विवेक ओझा। नगा शांति वार्ता का मुद्दा एक बार फिर चर्चा में है। नेशनल सोशलिस्ट काउंसिल ऑफ नगालैंड (आइएम) के महासचिव ने मांग की है कि नगा शांति वार्ता किसी तीसरे देश में आयोजित की जाए। चूंकि एनएससीएन (आइएम) ग्रेटर नगालिम को एक पृथक देश के रूप में देखता है, अत: उसने प्रधानमंत्री कार्यालय से अपनी इस मांग का जवाब मांगा है और साथ ही नगालैंड में नृजातीय समुदायों द्वारा किए जाने वाले विप्लव को दूर करने के लिए नगा शांति वार्ता में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की प्रत्यक्ष भागीदारी की मांग भी की है।

इन सभी मांगों के पीछे मुख्य व्यक्ति मुइवा हैं, जो स्वघोषित नगा सरकार के मुखिया हैं और पिछले कुछ दिनों में नगा पृथकतावाद से जुड़े मामलों पर अधिक सक्रिय हुए हैं। उनका मानना है कि उनका समूह नगा समस्या को भारत के आंतरिक कानून व्यवस्था का विषय नहीं, बल्कि एक राजनीतिक मुद्दे के रूप में देखता है। मुइवा ने हाल ही में एक बार फिर से भारत सरकार और नगा विद्रोही समूहों के बीच 2015 में हुए फ्रेमवर्क एग्रीमेंट का हवाला देते हुए पृथक नगा संविधान, झंडे, राज्य चिन्ह या प्रतीक की मांग की है।

ऐसे में किसी तीसरे देश में शांति वार्ता की मांग के संबंध में यह याद रखा जाना चाहिए कि भारत सरकार के प्रतिनिधि विद्रोही नगा नेताओं से विदेशों में मिलते रहे हैं और उन्हें शांति के रास्ते पर लाने के लिए कोशिश करते रहे हैं। यहां तक कि पीवी नरसिंह राव प्रधानमंत्री रहते हुए नगा विद्रोहियों से फ्रांस में मिले थे, जबकि प्रधानमंत्री रहते हुए एचडी देवेगौड़ा की भी विद्रोहियों से मुलाकात स्विट्जरलैंड के ज्यूरिख में हुई थी।

पिछले सात दशकों से नगा अलगाववाद का मुद्दा भारतीय संघ की संप्रभुता और अखंडता पर एक प्रश्न चिन्ह के रूप में उपस्थित रहा है। केंद्र सरकार ने इससे निपटने के लिए कभी सशस्त्र बल विशेषाधिकार अधिनियम के प्रावधानों को आजमाया तो कभी नगा विद्रोही गुटों एनएससीएन (आइएम) और एनएससीएन (खापलांग) को प्रतिबंधित समूह घोषित किया और कभी प्रतिबंध की समयावधि को बढ़ाया। देश के संविधान ने अपने तरीके से पांचवीं अनुसूची और अनुच्छेद 371ए के जरिये नगालैंड की सामाजिक, सांस्कृतिक और प्रशासनिक स्वायत्तता के प्रावधान किए। अनुच्छेद 371ए को संविधान में 13वें संशोधन के बाद 1962 में जोड़ा गया था। यह अनुच्छेद नगालैंड के लिए विशेष प्रावधान करता है। इसके मुताबिक भारतीय संसद नगालैंड की विधानसभा की मंजूरी के बिना नगा समुदाय से जुड़ी हुई सामाजिक परंपराओं, पारंपरिक नियमों व कानून द्वारा किए जाने वाले न्यायों और नगाओं की भूमि संबंधी मामलों में कानून नहीं बना सकती है। इसी अनुच्छेद के तहत नगालैंड के तुएनसांग जिले को भी विशेष दर्जा मिला है। नगालैंड सरकार में तुएनसांग जिले के लिए एक अलग मंत्री और 35 सदस्यों वाली स्थानीय काउंसिल भी बनाने का प्रावधान है, लेकिन इन सबके बावजूद नगा पृथकतावाद की मांग थमी हो, ऐसा नहीं है।

नागा विद्रोहियों की मांग : वर्ष 1980 में नेशनल सोशलिस्ट काउंसिल ऑफ नगालैंड (आइएम) नामक हिंसक अलगाववादी गुट का गठन होने के बाद नगा आंदोलन को एक नई ऊर्जा मिली। इसके प्रमुख नेताओं में आइजक और मुइवा शामिल थे। इसने नगा विद्रोहियों की पुरानी मांगों को पुनर्जीवित किया और ये मांगें आज भी बनी हुई हैं। इन मांगों में शामिल हैं- नगा बाहुल्य वाले इलाकों (असम, अरुणाचल प्रदेश और मणिपुर में रहने वाले नगाओं और उनके क्षेत्रों तथा म्यांमार में रहने वाले नगाओं के क्षेत्रों) को मिलाकर ग्रेटर नगालिम का निर्माण करना, पृथक नगा संविधान की मांग, पृथक नगा झंडे की मांग, पृथक नगा मुद्रा को चलाने की मांग और नगालैंड में बाहरी लोगों के प्रवेश पर नियंत्रण आदि।

नेशनल सोशलिस्ट काउंसिल ऑफ नगालैंड (खापलांग) का नगा विद्रोही गुट के रूप में 1988 में गठन हुआ। इसके गठन के साथ ही 1975 के शिलांग एकॉर्ड को नामंजूर कर दिया गया और इससे उत्तर पूर्वी भारत में फिर से अशांति को बढ़ावा मिला। इन दोनों गुटों में मुख्य अंतर यह है कि जहां एक तरफ एनएससीएन (आइएम) चीन के साम्यवादी क्रांतिकारी माओवादी मॉडल पर ग्रेटर नगालिम की स्थापना की मांग पर बल देता है, वहीं एनएससीएन (के) नृजातीयता पर आधारित ग्रेटर नगालिम का गठन नगा बाहुल्य वाले इलाकों को जोड़कर करने हेतु विदेशी गठजोड़ की बात करता है। उल्लेखनीय है कि नगालैंड की विधानसभा ने अब तक पांच बार ग्रेटर नगालिम के प्रस्ताव का समर्थन किया है।

नगा विद्रोहियों और भारत सरकार के मध्य वार्ता : नगा विद्रोहियों और भारत सरकार के बीच शांति वार्ता की नींव दोनों पक्षों के मध्य सैन्य विराम समझौते 1997 में देखी जा सकती है, जब दोनों पक्षों ने युद्ध विराम हेतु हस्ताक्षर किए थे। इस समझौते के तहत नगा विद्रोहियों ने हिंसक गतिविधियों का मार्ग छोड़ने पर सहमति दी थी, लेकिन यह समझौता लंबे समय तक नहीं चल सका और पृथकतावादी मांगें फिर से उभरने लगीं। इसी क्रम में अगस्त, 2015 में केंद्र सरकार ने प्रधानमंत्री की अध्यक्षता में एनएससीएन (आइएम) के साथ नगा फ्रेमवर्क एग्रीमेंट पर हस्ताक्षर किया। इससे दोनों पक्षों के मध्य शांति वार्ता बढ़ाने का मार्ग प्रशस्त हुआ। वार्ता के मुख्य बिंदुओं में शामिल था- सशस्त्र बल विशेषाधिकार अधिनियम के तहत अर्धसैनिक बलों की नगालैंड में तैनाती का मुद्दा, पृथक नगा संविधान की मांग का मुद्दा, पृथक झंडे की मांग का मुद्दा और सीमा पार प्रव्रजन से नगालैंड की जनांकिकी संरचना में आने वाले बदलाव पर चर्चा।

भारत सरकार ने यह तय किया था कि 31 अक्टूबर 2019 तक नगा शांति वार्ता से कुछ ठोस परिणाम प्राप्त किए जाएं और इसका स्थायी समाधान हो सके। इसके बाद केंद्र सरकार ने स्पष्ट कर दिया कि नगालैंड के पृथक झंडे और संविधान की मांग किसी भी स्तर पर स्वीकार्य नहीं है और शांति वार्ता को बंदूक के बल पर नहीं चलाया जा सकता। यही कारण है कि एनएससीएन (आइएम) फिर से केंद्र सरकार से कोई समझौता करने के प्रति प्रतिबद्ध नहीं दिख रहा है। एनएससीएन (आइएम) ने पिछले वर्ष इस बात की संभावना पर भी विचार करना शुरू किया कि यदि केंद्र सरकार उसकी मांगों को नहीं मानती तो वह म्यांमार में हिंसक गतिविधियों को चलाने के लिए शिविरों का गठन करेगा। इसी क्रम में मई 2019 में अरुणाचल प्रदेश के विधायक तिरोंग अबोह और 10 अन्य नेताओं की हत्या में इस संगठन की कथित संलग्नता की बात सामने आई थी।

एनएससीएन (आइएम) ने भारत सरकार के वार्ताकार और राज्यपाल एन रवि पर फ्रेमवर्क एग्रीमेंट को गलत तरीके से पेश करने का आरोप भी लगाया है और साफ किया है कि नगा संप्रभुता से समझौता नहीं किया जा सकता और इसे जाहिर करने के लिए इस समूह ने इस एग्रीमेंट की मूल प्रति भी जनता के बीच सार्वजनिक की थी। पिछले तीन वर्षो में एनएससीएन (आइएम) ने म्यांमार और उत्तर पूर्वी भारत में रहने वाले विद्रोहियों के साथ मिलकर भारत सरकार और उत्तर पूर्वी राज्यों के समक्ष बड़ी चुनौती उत्पन्न की है। वहीं एनएससीएन (खापलांग) ने म्यांमार के कुछ विद्रोही समूहों के साथ मिलकर वहां भारत की कई परियोजनाओं को निशाना बनाने का प्रयास किया है। इन सबसे निपटने के लिए म्यांमार और भारत की संयुक्त सेना ने फरवरी-मार्च 2019 में सर्जकिल स्ट्राइक के माध्यम से नगा विद्रोही समूहों और म्यांमार में विद्रोही समूहों के शिविरों को नष्ट कर दिया था। इन विद्रोही गुटों के फिर से सक्रिय होने की आशंका दिख रही है, लिहाजा भारत सरकार को बेहत सतर्कता बरतते हुए आगे कदम बढ़ाना होगा।

भारत राज्यों के एक संघ के रूप में जाना जाता है। भारत और उसके संविधान ने राज्यों की नृजातीय पहचान, स्वायत्तता और संप्रभुता का सम्मान किया है। लेकिन नृजातियता राष्ट्रीयता को चुनौती देने लगे, यह कहीं से भी जायज नहीं है। यह कतई स्वीकार्य भी नहीं है। जम्मू कश्मीर हो या नगालैंड, दोनों भारतीय संघ के अभिन्न अंग हैं। ऐसे में साझी संप्रभुता, पृथक संविधान और झंडे की मांग स्वीकार्य नहीं हो सकती। केंद्र सरकार नगालैंड में समावेशी विकास की योजनाओं, अवसंरचनात्मक विकास, सांस्कृतिक स्वायत्तता को सुनिश्चित करने के लिए ऐसे नगा समूहों की पहचान कर सकती है, जो अपेक्षाकृत उदार हों और भारतीय संघ के भीतर मिलने वाली स्वायत्तता को सहर्ष स्वीकार करें तथा उसके समूचे नगालैंड में प्रसार के लिए अपनी ओर से महत्वपूर्ण भूमिका भी निभाएं।

नगा गुटों के साथ वर्ष 2015 में जो समझौता हुआ, उसमें वर्ष 2017 में एक नया मोड़ तब आया जब सरकार ने इसमें नगा नेशनल पॉलिटिकल ग्रुप्स यानी एनएनपीजी गुटों को भी एक पक्ष के रूप में शामिल कर लिया था। भारत सरकार ने जिस तरह से असम में बोडो एकॉर्ड यानी बोडो समझौता और त्रिपुरा व मिजोरम के बीच के ब्रू जनजाति के विवाद के समाधान के लिए विविध पक्षों को विश्वास में लिया, उसी प्रकार नगालैंड के मामले में भी सरकार को यथासंभव आक्रामक हुए बगैर समस्या के समाधान के बिंदुओं की तलाश करनी चाहिए। लेकिन नगा समस्या का समाधान केवल केंद्र सरकार के गुडविल या इच्छाशक्ति से ही नहीं हो सकता, इसके लिए नगा विद्रोही समूहों को शांति और विकास का मार्ग चुनना होगा, क्योंकि भारत सरकार असम, मणिपुर और अरुणाचल प्रदेश के इलाकों को विघटित कर और उनका पुनर्निर्धारण कर पृथक नगालैंड देश के लिए किसी भी कीमत पर नहीं सोच सकती और इसलिए पृथक संविधान व झंडे की बात नहीं मानी जा रही है।

ऐसे में नगा विद्रोहियों के पास भारतीय संघ के तहत सीमित स्वायत्तता लेने के अलावा कोई विकल्प नहीं बचता है। कंेद्र सरकार को एनएससीएन (आइएम) से आगे जाकर अन्य नगा समूहों से प्रभावी परिणाम लेने का प्रयास करना होगा और ऐसे में नगा नेशनल पॉलिटिकल ग्रुप्स जो कि सात नगा विद्रोही समूहों का गुट है, उनको शांति वार्ता में प्रभावी ढंग से संलग्न करने पर बल देना अधिक कारगर हो सकता है। एनएससीएन (आइएम) और एनएससीएन (खापलांग) को अन्य सभी नगा समुदायों के बीच ही अलग थलग करने की रणनीति पर सतर्कता से आगे बढ़ना होगा।

[आंतरिक सुरक्षा मामलों के विशेषज्ञ]