[ एमजे अकबर ]: वर्ष 1952 में हुए पहले आम चुनाव के साथ ही हर एक चुनाव के साथ कुछ आम धारणाएं लगातार ध्वस्त होती आई हैं। हालांकि इसका कोई एक निश्चित प्रारूप नहीं रहा है। कुछ दौर ऐसे भी रहे जब बदलाव की बयार उतनी तेज नहीं थी और दुविधाग्रस्त मतदाताओं ने खंडित जनादेश ही दिया। 1980 से 2014 के बीच साढ़े तीन दशकों तक मतदाता निरंतर रूप से परिवर्तन के आभास वाले जाल में फंसते रहे जबकि प्रगति की प्रकृति वैसी नहीं थी। हालांकि ऐसी दलील दी जाती है कि 1984 का जनादेश ऐतिहासिक था, लेकिन तब लोगों ने अर्थव्यवस्था या सुशासन के बजाय श्रीमती इंदिरा गांधी की निर्मम हत्या से उपजी सहानुभूति के आधार पर मतदान किया था।

वर्ष 2004 से 2014 के बीच संप्रग के एक दशक का शासनकाल विरोधाभासों की पराकाष्ठा था। व्यवस्था से खिन्न मतदाता जहां सुशासन की मांग कर रहा था, वहीं जिन लोगों के हाथ में सत्ता की कमान थी उनका असल व्यवहार वास्तव में बद से बदतर होता जा रहा था। किसी भी कीमत पर सत्ता हासिल करने के लिए बेचैन कांग्र्रेस ने अवसरों की भरमार और बाजार के द्वार उसी तबके के लिए खोल दिए जो देश के संसाधन लूटने के बदले में कांग्र्रेस को सत्ता में बनाए रखने में मददगार बने हुए थे। भ्रष्टाचार बहुत ही संक्रामक बीमारी है। कांग्र्रेस पार्टी के मामले में यह संक्रमण शीर्ष से फैला। शीर्ष परिवार और उसके संगी-साथियों के खिलाफ मामलों को देखकर यही लगता है कि कांग्र्रेस पर काबिज शीर्ष परिवार के दोनों हाथ खजाने पर लगे हुए थे। इसमें हर किसी की चांदी हुई। ऐसी लूटपाट केवल राजनीतिक वर्ग तक सीमित नहीं रही। कारोबारी और मीडिया के दिग्गजों ने भी हरसंभव तरीके से इसका फायदा उठाया। इस तरह जनता का आक्रोश 2014 में चरम पर पहुंच गया।

उस पुरानी और जीर्ण-शीर्ण होती व्यवस्था से मुक्ति और नए बदलाव के लिए ही 2014 में नरेंद्र मोदी चुने गए। वह जो बदलाव लेकर आए उसे निरंतरता देने के लिए ही 2019 में उन्हें भारतीयों ने दोबारा जनादेश दिया ताकि वह यह सुनिश्चित कर सकें कि परिवर्तन की यह प्रक्रिया अपनी तार्किक परिणति तक पहुंचे।

यहां तक कि सोशल मीडिया पर फैले प्रधानमंत्री के कट्टर आलोचक और दिल्ली के विदेशी मीडिया क्लब भी अब न चाहते हुए यह स्वीकार कर रहे हैं कि चुनाव में जहां राहुल गांधी घिसे-पिटे जुमलों के साथ संघर्ष करते रहे वहीं नरेंद्र मोदी का एक अलग क्षितिज की दिशा में नए सिरे से उभार हुआ है। मगर वे अभी भी यह स्वीकार करने से इन्कार कर रहे हैं कि 2019 के चुनाव ने चुनावी गणित के केंद्र को बदल दिया है। चलिए मैं इस बहुआयामी परिवर्तन के केवल एक पहलू की ही परतें खोलता हूं।

मुस्लिम महिलाओं ने भारी तादाद में प्रधानमंत्री मोदी के लिए अपना वोट दिया। अगर आपको मेरी बात पर यकीन नहीं तो मैं जाने-माने मुस्लिम नेता मौलाना बदरुद्दीन अजमल के एक टेलीविजन साक्षात्कार का हवाला देना चाहूंगा। असम से ताल्लुक रखने वाले अजमल भाजपा के धुर विरोधी हैं। उस साक्षात्कार में मौलाना ने बिना किसी हिचक के कहा कि मुस्लिम महिलाओं के एक वर्ग का झुकाव प्रधानमंत्री मोदी की ओर रहा। वह साक्षात्कार यूट्यूब पर उपलब्ध है तो इसे लेकर किसी संदेह की गुंजाइश भी नहीं। इसमें उन्होंने विस्तार से बताया कि कांग्र्रेस ने कैसे अपने छल-कपट से लगातार मुसलमानों के साथ धोखा किया।

इससे यह पुष्टि होती है कि राजनीतिक दलों ने भले ही धीरे-धीरे और संभवत: बहुत हिचक के साथ जनसांख्यिकीय गणित में बड़े बदलाव के रुझान को स्वीकार करना शुरू कर दिया है।

असल में दो कारकों से समीकरण बदल रहे हैं। पहली बार ऐसा हुआ है कि मुस्लिम वर्ग के एक बड़े हिस्से का वोट किसी भाजपा नेता को मिला है। दूसरा यही कि मुस्लिम महिलाओं ने अपने खुद के हितों को देखते हुए वोट देने का फैसला किया और इसमें पुरुषों द्वारा आम तौर पर दी जाने वाली दलीलें कहीं नहीं टिकतीं। मुस्लिम महिलाओं ने बड़ी शांति से परिवर्तन को मूर्त रूप दिया। यह आसानी से समझा जा सकता था, मगर खामोशी के साथ किए गए उनके विद्रोह ने एक बड़ा अंतर पैदा किया। अब आंकड़े भी आ गए हैं तो चलिए उनकी एक झलक पर भी नजर डाल लेते हैं।

भाजपा ने मुस्लिम बहुल आबादी वाली 50 प्रतिशत से अधिक सीटें जीतीं। वर्ष 2008 में कांग्र्रेसनीत संप्रग सरकार में इन सीटों को चिन्हित किया गया था। भाजपा की तुलना में कांग्र्रेस ने 2014 में इनमें से 12 सीटों पर जीत हासिल की थी और इस बार वह ऐसी केवल छह सीटों पर ही जीत पाई है। अगर आपको एकबारगी यह लगे कि यह ‘गैर-मुस्लिम वोटों’ की बड़ी लामबंदी का परिणाम है तो फिर हमें बंगाल के दो उदाहरणों पर भी गौर करना चाहिए।

पश्चिम बंगाल में 2019 से पहले भाजपा का मामूली प्रभाव था। वहां की रायगंज और मालदा उत्तर सीट पर तकरीबन आधी आबादी मुस्लिम है। रायगंज में 49 प्रतिशत तो मालदा में 50 प्रतिशत मुस्लिम मतदाता हैं। भाजपा ने रायगंज सीट जहां 60,674 वोटों से जीती वहीं मालदा में उसे 84,288 वोटों से जीत हासिल हुई। ऐसे में कोई संदेह नहीं कि अगर भाजपा को मुस्लिमों के बड़ी संख्या में मत नहीं मिले होते तो वह इनमें से किसी भी सीट पर नहीं जीत पाती। ये वोट मुस्लिम महिलाओं के ही थे।

आखिर तमाम मुस्लिम महिलाओं का मानस कैसे बदला? इसका जवाब बिल्कुल भी जटिल नहीं है। उन्हें लगा कि प्रधानमंत्री मोदी की नीतियां उनके और उनके परिवार के लिए अच्छी हैं। तीन तलाक की समाप्ति के वादे ने भी कुछ असर दिखाया। मगर इससे भी ज्यादा महत्वपूर्ण मिशन-मोड वाले ऐसे कार्यक्रम रहे जिन्होंने सभी तबके की महिलाओं को प्रभावित किया। विशेषकर शौचालय, गैस सिलेंडर, बैंक खाते और नए मकान का वादा। मुस्लिम महिलाओं की आंखें पुरुषों की तुलना में कहीं अधिक खुली रहीं। उन्होंने देखा कि सरकारी योजनाओं के फायदे पहुंचाने में कोई भेदभाव नहीं किया गया। उन्होंने दुष्प्रचार पर वास्तविकता को तरजीह दी। उन्होंने खुली आंखों और खुले दिमाग के साथ मोदी को वोट दिया।

यह 2019 के आम चुनाव का यह एक अहम पहलू है। मुसलमानों को मोदी के खिलाफ भड़काने में कुछ ताकतों ने कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी। इस जनादेश ने उनके मोदी विरोधी विमर्श और आक्रामक प्रचार की हवा निकाल दी। 2019 एक नई शुरुआत का प्रस्थान बिंदु है। इसके साथ ही एक नई प्रक्रिया शुरू हुई है। अगर यह शुरुआती माहौल कायम रहता है तो यह राष्ट्रीय स्तर पर भारतीय चुनावों को नए सिरे से परिभाषित करेगा।

( लेखक पूर्व केंद्रीय मंत्री एवं वरिष्ठ स्तंभकार हैं )

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