[ राजीव सचान ]: इन दिनों उत्तर प्रदेश, बिहार समेत कई राज्यों के विधान परिषद चुनाव चर्चा में हैं। उत्तर प्रदेश में वरिष्ठ आइएएस अधिकारी अरविंद शर्मा और बिहार में शाहनवाज हुसैन के चुनाव मैदान में आ जाने से यह चर्चा दिलचस्प हो गई है, लेकिन यहां प्रश्न विधान परिषद चुनावों का नहीं है।

तीन वर्षों से रिक्त राज्यसभा की एक सीट

इसके पहले राज्यसभा चुनाव चर्चा में थे। तब बिहार के उपमुख्यमंत्री सुशील कुमार मोदी की उम्मीदवारी ने इस संभावना को प्रबल किया था कि क्या वह केंद्र में मंत्री बनेंगे? पता नहीं ऐसा होगा या नहीं, लेकिन वह उस राज्यसभा सीट के लिए उम्मीदवार बने, जो केंद्रीय मंत्री रामविलास पासवान के निधन के चलते रिक्त हुई थी। यहां भी ऐसा कोई प्रश्न नहीं है कि लोक जनशक्ति पार्टी की राज्यसभा सीट भाजपा को कैसे मिल गई? प्रश्न यह है कि करीब तीन वर्षों से अधिक समय से रिक्त राज्यसभा की एक सीट भरने का नाम क्यों नहीं ले रही है? यह वह सीट है जो कभी शरद यादव के पास थी।

शरद यादव ने कहा था- सिद्धांतों की लड़ाई के लिए राज्यसभा की सीट बहुत छोटी चीज है

शरद यादव 2016 में जनता दल-यू की ओर से राज्यसभा सदस्य बने, लेकिन उन्हें यह रास नहीं आया कि उनके दल ने लालू यादव के राष्ट्रीय जनता दल से नाता तोड़कर भाजपा से हाथ मिला लिया। वह इस फैसले के खिलाफ न केवल खड़े हो गए, बल्कि लालू यादव के पक्ष में खुलकर बोलने भी लगे। इतना ही नहीं उन्होंने राजद की पटना रैली में हिस्सा भी लिया। जब उनसे यह सवाल पूछा गया कि इस तरह की गतिविधियों में भाग लेने से उनकी राज्यसभा सदस्यता के लिए खतरा नहीं पैदा हो जाएगा तो उनका कहना था कि सिद्धांतों की लड़ाई के लिए राज्यसभा की सीट बहुत छोटी चीज है। वाकई वह सिद्धांतों की राजनीति के लिए जाने जाते रहे हैं।

शरद यादव उन समाजवादी नेताओं में से हैं जो गैर-कांग्रेसवाद की उपज हैं

वह उन समाजवादी नेताओं में से हैं जो गैर-कांग्रेसवाद की उपज हैं। अब वह कांग्रेस की भागीदारी वाले महागठबंधन का हिस्सा हैं। उनकी बेटी बिहार विधानसभा का चुनाव कांग्रेस प्रत्याशी के तौर पर लड़ चुकी हैं, लेकिन यहां प्रश्न उनकी राजनीतिक विचारधारा का नहीं है। वैसे भी वह भाजपा के नेतृत्व वाले राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन का हिस्सा रह चुके हैं। एक समय तो वह इस गठबंधन के संयोजक थे, लेकिन जब 2017 में नीतीश लालू से अलग हुए तो शरद यादव ने उनका साथ छोड़कर लालू का हाथ पकड़ा।

असली जदयू: कोर्ट में शरद यादव का मामला तारीख पर तारीख का शिकार है

लालू की रैली में हिस्सा लेने के आधार पर जदयू ने राज्यसभा के सभापति वेंकैया नायडू से उनकी सदस्यता खारिज करने की मांग की। दिसंबर 2017 में नायडू ने उनकी सदस्यता खारिज कर दी। इस फैसले के खिलाफ उन्होंने यह कहते हुए दिल्ली हाईकोर्ट का दरवाजा खटखटाया कि असली जदयू वही हैं। यही दावा उन्होंने चुनाव आयोग के समक्ष भी किया था, लेकिन उसने उनके इस दावे को खारिज कर दिया। हाईकोर्ट ने उनकी सदस्यता पर तो कोई फैसला नहीं दिया, लेकिन उन्हें सरकारी बंगले में रहने और वेतन-भत्ता लेने के योग्य करार दिया। इस फैसले के खिलाफ जदयू नेता सुप्रीम कोर्ट गए। वहां यह आदेश हुआ कि शरद यादव सरकारी बंगले में रह सकते हैं, लेकिन वेतन-भत्ता नहीं ले सकते। यह आदेश देते समय सुप्रीम कोर्ट ने दिल्ली हाईकोर्ट को यह भी कहा था कि वह मामले का जल्द निपटारा करे, लेकिन मामला तारीख पर तारीख का शिकार है।

शरद यादव की राज्यसभा सदस्यता पर फैसला अटका होने से चुनाव भी नहीं हो पा रहा

हालांकि तबसे शरद यादव अपनी नई पार्टी बना चुके हैं और राजद से लोकसभा चुनाव भी लड़ चुके हैं, लेकिन उनकी सदस्यता पर फैसले की नौबत नहीं आ रही है। चूंकि उनकी सदस्यता पर फैसला अटका है इसलिए उनकी सीट पर चुनाव भी नहीं हो पा रहा है। इस सीट के अधर में होने और उस पर चुनाव न होने से किसे क्या नुकसान हो रहा है, यह तो पीड़ित पक्ष ही जाने, लेकिन क्या इसका कोई तुक है कि यह न जाना जा सके कि यह सीट खाली है भरी?

शरद यादव राज्यसभा के सदस्य हैं भी और नहीं भी, राज्यसभा सीट रिक्त भी है और नहीं भी

नियमानुसार यदि राज्यसभा की सीट रिक्त हो जाए तो छह माह के अंदर चुनाव कराना आवश्यक होता है, लेकिन शरद यादव राज्यसभा के सदस्य हैं भी और नहीं भी। हैं इसलिए, क्योंकि वह राज्यसभा सदस्य के तौर पर आवंटित बंगले में रह रहे हैं। नहीं इसलिए, क्योंकि वह राज्यसभा की कार्यवाही में भाग नहीं ले सकते। कुल मिलाकर उनकी राज्यसभा सीट रिक्त भी है और नहीं भी है।

विधायकों और सांसदों की अयोग्यता संबंधी मामलों का निपटारा जल्द होना चाहिए 

यह विचित्र और रहस्यमय स्थिति सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले के बावजूद है कि विधायकों और सांसदों की अयोग्यता संबंधी मामलों का निपटारा जल्द होना चाहिए। उसके इस फैसले का असर भी हुआ और विधानसभा के अध्यक्षों ने विधायकों की अयोग्यता संबंधी मामलों का निपटारा प्राथमिकता के आधार पर करना शुरू कर दिया। ऐसी किसी प्राथमिकता का परिचय खुद न्यायपालिका की ओर से क्यों नहीं दिया जा रहा है? यह वह सवाल है, जिसका जवाब न्यायपालिका के अलावा और किसी के पास नहीं। इससे बड़ी विडंबना और कोई नहीं कि न्यायपालिका जैसी अपेक्षा विधायिका के पीठासीन अधिकारियों से कर रही है, उसकी पूर्ति खुद नहीं कर पा रही है। जब विधानमंडलों के स्पीकर्स विधायकों और सांसदों की अयोग्यता का निर्धारण करने में देरी करते हैं तब न्यायपालिका का दरवाजा खटखटाया जा सकता है, लेकिन आखिर तब कोई क्या करे जब ऐसी देरी खुद न्यायपालिका के स्तर पर हो रही हो? इसका जवाब किसी के पास नहीं। कई मामलों में उच्चतर न्यायपालिका की ओर से यह कहा जाता है कि यदि कोई अपना काम सही तरह नहीं करेगा तो हम करेंगे। प्रश्न है कि यदि न्यायपालिका अपना काम सही से न करे तो कोई क्या करे?

जब तक फैसला आए तब तक शरद यादव का कार्यकाल जुलाई 2022 बीत न जाए

शरद यादव का राज्यसभा का कार्यकाल जुलाई 2022 तक है। उनका मामला जिस तरह लंबा खिंच रहा है उससे तो यह लगता है कि कहीं जब तक फैसला आए तब तक जुलाई 2022 बीत न जाए। वैसे भी कई मामलों में ऐसा हो चुका है कि जब तक फैसला आया तब तक इतनी देर ही चुकी थी कि फैसला प्रतिवादी के पक्ष में आने के बाद भी वह उसका लाभ नहीं उठा सका।

( लेखक दैनिक जागरण में एसोसिएट एडीटर हैं )