[ संतोष त्रिवेदी ]: बहुत पहले हमने यह सुना था कि नाम में आखिर क्या रखा है, पर पिछले दिनों अनुभव किया कि नाम में ही सब रखा है। वे दिन हवा हो गए जब काम बड़ा करने से नाम बड़ा होता था। अब नाम बड़ा हो तो काम अपने आप बड़ा हो जाता है। काम जब ‘फेल’ होने लगे तो नाम की महिमा से चुनाव की नैया भी पार लग जाती है। छोटे और मझोले किस्म के नाम का तो ‘मी टू’ भी नहीं होता। नाम बड़ा हो तो इस्तीफा भी हो जाता है। नाम गद्दी दिलाता है तो उतार भी देता है। ‘अबकी बार’ पर सवार सरकार भी इस बार सकते में है। नाम बचाएगा या डुबोएगा, यह बात काम भी नहीं जानता।

सियासत हो या साहित्य सब जगह नाम ही उबारता है। हिट लेखक की पिटी हुई किताब नाम के सहारे दस संस्करण निकाल लेती है। दो-चार अकादमी सम्मान भी झोली में डाल ही लेती है। सियासत में इसका फायदा जनता और सरकार दोनों को अलग-अलग ढंग से होता है। ‘हारे को हरिनाम’ का पाठ जनता के दिमाग में बहुत पहले से बैठा हुआ है। कोई बड़ी समस्या जब उसे दबोचती है, वह सरकार का मुंह नहीं देखती, नाम सुमिरन करने लगती है। सरकार भी जब काम करके थक जाती है तो यही करती है।

नाम के इस असर को बाबा तुलसीदास ने हमसे पहले देख लिया था। शायद इसीलिए उन्होंने भविष्यवाणी की थी कि कलियुग में नाम के अलावा और कोई उपाय विशेष नहीं है। हम एक-दो दिशाओं में ही नाम के प्रभाव को समझ पा रहे हैं। उन्होंने दसों दिशाओं में इसे महसूस किया था। शायद इसी दौर के लिए ही उन्होंने कहा था, ‘नाम जपत मंगल दिसि दसहुं।’ इस बात को जनता के साथ-साथ हमारी सरकार ने भी आत्मसात कर लिया है। अब काम नहीं नाम ही संकटमोचक है।

जो लोग रोज पेट्रोल और डीजल की कीमतों पर रुपये की तरह बल्लियां उछल रहे हैं, उन्हें इनका नाम बदलकर सरकार को सहयोग करना चाहिए। सरकार अपनी तरफ से अकेले कितना करे? नाम के इस बढ़ते प्रभाव से ‘नामधारी’ भी गदगद हैं। उन्हें लगता है कि जब नाम से ही सरकार बननी है तो उनका हक सबसे पहले बनता है। नाम जिंदा रहता है तो दावा भी मजबूत होता है। चुनाव में भी टिकट काम नहीं नाम देखकर दिया जाता है। इसकी पीड़ा उनसे पूछो जिनके नाम प्रत्याशियों की आखिरी सूची से कट जाते हैं।

हम नाम के इस प्रभाव को परख ही रहे थे कि तभी काम याद आ गया। वह सचमुच हमारे सामने खड़ा था। बिल्कुल निहत्था। कहने लगा, ‘एक तुम्ही हो जो हमें याद कर लेते हो। बताइए क्या काम है?’ हम मन ही मन सोचने लगे कि इतनी जल्दी तो नाम लेने पर भगवान भी नहीं आते, काम कैसे आ गया! पर हमने उससे यह बात नहीं कही। बुरा मान सकता था। काम के कटे हाथ को देखकर पिछले पांच साल में पहली बार आत्मसंतुष्टि हुई। प्रत्यक्षत: हमने अपने मनोभाव को उस पर प्रकट नहीं होने दिया। हमदर्दी जताते हुए पहला सवाल यही किया कि उसके हाथ कौन ले गया। अब वह काम कैसे करेगा।

काम ने बेहद उदासीन होते हुए कहा, ‘जबसे नाम का शोर मचा है, हम बेरोजगार हो गए हैं। अभी-अभी इस्तीफा देकर आए हैं। नाम ने हमें बहुत चोट पहुंचाई है। जिसके पास काम नहीं, वो सोशल मीडिया में बड़ा सा नाम लेकर रम जाता है। हमारी सालों की कमाई मिनटों में ‘मी टू’ हो गई। चालीस साल का नाम खराब हो गया। हमने सुना था कि ‘काम बोलता है’ पर यहां तो ‘काम’ बेरोजगार भी बना देता है। यह सब हमारे नाम का किया-धरा है। उसी की चपेट में आकर हम चौपट हुए हैं।’

काम को पहली बार पटरी से उतरा देखकर हम ख़ुश थे। इतने दिनों से पत्थरबाजी हो रही थी, पर ‘हाथ’ खाली था। अब जाकर एक कायदे का निशाना लगा था। चलिए अब नए शिकार की तलाश में निकला जाए।

[ लेखक हास्य-व्यंग्यकार हैं ]