प्रदीप सिंह। जैसे-जैसे 2024 के लोकसभा चुनाव करीब आ रहे हैं, मोदी विरोधी विमर्श खड़ा करने वालों की आतुरता बढ़ती जा रही है। उन्हें लग रहा है कि समय तेजी से हाथ से निकल रहा है। समझ ही नहीं पा रहे हैं कि इस देश के लोगों को हो क्या गया है। मोदी विरोध में कुछ सुनने को ही तैयार नहीं हैं। मोदी विरोधियों की हताशा का आलम देखिए कि भारत-पाकिस्तान के मैच में भारत की हार को वे मोदी की हार के रूप में देख रहे हैं। कांग्रेस की एक प्रवक्ता ने टिप्पणी की, ‘क्यों भक्तों आ गया स्वाद?’ इसका मतलब है कि उन्होंने मान लिया है कि भारत मतलब मोदी। इसमें उनका दोष नहीं है। ऐसी बातों पर मुझे राजनीतिक लोगों की प्रतिक्रिया पर आश्चर्य नहीं होता, मगर बुद्धिजीवियों की बात पर जरूर होता है।

बुद्धिजीवियों की मानें तो माओवादियों के खिलाफ कार्रवाई करना अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर हमला है। आतंकियों के खिलाफ कार्रवाई सांप्रदायिकता है। किसी व्यक्ति पर आरोप/एफआइआर/ मुकदमा चलाने का आधार यह होना चाहिए कि वह मोदी/भाजपा/ संघ का समर्थक है या विरोधी? आरोपित मुसलमान है, तो वह निर्दोष ही होगा और मोदी सरकार उसे जबरन फंसा रही होगी। यदि आरोपित कोई हिंदू है तो उसे अदालत के फैसले से पहले ही सजा मिल जानी चाहिए, उसे सजा नहीं मिल रही है तो उसे बचाने का षड्यंत्र रचा जा रहा है।

एक अजीब-सा सनकीपन है। कोई कानून अच्छा है या बुरा, यह इस आधार पर तय होता है कि उसके तहत कार्रवाई किस पर हो रही है? सुशांत राजपूत के मामले में यह नहीं कहा गया कि एनडीपीएस एक्ट में खराबी है। शाह रुख खान के बेटे आर्यन खान की गिरफ्तारी क्या हुई, अचानक नशेड़ी युवाओं के प्रति सहानुभूति की बाढ़ आ गई। कहा जा रहा है कि यह कानून तो बच्चों का जीवन बर्बाद करने के लिए है। जितने बड़े पैमाने पर और जितनी शिद्दत से आर्यन खान की गिरफ्तारी के खिलाफ अभियान चलाया जा रहा है, उसकी आधी भी ताकत से नशे के खिलाफ अभियान चलाया गया होता, तो आज यह नौबत नहीं आती। जब एक पिता अपने छोटे से बेटे के बारे में टीवी इंटरव्यू में कहे कि वह चाहता है कि बेटा बड़ा होकर नशे का अनुभव ले, तो नतीजा तो यही होना था। कौन नहीं जानता कि पूरे बालीवुड में नशा खासतौर से युवा पीढ़ी में चाय-काफी का दर्जा हासिल कर चुका है। अब इस सच्चाई से शुतुरमुर्ग की तरह आंखें फेरना है तो दूसरी बात है।

भारत-पाकिस्तान के मैच में कुछ लोग पाकिस्तान की जीत पर नहीं, भारत की हार पर जश्न मनाते हैं। उनके बारे में कहा जाता है कि यह खेल भावना है और उसका आदर होना चाहिए। सामान्य शिष्टाचार की बात है। देशभक्ति और देश विरोध की बात छोड़ दीजिए। आपके पड़ोसी के घर में मातम हो तो क्या आप नाचते हुए जाते हैं? भारत की हार से देश में मायूसी का माहौल होना स्वाभाविक है। यह हार क्रिकेट में हो तो और भी ज्यादा। पाकिस्तान का पूर्व कप्तान वकार यूनुस कहता है कि उसके लिए सबसे अच्छा लम्हा वह था, जब उसके खिलाड़ी ने जीत के बाद हिंदुओं के सामने मैदान में नमाज पढ़ी। आपत्ति के बाद उसने माफी मांग ली, लेकिन इस मानसिकता को समझिए। उनके लिए भारत से मैच खेल नहीं धर्म का मामला है। इसके बावजूद अपने देश में कुछ लोगों के लिए यह भी खेल भावना है। जो बिरादरी वकार पर सवाल नहीं उठाती, वो वीरेंद्र सहवाग पर सवाल उठाती है। सहवाग हों या वेंकटेश प्रसाद, इनकी नजर में नायक से खलनायक बन जाते हैं। खेल हो युद्ध या कोई सामान्य स्पर्धा, देश की हार पर खुशी मनाने वाले देश के हितैषी कैसे हो सकते हैं? ऐसे लोगों के समर्थन में खड़े होने वाले आखिर किस मानसिकता के लोग होते हैं? ऐसा कैसे होता है कि देश के विरोध में खड़े होने वालों पर ये सारी ममता उड़ेलने के लिए तैयार रहते हैं और देश के साथ खड़े होने वालों के लिए उनके पास सिर्फ नफरत है?

देश की सर्वोच्च अदालत के दरवाजे अब आतंकियों/अपराधियों को सजा से बचाने की कोशिश करने वालों के लिए आधी रात को नहीं खुलते तो उनकी नजरों में उसकी प्रतिष्ठा गिर गई है। संवैधानिक मर्यादा में होने वाला कोई काम इस वर्ग को तभी स्वीकार होता है, जब वह इनके मन मुताबिक हो। मन मुताबिक की परिभाषा बहुत सरल है। वह प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी, भाजपा और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के खिलाफ होना चाहिए। चुनाव आयोग भाजपा के खिलाफ हो तो निष्पक्ष है। जनादेश भाजपा के खिलाफ है तो जनतंत्र को मजबूत करता है और पक्ष में हो तो जनतंत्र ही खतरे में है। व्यक्ति और संस्था छोड़िए, इस पूर्वाग्रह से मशीन भी नहीं बची है। इलेक्ट्रानिक वोटिंग मशीन से भाजपा विरोधी वोट निकलें तो ठीक, अन्यथा मोदी सरकार ने उसे हैक करवाया। तर्क एक ही है कि भाजपा कैसे जीत सकती है? इसीलिए वे भाजपा के पक्ष में आए जनादेश को पिछले सात साल से स्वीकार करने को तैयार ही नहीं हैं।

मामला राफेल लड़ाकू विमानों की खरीद का हो, राम जन्मभूमि पर मंदिर निर्माण का या सेंट्रल विस्टा का, अदालत का फैसला संविधान और जनतंत्र विरोधी है, क्योंकि जनतंत्र तो तभी बचेगा, जब कानून की अदालत से जनता की अदालत तक फैसला मोदी के विरोध में हो। सारी बात का लब्बोलुआब यही है कि इनके मन का हो तो न्याय है और मन का न हो तो अन्याय है। न्याय की इससे सरल परिभाषा और क्या हो सकती है? इन्हें लगता है कि एक बार मोदी को हटा लें, तो फिर पुराने दिन लौट आएंगे। ये सावन के अंधे हैं। इनकी नजर से हरियाली का वह मंजर हटता ही नहीं। उसकी जितनी याद आती है उतने ही जोशो-खरोश से मोदी विरोधी अभियान में जुट जाते हैं। कथित किसान आंदोलन के गुब्बारे में इतनी हवा भरी कि वह फूट गया। विपक्षी एकता का ताना इतना खींचा कि वह टूट गया। अब विपक्षी एकता की बात तो दूर, विपक्ष की आपसी लड़ाई रुकने का नाम नहीं ले रही। एक-दूसरे को भाजपा की बी टीम बताने की होड़ लगी हुई है। बस एक बात सही है कि इनके हाथ से समय मुट्ठी में बंद रेत की तरह फिसलता जा रहा है। उत्तर प्रदेश में मोदी विरोधियों को एक बड़ा झटका लगने वाला है। जल्दी ही निराशा हताशा में बदलने वाली है।

(लेखक राजनीतिक विश्लेषक एवं वरिष्ठ स्तंभकार हैं)