, वरन भारत की उस समृद्धि का भी भवन तैयार हो गया होगा जिसका प्रतीक पुरातन सोमनाथ का मंदिर था। इसके साथ ही मेरी समझ से सोमनाथ के मंदिर का पुनर्निर्माण तब तक भी पूरा नहीं होगा जब तक कि इस देश की संस्कृति का स्तर इतना ऊंचा न हो जाए कि यदि कोई वर्तमान अलबरूनी हमारी वर्तमान स्थिति को देखे तो हमारी संस्कृति के बारे में आज की दुनिया में वही भाव प्रकट करे। नव निर्माण का यह यज्ञ स्वर्गीय बल्लभ भाई पटेल ने आरंभ किया था।

भारत की विच्छिन्नता को पुन: एक और अखंड करने में उनका निर्णायक हाथ था। उनके हृदय में यह आकांक्षा उत्पन्न हुई थी कि नव निर्माण के प्रतीक स्वरूप भारत की पुरातन श्रद्धा का यह प्रतीक फिर से निर्मित किया जाए। वह स्वप्न भगवान की कृपा से आज एक सीमा तक पूरा हो गया, किंतु वह पूर्णरूपेण उसी समय पूरा हो सकेगा जब भारत के जनजीवन का वैसा ही सुंदर मंदिर बन गया होगा जैसा यह मंदिर है। जय भारत।’

आखिर इस भाषण में ऐसा आपत्तिजनक क्या था कि प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू जी ने इसको सरकारी रिकॉर्ड में नहीं लेने दिया। यह भारतीय अवधारणा और अभारतीय अवधारणा के बीच संघर्ष का उदाहरण है। आजादी के साथ ही भारत के वामपंथी नेहरूजी की आड़ में इस अभारतीय अवधारणा को समाज और जीवन के हर क्षेत्र में थोपने का प्रयास करते रहे। इस कारण भारत का ‘भारतत्व’ पूर्ण पुरुषार्थ के साथ प्रकट नहीं हो सका।

करोड़ों ( हिंदू और मुस्लिम ) भारतीयों की अयोध्या में श्रीराम का भव्य मंदिर बनाने की राष्ट्रीय आकांक्षा का कुछ लोगों द्वारा विरोध भी इन दो अवधारणाओं के बीच का संघर्ष ही है। सोमनाथ के मंदिर को भारत के सांस्कृतिक और आर्थिक गौरव से जोड़ना और साथ ही यह कहना बहुत महत्वपूर्ण है कि वैसी ही आर्थिक समृद्धि प्राप्त होने के साथ मंदिर के जीर्णोद्धार का कार्य पूर्ण होगा। इसी तरह भारत की सदियों पुरानी सांस्कृतिक पहचान के आधार पर राष्ट्रीय चरित्र के साथ गांधी जी की ‘रामराज्य’ की कल्पना को साकार करने के संकल्प को पूरा करने के साथ अयोध्या में राम मंदिर के पुनर्निर्माण को जोड़ना भारत के गौरव के साथ भारत का पुरुषार्थ प्रकट होने में सहायक होगा।

यह भी ध्यान रहे कि 1528 में मुगल आक्रमणकारी बाबर के लिए अयोध्या में मंदिर तोड़कर मस्जिद बनाना आवश्यक नहीं था। मस्जिद बनानी भी थी तो वह अन्य कहीं पर भी बन सकती थी। अब तो इस्लामिक स्कॉलर्स भी यह कहते हैं कि बाबर के वजीर का कृत्य न तो इस्लामिक था न ही धार्मिक। उसे तो केवल हिंदुओं का अपमान करना था।

( लेखक राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सह सर कार्यवाह हैैं )