[संजय गुप्त]। बीते कई दशकों से महाराष्ट्र की राजनीति में गहरा असर रखने वाली शिवसेना जिस तरह बिखराव से ग्रस्त है, उसके लिए उद्धव ठाकरे अपने अलावा अन्य किसी को दोष नहीं दे सकते। मराठी अस्मिता और हिंदुत्व की राजनीति के लिए जानी जाने वाली शिवसेना का गठन जिन बाल ठाकरे ने किया था, उन्होंने कभी स्वयं सत्ता की कमान नहीं संभाली, लेकिन उद्धव ठाकरे ने इस परंपरा को तोड़ दिया और पिछले विधानसभा चुनाव के बाद मुख्यमंत्री बनने के लालच में भाजपा से नाता तोड़ लिया। यह फैसला आत्मघाती सिद्ध हुआ, क्योंकि वह उस कांग्रेस और राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी यानी राकांपा की शरण में चले गए, जो उसे सांप्रदायिक कहकर कोसती रहती थीं। हालांकि शिवसेना विधानसभा चुनाव भाजपा के साथ मिलकर लड़ी थी, लेकिन नतीजे आने के बाद वह इस पर अड़ गई कि मुख्यमंत्री पद उसे मिले। उसने यह जिद इसके बाद भी की कि उसे मात्र 55 सीटें मिली थीं और भाजपा को 105।

एक समय था जब शिवेसना भाजपा की वरिष्ठ सहयोगी हुआ करती थी, लेकिन बाद में भाजपा के मुकाबले उसके वोट प्रतिशत और सीटों में कमी आती गई। परिणाम यह हुआ कि मुख्यमंत्री पद भाजपा के हिस्से में चला गया। लगता है शिवसेना इस कड़वी राजनीतिक हकीकत को हजम नहीं कर पाई और इसीलिए पिछले चुनाव के बाद उसने यह कहना शुरू कर दिया कि भाजपा ने उसे मुख्यमंत्री बनाने का वादा किया था। चूंकि भाजपा ने ऐसा कोई वादा किया नहीं था, इसलिए वह उसे मुख्यमंत्री पद देने को तैयार नहीं हुई।

सत्ता के लिए उतावले दिख रहे उद्धव ठाकरे को राकांपा नेता शरद पवार ने न केवल सहारा दिया, बल्कि कांग्रेस को भी इसके लिए राजी कर लिया कि भाजपा को सत्ता में आने से रोकने के लिए उसे शिवसेना के नेतृत्व वाली सरकार का साथ देना चाहिए। आश्चर्य की बात यह रही कि कांग्रेस इसके लिए तैयार भी हो गई, लेकिन आज स्थिति यह है कि जिन शरद पवार ने महाविकास अघाड़ी सरकार बनवाई, वह शिवसेना में विद्रोह को उसका आंतरिक मामला बताकर कर्तव्य की इतिश्री कर रहे हैं। इससे तो यही लगता है कि उन्होंने शिवसेना का इस्तेमाल कर उसे उसके हाल पर छोड़ दिया। कांग्रेस के रुख-रवैये से भी यही प्रकट होता है कि उसे इसकी चिंता नहीं कि उद्धव सरकार रहे या जाए।

महाराष्ट्र सरकार की कमान भले ही उद्धव ठाकरे के हाथ में हो, लेकिन उसे एक तरह से शरद पवार ही चला रहे थे। उन्होंने गृह मंत्रालय के साथ वित्त मंत्रालय अपने दल के नेताओं को दिया। हालांकि शिवसेना के कई नेता कांग्रेस और राकांपा के साथ मिलकर सरकार बनाने को तैयार नहीं थे, लेकिन उद्धव के आगे उनकी एक नहीं चली। मुख्यमंत्री बनने के लोभ में उन्होंने इसकी परवाह नहीं की कि कांग्रेस और राकांपा के साथ मिलकर सरकार बनाने से शिवसेना के समर्थकों और कार्यकर्ताओं के बीच क्या संदेश जाएगा? उन्होंने अपनी राजनीतिक महत्वाकांक्षा पूरी करने के लिए जिस तरह शिवसेना की विचारधारा का परित्याग किया, उसके दुष्परिणाम सामने आने ही थे।

उनके फैसले को शिवसेना नेताओं ने बेमन से स्वीकार भले कर लिया हो, लेकिन वे यह समझ रहे थे कि उन्हें इसकी राजनीतिक कीमत चुकानी पड़ेगी। शिवसेना के नेता और कार्यकर्ता जो घुटन महसूस कर रहे थे, उसका पूरा लाभ भाजपा ने उठाया। भले ही भाजपा यह कह रही हो कि शिवसेना में विद्रोह से उसका कोई लेना-देना नहीं, लेकिन कोई भी समझ सकता है कि विद्रोही शिवसैनिकों से उसका संपर्क-संवाद कायम होगा।

लगता है देवेंद्र फडऩवीस ने इस बार बहुत सधे ढंग से अपनी चाल चली है। इसके पहले फडऩवीस के कारण ही भाजपा ने पहले राज्यसभा चुनाव में बढ़त हासिल की और फिर विधान परिषद चुनाव में भी। फडऩवीस के नेतृत्व में भाजपा ने बीते ढाई साल में शिवसेना को बार-बार केवल आईना ही नहीं दिखाया, बल्कि यह भी उजागर किया कि महाविकास अघाड़ी सरकार एक बेमेल गठबंधन वाली सरकार है।

यह पहले दिन से तय था कि महाविकास अघाड़ी के नाम पर जो गठबंधन बना, वह अस्थायी है, क्योंकि कांग्रेस लगातार यह कह रही थी कि वह अगला चुनाव अपने दम पर लड़ेगी, लेकिन उद्धव ठाकरे दीवार पर लिखी इबारत पढऩे से इन्कार करते रहे। उन्हें यह भी पता था कि राकांपा भी उसके साथ मिलकर अगला चुनाव नहीं लडऩे वाली और वह अपने बलबूते कोई करिश्मा नहीं कर पाएंगे, फिर भी उन्होंने दूरदर्शिता दिखाने से इन्कार किया। जब शिवसैनिक इसे लेकर बेचैन थे कि वे अगले चुनाव में किस मुंह से जनता के पास जाएंगे, तब उद्धव राकांपा और कांग्रेस को खुश करने के लिए प्रधानमंत्री मोदी और भाजपा को आड़े हाथ ले रहे थे।

शिवसेना के मुखपत्र सामना में ऐसे लेख लिखे जा रहे थे, जो शिवसेना की विचारधारा से मेल नहीं खाते थे। एक समस्या यह भी थी कि उद्धव अपने मंत्रियों से भी मुश्किल से ही मिलते थे। यह ठीक है कि वह बीच-बीच में हिंदुत्व की बात करते रहे और खुद को हिंदुत्ववादी साबित करने के लिए अयोध्या में राम मंदिर निर्माण का श्रेय भी लेने की कोशिश करते रहे, लेकिन इससे बात बनी नहीं। हाल में उन्होंने बेटे आदित्य ठाकरे को अयोध्या भेजा, लेकिन उसका कोई खास असर इसलिए नहीं पड़ा, क्योंकि वह कांग्रेस और राकांपा के एजेंडे को ही आगे बढ़ाते दिख रहे थे।

जो एकनाथ शिंदे शिवसेना में बगावत का नेतृत्व कर रहे हैं, वह पार्टी के कद्दावर नेता ही नहीं, उद्धव ठाकरे के विश्वास पात्र भी थे, लेकिन उनकी लगातार उपेक्षा हुई। ऐसी ही उपेक्षा अन्य नेता भी झेल रहे थे। शिंदे ने कुछ उसी तरह का विद्रोह किया, जैसे एक समय आंध्र में एनटी रामाराव के विरुद्ध उनके दामाद चंद्रबाबू नायडू ने किया था। शिंदे दावा कर रहे हैं कि उनके पास करीब 40 विधायक हैं। वह अपने गुट को असली शिवसेना साबित करने के साथ नई पार्टी बनाने के भी संकेत दे रहे हैं।

यदि वह इसमें सफल हो जाते हैं तो उद्धव का खेल खत्म हो सकता है। शिंदे के तेवर यही बता रहे हैं कि उद्धव के लिए सत्ता के साथ पार्टी बचाने की भी चुनौती खड़ी हो गई है। वह गहरे संकट में हैं, इसका पता इससे भी चलता है कि पहले वह विद्रोही विधायकों से मुंबई आकर बात करने की अपील कर रहे थे, लेकिन अब उन्हें धमका रहे हैं। शिवसेना का संकट यह भी बता रहा है कि विचारधारा से समझौता करने और परिवारवाद को बढ़ावा देने के नतीजे अच्छे नहीं होते।

[लेखक दैनिक जागरण के प्रधान संपादक हैं]